श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “गन्ने का रस (बच्चों की मधुशाला)।)

?अभी अभी # 593 ⇒ गन्ने का रस (बच्चों की मधुशाला) ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

आज मेरे शहर में जहां ट्रेड सेंटर और बड़े बड़े मॉल हैं, वहां पहले गन्ने के रस की मधुशाला थी। वसंत पंचमी के आगमन से ही इन खाली जगहों पर अस्थाई निर्माण शुरू हो जाता था। मालवा की शामों में मस्ती और सुरूर होता है। आज जैसी बर्फीली हवाएं तब नहीं बहा करती थी। दोपहर की गर्मी के बाद, ढलती शाम में इंदौर में ये मधुशालाएं आबाद हुआ करती थी।

गन्ने के रस में एक सात्विक नशा है, जिसे teetotaller ही जान सकते हैं। जो पूरी तरह चाय पर निर्भर होते हैं, उन्हें teetotaller कहते हैं। जो आनंद सुबह की चाय देती है, वही आनंद भरी दोपहरी में एक ग्लास ठंडा गन्ने का रस देता है।।

तब ठंडा ठंडा कूल कूल का विज्ञापन नहीं आता था ! कोक और पेप्सी तब तक अपनी जड़ें नहीं जमा सके थे। पचास नए पैसे में अगर आपको एक ग्लास गन्ने का रस मिल रहा है, वह भी बर्फ, नींबू और मसाले के साथ, तो क्या बुरा है।

आज भी उसे गन्ने की चरखी ही कहते हैं। धर्मवीर भारती की कहानी ठेले पर हिमालय की तरह, पूरी गन्ने की चरखी भी आजकल ठेले पर ही नजर आ जाती है। भरी दोपहर में फुटपाथ पर, किसी भी झाड़ की छांव के नीचे इनकी चलित मधुशाला अपना डेरा जमा लेती है। दस अथवा पंद्रह रुपए में गन्ने का पूरा निचोड़ आप उदरस्थ कर सकते हैं। गन्ना दुबला है या मोटा, मीठा है या फीका, यह आपका नसीब। उस बदनसीब को तो कभी भी वहां से हटाया जा सकता है।।

गन्ने की चरखी की भी अपनी एक कहानी है। गांव में खेत से गन्ने लाए जाते थे, गन्ने की चरखी में उनका रस निकाला जाता था, और फिर उसे एक बड़े कढ़ाव में उबालकर गुड़ बनाया जाता था। गन्ने के छिलके जानवरों के लिए चारे का काम करते थे, और गुड़ गरीब की थाली में मिठाई का काम करता था।

हम लोग साइकिलों पर शहर से लगे गांवों में निकल जाते थे, गुड़ और गन्ने के रस का स्वाद लेते हुए, कुछ गन्ने साइकिल पर लाद लिया करते थे। जिनके दांत मज़बूत होते थे, वे तो घुटना मोड़कर गन्ने के टुकड़े कर लिया करते थे और बाद में मुंह से छील छीलकर गन्ना चूसा करते थे। तब कहां दांतों में रूट कैनाल और ब्रिज बनाए जाते थे।।

फिर एक समय गंडेरियों का आया ! कटी कटाई गंडेरी बाज़ार में ठेले पर उपलब्ध होने लगी। पर जिनके मुंह को विमल गुटके का स्वाद लग चुका हो और जो दाने दाने में केसर का दम ढूंढ़ते हैं, वे क्या गंडेरी चबाएंगे।

ये समय बड़ा हरजाई ! अब कहां गन्ना, और गन्ने का खेत। बड़ी बड़ी शकर मिलें किसानों का गन्ना सीधा उठाने लगी। आज शकर से गुड़ अधिक महंगा है। भोजन से मीठा गायब हो गया, शकर की बीमारी जो हो गई।।

हैं आज भी गन्ने के रस के शौकीन, जो गर्मी में अपनी प्यास, किसी चलित मधुशाला पर, एक ग्लास ठंडे गन्ने के रस से बुझाते हैं। अब गन्ना मीठा है या फीका, यह तो खेत ही जाने ..!! एक वयस्कों की मधुशाला बिग बच्चन की भी थी, इसलिए इस मधुशाला को आप बच्चों की मधुशाला कह सकते हैं।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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