श्री प्रदीप शर्मा
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “लिखना मना है…“।)
अभी अभी # 570 ⇒ लिखना मना है श्री प्रदीप शर्मा
हँसना मना है, यह तो सुना था, लेकिन लिखना मना है, क्या यह कुछ ज्यादती नहीं हो गई। मनुष्य का यह स्वभाव है कि उसे जिस काम के लिए मना किया जाएगा, वही काम वह अवश्य करेगा। ज़रूर कोई हँसने की बात होगी, इसलिए हँसने को मना किया होगा, और चुटकुलों का शीर्षक हंसना मना है, ही हो गया।
हमारे यहाँ दीवार स्वच्छ भारत के पहले कई काम आती थी। लोग दीवारों पर कुछ भी लिख दिया करते थे। चुनावी नारे और सड़क छाप विज्ञापन। जिन दीवारों पर कुछ भी लिखने का प्रतिबंध लगा होता था, वहां भी यह लिखकर समझाना पड़ता था, यह पेशाब करना मना है। स्वच्छता में हमेशा अव्वल, मेरे शहर में नगर निगम ने स्वास्थ्य और स्वच्छता संबंधी ही इतने नारे लिख दिए हैं, कि अब वहां कुछ नहीं लिखा जा सकता और सफाई इतनी कि चिड़िया भी लघु शंका के लिए शरमा जाए।।
अक्सर सरकारी दफ्तरों और कार्यालयों के बाहर, अंदर आना मना है, अथवा प्रवेश निषेध जैसे निर्देश देखे जा सकते हैं। लोग फिर भी चलते चलते झांक ही लेते हैं, अंदर क्या चल रहा है। नो पार्किंग पर गाड़ी खड़ी करना और यहां थूकना मना है वाली हिदायत तो पूरी तरह पान की पीक और कमलापसंद के हवाले कर दी जाती है।
हमारी पीढ़ी ने पिछले 70 वर्षों में देश में पहले केवल कांग्रेस वाली आजादी देखी है और बाद में मोदी जी वाला स्वच्छ भारत। हमने आपातकाल भी देखा है और कोरोना काल भी। अभिव्यक्ति की आजादी भी देखी है प्रेस सेंसरशिप भी। एक पढ़े लिखे समाज में लिखने और बोलने की आजादी तो होती ही है।
हमारा सोशल मीडिया उसे और मुखर बना देता है।।
हम पहले बोलना सीखते हैं, फिर पढ़ना लिखना ! पहले लिखकर पढ़ते हैं, फिर पढ़कर लिखते हैं। पहले किताब पढ़ी, फिर किताब लिखी। जिस तरह हँसना मना नहीं हो सकता, उसी तरह लिखना भी मना नहीं हो सकता,
पढ़ना भी मना नहीं हो सकता और बोलना भी मना नहीं हो सकता।
आजादी और अनुशासन, एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। लिखने, पढ़ने और बोलने की आजादी भी लोकतंत्र में तब ही सार्थक है, जब यह मर्यादित और रचनात्मक हो। और तो और क्रूर हँसी और हास्यास्पद बयान भी किसी की गरिमा को ठेस पहुंचा सकते हैं। उठने बैठने की ही नहीं, हँसने बोलने की भी तमीज होती है। बुरा कहने, बोलने और सुनने से परहेज करने वाले भले ही तीन बंदर हों, लेकिन उनकी हंसी उड़ाकर, हम अपने ही पांवों पर कुल्हाड़ी मार रहे हैं।
हम पर अपने स्वयं के अलावा कौन अंकुश लगा सकता है। मन बहुत मना करता है, कुछ लिखा न जाए, कुछ बोला न जाए। बहुत कोशिश की जाती है, आज गंभीर रहा जाए, खुलकर हंसा न जाए, मुस्कुराया न जाए, लेकिन कंट्रोल नहीं होता। हंसी आखिर फूट ही पड़ती है।
आखिर खिली कली मुस्कुरा ही देती है। कलम के भी मानो पर निकल आते हैं, शब्द बाहर आने के लिए थिरकने लगते हैं। बाहर बोर्ड लगा है, लिखना मना है, और उसी पर कुछ लिखा जा रहा है। कुछ तो ईश्वर का लिखा है, कुछ हमारे द्वारा लिखा जा रहा है। झरना बह उठता है। आप कहते रहें, लिखना मना है। हमने लेकिन कब माना है।।
© श्री प्रदीप शर्मा
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