श्री प्रदीप शर्मा
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “साहिर और महेन्द्र कपूर…“।)
अभी अभी # 580 ⇒ साहिर और महेन्द्र कपूर श्री प्रदीप शर्मा
वैसे तो साहिर अपनी मर्जी के शायर थे और किसी खूंटे से बंधे नहीं थे, लेकिन फिल्म नया दौर से, वक्त तक, बी आर चोपड़ा से उनकी जोड़ी खूब जमी। नया दौर में अभिनेता दिलीपकुमार थे, और इस फिल्म के सभी हिट गीतों को जहां मोहम्मद रफी ने अपना स्वर दिया था, वहीं ओ पी नैय्यर ने इन्हें अपने मधुर संगीत में ढाला था।
लेकिन बी आर चोपड़ा, ओ पी नैय्यर और साहिर लुधीयानवी की तिकड़ी और रफी साहब की आवाज का यह करिश्मा आगे चल नहीं पाया। बी आर चोपड़ा चाहते थे कि मोहम्मद रफी केवल उनकी फिल्मों के लिए ही गीत गाएं, जो कि रफी साहब को मंजूर नहीं था। उनका मानना था कि उनकी आवाज सभी संगीतकारों के लिए बनी है, वे कोई दरबारी गायक नहीं हैं।।
बस यही बात चोपड़ा साहब को चुभ गई और उन्होंने प्रण कर लिया कि वे एक और मोहम्मद रफी खड़ा करेंगे और इसके लिए उन्होंने रफी साहब के ही शागिर्द महेन्द्र कपूर को चुना। वैसे भी मुकेश, किशोर कुमार और रफी साहब के चलते महेन्द्र कपूर साहब को फिल्में कम ही मिलती थी, फिर भी उपकार फेम मनोज कुमार भी उन पर पूरी तरह से मेहरबान थे, जिस कारण कल्याण जी आनंद जी के भी वे प्रिय हो चले थे। याद कीजिए, दिलीप कुमार की फिल्म गोपी के रफी साहब के एक भजन को छोड़कर, सभी गीत महेन्द्र कपूर ने ही गाये थे।
अधिक विषयांतर ना करते हुए हम साहिर और महेन्द्र कपूर के साथ के बारे में चर्चा करते हैं। फिल्म गुमराह के गीतों को ही ले लीजिए। चलो एक बार फिर से अजनबी बन जाएं हम दोनों। यहां संगीतकार ओ पी नैय्यर नहीं हैं, रवि हैं। श्रोता को समझ भी नहीं आता, वह शब्दों में खो गया है, अथवा आवाज की मिठास में। इसी फिल्म के एक और गीत, इन हवाओं में, इन फिज़ाओं में, में आशा भोंसले का कंठ अधिक मधुर है अथवा महेन्द्र कपूर का, आप ही बताइए।।
गुमराह(1963) के बाद वक्त(1965) और हमराज(1967) गीत संगीत के हिसाब से सफल रही, जहां साहिर और महेन्द्र कपूर अपने जलवे बिखेरते नजर आए। इसके बाद की तीन फिल्में क्रमशः धुंध, (1973)इंसाफ का तराजू(1980) और निकाह(1982) बॉक्स ऑफिस पर चली जरूर लेकिन तब तक चोपड़ा साहब का एक और रफी तैयार करने का सपना चूर चूर हो चला था। फिल्म वक्त में थक हारकर उन्हें वापस रफी साहब की ही आवाज लेनी पड़ी। आदमी को चाहिए, वक्त से डरकर रहे, कौन जाने किस घड़ी, वक्त का बदले मिजाज़।।
फिल्म हमराज़ के तीनों गीत, नीले गगन के तले, तुम अगर साथ देने का वादा करो अथवा किसी पत्थर की मूरत से, जब मैं सुनता हूं, तो मुझे महेन्द्र कपूर की सूरत में साहिर की सीरत नजर आती है।
इतनी सॉफ्ट मखमली आवाज से वे शुरू करते हैं, लेकिन अपनी रेंज में रहते हुए खूबसूरत आलाप भी बखूबी ले लेते हैं। वे कहीं भी बेसुरे नजर नहीं आते। साहिर और महेन्द्र कपूर के सर्वश्रेष्ठ गीतों का एल्बम अगर बनेगा तो उसमें ये गीत अवश्य शामिल होंगे।
साहिर और महेंद्र कपूर की सबसे यारी रही। गुरुदत्त की प्यासा हो या कागज़ के फूल, साहिर ने अगर संगीतकार रवि के लिए गीत लिखे तो चित्रगुप्त और लक्ष्मी प्यारे के लिए भी। बस शायद नौशाद और शंकर जयकिशन को कभी साहिर की याद नहीं आई। एक के पास अगर शकील थे तो दूसरे के हाथ में दो दो लड्डू, शैलेन्द्र और हसरत जयपुरी।।
साहिर और महेन्द्र कपूर का ही एक गीत है, संसार की हर शै का, इतना ही फसाना है, एक धुंध से आना है, एक धुंध में जाना है। एक और शायर कैफ़ी आज़मी गुरुदत्त के लिए भी कह गए, जो हम सब पर लागू होता है,
देखी जमाने की यारी, बिछड़े सभी बारी बारी।।
© श्री प्रदीप शर्मा
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