श्री प्रदीप शर्मा
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “छिलके वाली दाल …“।)
अभी अभी # 603 ⇒ छिलके वाली दाल
श्री प्रदीप शर्मा
यह कथा द्वापर के कृष्ण सुदामा की नहीं, कलयुग के ऐसे दो दोस्तों की है, जहां मुट्ठी भर चावल नहीं, कटोरी भर मूंग की छिलके वाली काली दाल अपना कमाल बताती है।
यहां सांदीपनी आश्रम की जगह इंदौर का तब का शासकीय माध्यमिक क्रमांक १ है, जब मैं और मेरा दोस्त उसमें पढ़ते थे।
हम में से कोई कृष्ण नहीं, कोई सुदामा नहीं, लेकिन मित्रता उतनी ही गहरी।।
गुरुकुल के ज्ञानार्जन के पश्चात् हम कहां और हमारा मित्र कहां। कई बरसों बाद वापस महात्मा गांधी मार्ग पर दोनों का पुनर्मिलन हुआ, और दोस्ती रंग लाई। तब तक वह मुंबई से आय आय टी भी कर चुका था, और अच्छी भली नौकरी को लात मार, यहीं इंदौर में अपने परिवार के व्यवसाय में हाथ बंटाने लगा था। फिर भी उसकी हैसियत कृष्ण जितनी नहीं थी और ना ही मेरी परिस्थिति सुदामा के समान, जो सदा कृष्ण भक्ति में ही डूबा रहता था।
कलयुग की मित्रता कृष्ण सुदामा जैसी हो ही नहीं सकती। कहां वह दोनों का भव्य स्वरूप और दिव्य भक्ति भाव और कहां आज की औपचारिक और व्यवहार कुशल मित्रता।।
हमें गर्व है कि इस कलयुग में भी हमारी मित्रता पिछले ६० वर्षों से यथावत चली आ रही है। इसी तारतम्य में एक बार हमारे मित्र ने हमें भोजन पर आमंत्रित किया। यह पहली बार नहीं था। हम चूंकि सुदामा नहीं और वह कृष्ण नहीं, इसलिए वह भी कई बार हमारी कुटिया पर पधार चुका था। (आजकल अच्छे भले घर को भी कुटिया कहने का प्रचलन जो है)।
नियत दिन, शाम के समय में हम उनके घर पर दावत के लिए उपस्थित हो चुके थे। हम दोनों स्वास्थ्य के प्रति पूरी तरह जागरूक हैं और आहार में वह भी सात्विक है और मैं भी।
थाली में छप्पन व्यंजन तो थे नहीं, एक सूखी सब्जी और गर्म रोटी के अलावा एक कटोरी में स्वास्थ्य वर्धक काले मूंग की छिलके वाली जीरा फ्राई दाल, और पापड़, सलाद, चटनी भी थी।।
दाल तो मैने बहुत खाई थी, लेकिन इस दाल में कुछ विशेषता ऐसी थी, जिसके कारण इसकी तुलना सुदामा के चावल से की जा सकती है। इसकी सबसे बड़ी खूबी थी, कि यह दाल सिर्फ छिलके वाली थी, यानी उसमें दाल मौजूद ही नहीं थी।
ऐसी पतली दाल हमने बहुत खाई होगी, जहां डुबकी मारने पर भी दाल ढूंढने को नहीं मिले, पर हमारी दाल में तो सिर्फ छिलके ही छिलके थे, दाल थी ही नहीं। वैसे भी देखा जाए तो सब कुछ छिलके में ही तो है। यह होती है भाव की पराकाष्ठा।।
शबरी के झूठे बेर हमें याद है, खुद केला खाकर अपने आराध्य को छिलका खिलाना भी दिव्य भक्ति का ही द्योतक है, लेकिन दाल की जगह सिर्फ छिलके की मिसाल ही हमारी मित्रता की असली पहचान है।
यूं ही नहीं कहा गया है। सबसे ऊंची प्रेम सगाई।
अमर हमारी कलयुग की मित्रता, छिलके में रंग लाई।।
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© श्री प्रदीप शर्मा
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