श्री प्रदीप शर्मा
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “तलब…“।)
अभी अभी # 588 ⇒ तलब श्री प्रदीप शर्मा
न अब, न तब, तो कब, किसे नहीं लगी तलब ! तलब केवल लब तक ही सीमित नहीं रहती, यह पूरे जिस्म में उतर जाती है। किसी ने भले ही इसका हॉर्स-पावर नहीं जाना हो, लेकिन तलब में बहुत बल है।
आखिर यह तलब है क्या ?
क्या यह कोई बुरी लत है, आदत है, चस्का है, या फिर एक तरह का सेल्फ कंडीशनिंग है। शराब की लत बुरी है, यह तो सुना है, लेकिन तलब को बड़ी मासूमियत से स्वीकारा गया है।।
दावत में छककर खाया ! मानो तालाब लबालब। फिर भी न जाने कहाँ से तलब उठी ! एक मीठा पत्ता पान और हो जाता, तो मज़ा आ जाता। जहाँ ज़ुबाँ चुप रहती है, लब कमाल बता जाते हैं। ये तलब ऐसी ही होती है जी।
आत्मा शरीर में होती है, दिखाई कहाँ देती है। तलब भी दिखाई नहीं देती, पर महसूस होती है। आत्मा को नित्य, शुध्द माना गया है, वह सुखी दुखी नहीं होती। लेकिन किसी को दुखी देख, संत-महात्माओं की आत्मा को कष्ट ज़रूर होता है। तलब का भी कहीं अंदर से आत्मा से संबंध ज़रूर होता है।
अब आप चाय को ही ले लीजिए ! चाय में ऐसा क्या है कि इसकी तलब उठती है। सुबह हाथ-पाँव टूटते हैं, आँखें नहीं खुलती, अलसाये बदन की एक ही माँग होती है, एक प्याला गर्मा-गर्म, भाप निकलता हुआ, चाय का प्याला। लबों को छूती एक-एक चुस्की, नासिका में चाय की खुशबू, फूँक मार-मारकर हलक से नीचे उतरती चाय संजीवनी बूटी का काम करती है। यह तलब कहीं न कहीं, आत्मिक संतुष्टि से जुड़ी प्रतीत होती है। कहीं तलब का आत्मा से कोई संबंध तो नहीं।।
चाय तो महज एक उदाहरण है तलब का। अगर आपने अशोककुमार की फ़िल्म मेहरबान देखी हो तो, सिगरेट छोड़ने से पहले, सिगरेट का आखरी कश लेने का उनका अभिनय इतना ग़ज़ब का था, मानो सिगरेट नहीं, उनसे उनकी साँसें जुदा हो रही हों। जिस बेसब्री से बीड़ी सिगरेट सुलगाई जाती है, और उसका कश लिया जाता है, वह तलब नहीं तो और क्या है।
लत, शौक और आदत बहुत कमज़ोर शब्द प्रतीत होते हैं, तलब के आगे। तलब का कोई सबब नहीं, कोई तोड़ नहीं, कोई विकल्प नहीं। बरसात में मूँग के भजियों अर्थात मुंगौड़ों को देख, किसका मन नहीं मचलता। लेकिन जब तलब लग जाती है, तो आसमान सर पर उठा लिया जाता है। धनिया, अदरक, हरी मिर्ची, प्याज सबकी व्यवस्था हो जाती है, एक अदद तलब को मिटाने के लिए। अवचेतन में मानो कोई कह रहा हो, आज नहीं तो फिर कब ?
तलब का भूख-प्यास से कोई संबंध नहीं ! कड़कती भूख में ठंडी रोटी-अचार और लोटा भर पानी ही छप्पन भोग नज़र आते हैं, लेकिन तलब तो आत्मा की आवाज़ है, एक बच्चे की ज़िद है, चइये मने चइये। तलब किया जाए। इसी बात पर सुबह सुबह एक कप चाय हो जाए।।
© श्री प्रदीप शर्मा
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