श्री प्रदीप शर्मा
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “प्रतिभा और पलायन…“।)
अभी अभी # 563 ⇒ प्रतिभा और पलायन श्री प्रदीप शर्मा
BRAIN DRAIN
यह समस्या आज की नहीं है, आज से ६० वर्ष पुरानी है, जब शिक्षाविद् और देश के प्रबुद्ध चिंतक विचारक युवा प्रतिभाओं की ब्रेन ड्रेन समस्या से अत्यधिक चिंतित थे, और उनकी सारी चिंता वह हम कॉलेज के फुर्सती छात्रों पर छोड़ दिया करते थे। निबंध और वाद विवाद प्रतियोगिताओं में एक ही विषय, “प्रतिभाओं का पलायन, यानी ब्रेन ड्रेन”।
हम लोगों में तब इतना ब्रेन तो था कि हम ड्रेन का मतलब आसानी से समझ सकें। तब हमने स्वच्छ भारत का सपना नहीं देखा था, क्योंकि हमारा वास्ता शहर की खुली नालियों से अक्सर पड़ा करता था, जिसे आम भाषा में गटर कहते थे। हमारे देश की प्रतिभाओं का दोहन विदेशों में हो और हम देखते रहें।।
परिसंवाद में इस विषय पर पक्ष और विपक्ष दोनों अपने अपने विचार रखते और निर्णायक महोदय बाद में अपने अमूल्य विचार रखते हुए किसी वक्ता को विजयी घोषित करते। सबको समस्या की जड़ में भ्रष्टाचार, भाई भतीजावाद, नौकरशाही और राजनीति ही नजर आती।
तब वैसे भी विदेश जाता ही कौन था, सिर्फ डॉक्टर, इंजीनियर, वैज्ञानिक और उद्योगपति। मुझे अच्छी तरह याद है, इक्के दुक्के हमारे अंग्रेजी के प्रोफेसर चंदेल सर जैसे शिक्षाविद् जब रोटरी क्लब के सौजन्य से विदेश जाते थे, तो उनकी तस्वीर अखबारों में छपती थी।
नईदुनिया में आसानी से यह शीर्षक देखा जा सकता था, विदेश और उस व्यक्ति की तस्वीर सहित जानकारी। आप उच्च शिक्षा के लिए विदेश प्रस्थान कर रहे हैं।।
लेकिन हमें तो आज कहीं भी प्रतिभा के पलायन अथवा ब्रेन ड्रेन जैसी परिस्थिति नजर नहीं आती। क्योंकि हमारा आधा देश तो विदेश में ही बसा हुआ हैं। जिस पुराने दोस्त को देखो, उसके बच्चे विदेश में, और हमारे अधिकांश मित्र भी आजकल विदेशों में ही रहते हैं और कभी कभी अपने घरबार और संपत्ति की देखरेख करने चले आते हैं। बच्चे भी जब आते हैं, शहर के आसपास कुछ इन्वेस्ट करके ही जाते हैं। हम इसे ब्रेन ड्रेन नहीं मानते, यह तो अपनी प्रतिभा का सदुपयोग कर विदेशी मुद्रा भारत में लाने का एक सराहनीय प्रयास ही है न।
प्रतिभा के पलायन जैसे शब्द से हम घोर असहमति प्रकट करते हैं। स्वामी विवेकानंद जैसी कई प्रतिभाएं समय समय पर विदेश गई और संपूर्ण विश्व को हमारे भारत का लोहा मनवा कर ही वापिस आई। ओशो और कृष्णमूर्ति ने तो पूरी दुनिया में ही अपना डंका बजाया। आज भारतीय प्रतिभा के बिना दुनिया का पत्ता नहीं हिल सकता। क्या माइक्रोसॉफ्ट और क्या गूगल। विदेशी कंपनियां हमारे आयआयटी के प्रतिभाशाली छात्रों को करोड़ों के पैकेज पर उठाकर ले जाती हैं, यह हमारे देश के लिए गर्व की बात है।।
भारत विश्व गुरु, फिर भी चिंता तो है ही भाई। धर्म और अध्यात्म की दूकान भी तो विदेशों में ही अधिक अच्छी चलती है। और इधर हम जैसे कुछ वोकल फॉर लोकल के लिए प्रयासरत हैं।
अमेज़न और बिग बास्केट वाले आज हमारे घर घर चक्कर लगा रहे हैं। यानी देखा जाए तो गंगा उल्टी ही बह रही है। प्रतिभा का क्या है, वह तो जहां है, वहां दूध ही नहीं, घी मक्खन भी देगी।।
© श्री प्रदीप शर्मा
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