श्री प्रदीप शर्मा
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “उस्तरा…“।)
अभी अभी # 610 ⇒ उस्तरा (R A Z O R)
श्री प्रदीप शर्मा
हम जिस तरह के उस्तरे की बात कर रहे हैं, उस तरह का उस्तरा केवल बाल काटने और हजामत बनाने वाले हज्जाम के पास ही होता है। प्रचलित भाषा में हम उसे नाई कहते हैं और पढ़े लिखे लोग उसे बार्बर (barber) कहते हैं। इनके संस्थान को कभी केश कर्तनालय अथवा हेयर कटिंग सैलून कहा जाता था।
याद कीजिए दाढ़ी बनाने वाले रेजर और रेजर ब्लेड को। अशोका, टोपाज, इरेस्मिक, विल्टेज, विल्किंसन और जिलेट ब्लेड को। कितने काम की होती थी एक रेजर ब्लेड! भले ही उंगली कट जाए, लेकिन पेंसिल ब्लेड से ही छीलते थे। तब के रबर और चक्कू ही तो आज के इरेज़र (eraser) और शार्पनर (sharpner) हैं। लेकिन जो बात उस्तरे में है, वह आज के इलेक्ट्रिक शेवर में कहां।।
उस्तरा एक जमाने में नाई का प्रमुख औजार होता था। आपकी दाढ़ी यानी हजामत बनाने के पहले एक शेविंग ब्रश से आपके खुरदुरे गालों वाली दाढ़ी पर ख़ूब सारा खुशबूदार शविंग क्रीम लगा दिया जाता था। एक अच्छे भले नौजवान को, शेविंग क्रीम पोत पोतकर, सफेद झाग वाला बाबा बना दिया जाता था। उसके बाद निकलता था ब्रह्मास्त्र यानी उस्तरा। उसे पहले एक काली रबड़ की पट्टी पर फेर फेरकर तेज किया जाता था और उसके बाद तबीयत से गर्दन घुमा घुमाकर हजामत बनाई जाती थी।
अक्सर यह टू इन वन पैकेज ही होता था, यानी दाढ़ी और कटिंग एक साथ। मेरे जैसे कंजूस लोग उसी दिन घर से ही शेव करके जाते थे। फिर भी वह अपनी आदत से बाज नहीं आता था। एक बार पूछता जरूर था, शेविंग कर दूं। अच्छी नहीं बनी है।।
एक समय था जब विशेष अवसरों पर हजामत और बाल काटने की घर पहुंच सुविधा भी उपलब्ध हो जाती थी। तब यह पारिवारिक रस्म खुले आंगन में ही संपन्न की जाती थी। बार्बर महोदय अपना टूल बॉक्स लेकर घर ही पधार जाते थे। जो पेशेवर बाराती होते हैं, वे हर बारात में इसका भरपूर लाभ उठाने से नहीं चूकते।
बाल बढ़ने पर कटिंग कराना भले ही मेरी मजबूरी हो, मैं वहां कभी हजामत नहीं बनवाता। नाई का उस्तरा और अपना सर। वह बड़े प्रेम से बातों में उलझाता, पूरी फसल कब काट लेता है, कुछ पता ही नहीं चलता। पुताई जैसे दाढ़ी पर भी दो दो हाथ चलते हैं। कभी कभी बातों बातों में थोड़ा कट भी जाता है। बड़ी कड़क दाढ़ी है आपकी, एकदम खुरदुरी, सफाई पेश की जाती है। उसका कागज में आफ्टर शेव का झाग वाला साबुन समेटना मुझे पसंद नहीं।।
आजकल के उस्तरों का वह स्तर कहां ! आज के आधुनिक उस्तरो में भी रेजर ब्लेड ही लगाई जाने लगी है। अब पहले जैसी उस्तरे की धार तेज नहीं करनी पड़ती। हम जैसे पुराने लोग ही उनके ग्राहक होते हैं। नई पीढ़ी के लिए तो सर्व सुविधायुक्त मैन्स ‘ पार्लर हैं ना।
वह नाई ही क्या, जिसके हाथ में उस्तरा ना हो। एक जमाना वह भी था, जब समाज और कुटुंब के बुलावे के लिए नाई घर घर आता था, बोलकर संदेश दे जाता था। यानी बेचारा नाई मैसेंजर का काम भी करता था। मोबाइल में व्हाट्सअप संदेश तो अब आने लगे हैं। कितना छोटा शहर था तब, लेकिन कितना परिचित, घर घर संदेश पहुंचाता नाई। अब तो शादी के आमंत्रण भी pdf में आने लग गए हैं। बिना उस्तरे की पांच सौ की घर बैठे हजामत तय है।।
© श्री प्रदीप शर्मा
संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर
मो 8319180002≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈