श्री प्रदीप शर्मा
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “मुझसे अच्छा कौन है !“।)
अभी अभी # 600 ⇒ मुझसे अच्छा कौन है ! श्री प्रदीप शर्मा
अच्छा होना बुरा नहीं ! सबसे अच्छा होना तो कतई नहीं। बच्चे अच्छे होते हैं, बहुत अच्छे। अच्छे बेटे मस्ती नहीं करते, गटगट दूध पी जाते हैं। जो मम्मा का कहना नहीं मानते, वे गंदे बच्चे होते हैं।
कोई माँ अपने बच्चे को बड़ा होकर बुरा इंसान नहीं बनाना चाहती, इसलिए उसमें एक अच्छे इंसान बनने की भावना को प्रबल करती रहती है।
बाल मनोविज्ञान भी यही कहता है। बच्चों को मारना, झिड़कना, उन्हें सबके सामने अपमानित करना, उनके व्यक्तित्व पर विपरीत प्रभाव डालता है। वे जिद्दी, गुस्सैल और हिंसक हो जाते हैं। कुछ सुधारकों का यह भी मत है कि बच्चों को भविष्य में एक इंसान बनाने के लिए, सख्ती और अनुशासन भी ज़रूरी है। अधिक लाड़ प्यार से बच्चे बिगड़ जाते हैं।।
बालक के मन में केवल एक ही भाव होता है, मैं अच्छा हूँ, सबसे अच्छा ! वह हर जगह प्रथम आना चाहता है, खेल में, पढ़ाई में, बुद्धि और ज्ञान में। लोगों की तारीफ़ और प्रशंसा उसे और अधिक उत्साहित करती है और उसमें यह भाव पुष्ट होता जाता है, कि मुझसे अच्छा कोई नहीं।
शनैः शनैः जब वह बड़ा होता है, तो परिस्थितियां बदलती जाती हैं। संघर्ष, चुनौतियाँ और प्रतिस्पर्धाओं से गुजरते हुए वह परिपक्व होता है। प्रयत्न, पुरुषार्थ और भाग्य अगर साथ देता है, तो वह सफलता की सीढियां पार करते हुए सबसे आगे निकल जाता है। पद, सम्मान और प्रतिष्ठा मिलते ही, अचानक उसे अहसास होता है कि वह अब एक बड़ा आदमी बन गया है। क्या उससे अच्छा भी कोई हो सकता है।।
लोगों से मिलने वाली प्रशंसा और सम्मान से अभिभूत हो, वह और अच्छा दिखने की कोशिश करता है। काम, क्रोध, लालच और अहंकार जैसे विकार अंदर ही अंदर कब विकसित हो गए, उसे पता ही नहीं चलता। उसे बस तारीफ़ और प्रशंसा ही अच्छी लगने लगती है, और वह अपने आप में स्वयं को एक सबसे अच्छा आदमी मान बैठता है।।
अब उससे विरोध, असहमति अथवा आलोचना बर्दाश्त नहीं होती। वह केवल ऐसे ही लोगों के संपर्क में रहना पसंद करता है, जो उसे केवल अच्छा नहीं, सबसे अच्छा आदमी मानें। उससे सलाह लें, मार्गदर्शन लें, उसके पाँव छुएं, लोगों के सामने उसकी तारीफ़ करें।
एक साधारण आदमी को वे परेशानियां नहीं झेलनी पड़ती, जो एक अच्छे आदमी को झेलना पड़ती है। अधिकतर प्रतिस्पर्धा सफल और अच्छे लोगों में ही होती है। एक दूसरे से आगे बढ़ने और , और अधिक अच्छा बनने की स्पर्धा। और बस यहीं से, अच्छा बनने के लिए बुरे हथकंडों का भी सहारा लिया जाने लगता है। एक मैराथन, कौन जीवन में सबसे अच्छा बनकर दिखाता है।
सबसे सच्चा नहीं, सबसे अच्छा।।
सबसे अच्छा तो खैर, ईश्वर ही है। वह ही जानता है, हम कितने अच्छे हैं। हमारा बच्चा सबसे अच्छा है, हमारी माँ सबसे अच्छी है, हमारा परिवार सबसे अच्छा है, और हमारा देश सबसे अच्छा है। सबमें अच्छाई देखना भी बुरा नहीं। लेकिन जिस दिन यह भाव आ गया, मुझसे अच्छा कौन ? समझिए, कुछ तो गड़बड़ है…!!
© श्री प्रदीप शर्मा
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