श्री प्रदीप शर्मा
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “पेन पेंसिल…“।)
अभी अभी # 602 ⇒ पेन पेंसिल
श्री प्रदीप शर्मा
जीवन, पढ़ने लिखने का नाम, पढ़ते रहो सुबहो शाम ! हमारे जमाने में ऐसी कोई नर्सरी राइम नहीं थी।
हम जब पैदा हुए थे, तब सुना था, हमारी मुट्ठी बंद थी, और हमसे यह पूछा जाता था, नन्हे मुन्ने बच्चे तेरी मुट्ठी में क्या है, तब तो हम जवाब नहीं दे पाए, क्योंकि उनके पास अपना खुद का जवाब मौजूद था, मुट्ठी में है, तकदीर हमारी। लेकिन हमने तो जब हमारी मुट्ठी खोली तो उसमें हमने पेन – पेंसिल को ही पाया।
न जाने क्यों इंसान को अक्षर ज्ञान की बहुत पड़ी रहती है। जिन बच्चों के हाथों में झुनझुना और गुड्डे गुड़िया होना चाहिए, उन्हें अनार आम, और एबीसीडी भी आनी ही चाहिए। सबसे पहले एक गिनती वाली पट्टी आती थी, जिसमें गोल गोल प्लास्टिक की रंग बिरंगी गोलियां दस तार वाले खानों में जुड़ी रहती थी। एक से सौ तक की गिनती उन प्लास्टिक की गोलियों से सीखी जाती थी और पट्टी, जिसे स्लेट कहते थे, पर चार उंगलियों और एक अंगूठे के बीच मिट्टी की कलम, जिसे हम पेम कहते थे, पकड़ा दी जाती थी। जब तक आप ढंग से पेम पकड़ना नहीं सीख लेते, आपकी अक्षर यात्रा शुरू ही नहीं हो सकती।।
ढाई अक्षर तो बहुत दूर की बात है, जिन हाथों में हमारी तकदीर बंद है, वह जिन्दगी की स्लेट पर एक लकीर ढंग से नहीं खींच पा रहा है। आज जिसे इमोजी कहा जा रहा है, ऐसे कई इमोजी बन जाने के बाद, जब तक, अ अनार का, A, एबीसीडी का, और चार अंक, १, २, ३, ४ के नहीं लिख लिए जाते, भैया होशियार नहीं कहलाए जाते थे। एक, दो, तीन, चार, लो भैया बन गया होशियार।
तुमने कितनी पेम तोड़ी है, और कितनी पेम खाई है, आज हमसे कोई हिसाब भले ही ना मांगे, लेकिन हमने पेम भी खाई है, और मार भी खाई है। मिट्टी में पैदा हुए, अपने देश की मिट्टी ही खाई है, कोई रिश्वत नहीं खाई।।
लेकिन हम पेम वालों को समय रंग बिरंगे पेन और पेंसिलों से ज्यादा दूर नहीं रख पाया। हमारे हाथ में स्लेट और पेम पकड़ाकर जब बड़ा भैया कागज पर पेन पेंसिल से लिखता था, तो हम सोचते थे, कल हम भी बड़े होंगे, शान से पट्टी पेम की जगह, कॉपी में पेंसिल पेन से लिखेंगे। लेकिन हमारे भैया ने कभी हमें कभी पेन पेंसिल को हाथ नहीं लगाने दिया। गर्व से डांटकर कहता, तुम अभी बच्चे हो, तोड़ डालोगे। और हमारा दिल टूट जाता।
पेम से ढाई आखर सीखने के बाद, हमारी नर्सरी में कागज और पेंसिल का प्रवेश होता था। बहुत टूटती थी, पेंसिल की नोक, तब हम शार्पनर नहीं समझते थे। नादान थे, ब्लेड से पेंसिल छीलने पर उंगली भी कटती थी, और मार भी खाते थे।
तकदीर का लिखा तो खैर, कौन मिटा सकता है, लेकिन पेंसिल का लिखा, जरूर इरेज़र से मिटाया जा सकता है।।
हम तब तक पेन के बहुत करीब आ गए थे। कलम दवात, पेन का ही अतीत है। पुरातन और सनातन तक हम नहीं जाएंगे, बस सरकंडे की कलम थी, जो बाद में होल्डर बन गई और स्याही दवात में बंद हो गई।
पेन, पेंसिल और होल्डर में एक समानता है, इनमें नोक होती है। बस यही नोक ही लेखन की नाक है। पेंसिल की नोक की तरह पेन देखो, पेन की धार देखो।
Pen is mightier than sword. किसी ने लिख मारा। और पढ़े लिखे लोगों में आपस में तलवारबाजी चलने लगी।।
आज के इस हथियार को जब हम कल देखते, तो बड़ा आश्चर्य होता था, ढक्कन वाला पेन, जिसमें एक स्टैंड भी होता था, खीसे में लगाने के लिए। पीतल की, स्टील की अथवा धारदार निब,
जिसके नीचे एक सहारा और बाद में आंटे वाला हिस्सा, जिसे खोलकर पेन में ड्रॉपर से स्याही, यानी camel ink, भरी जाती थी। गर्मियों में कितने हाथ खराब हुए, कितने कंपास, बस्ते और कपड़े इस पेन के चूने से खराब हुए, मत पूछिए। आज कोई यकीन नहीं करेगा।
पेन पेंसिल का साथ जितना हमें मिला, उतना आज की पीढ़ी को नहीं मिल रहा। सुंदर लेखन, स्वच्छ लेखन और शुद्ध लेखन, मन और विचार दोनों को बड़ा सुकून देता है। बिना पढ़े लिखे, कोई हस्ताक्षर कभी बड़ा नहीं बनता। समय का खेल है।
Only Signatories become Dignitaries.
आज हो गए हम डिजिटल, पढ़ लिख लिए, ईको फ्रेंडली हो गए, कागज़ बचाने लग गए, घर में ही एंड्रॉयड प्रिंटिंग स्टूडियो और फोटो स्टूडियो खोलकर बैठ गए। आप चाहो तो घर में ही एकता कपूर बन, एक फिल्म प्रोड्यूस कर नेटफ्लिक्स पर डाल दो।
अपने अतीत को ना भूलें। बच्चों को पट्टी पेम, काग़ज़, किताबें और पैन पेंसिल से भी जोड़े रखें। स्कूल भी ब्लैक बोर्ड और चॉक खड़ू (crayon) से जुड़े रहें। ऑनलाइन से कभी कभी ऑफलाइन भी हो जाएं।
जीवन में थोड़ा नर्सरी, के.जी. भी हो जाए।।
© श्री प्रदीप शर्मा
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