श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका व्यंग्य – “नोटों की गर्मी।)

?अभी अभी # 640 ⇒ व्यंग्य – नोटों की गर्मी ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

जिस पैसे की हम अक्सर बात करते हैं, वह गांधी छाप नोट ही तो होता है। यानी गांधीजी की सादगी और ईमानदारी का प्रतीक ही तो हुई हमारी भारतीय मुद्रा। उसके पास पैसा है, इतना कहना ही काफी होता है किसी संपन्न व्यक्ति के बारे में, क्योंकि पैसे से सभी सुख सुविधा के साधन खरीदे जा सकते हैं।

किसी भी शासकीय काम के लिए चपरासी की मुट्ठी गर्म करना अथवा छोटी मोटी रिश्वत से किसी की जेब गर्म करना इतना आम है कि इसे सामान्य शिष्टाचार समझा जाने लगा है। बख्शीश और इनाम जैसे शब्द अब बहुत पुराने हो गए क्योंकि इनसे भीख मांगने जैसी बू आने लगी है आजकल।।

एक आम नौकरीशुदा आदमी तो सिर्फ पहली तारीख को ही कड़क कड़क नोटों के दर्शन कर पाता था। खुश है जमाना, आज पहली तारीख है। वेतन के पीछे, तन मन अर्पण कर देता था आम आदमी। जब तक जेब गर्म मिजाज नर्म, और इधर पैसा हजम, उधर खेल खत्म।

पेट की भूख तो रोटी से ही भरती है, लेकिन होते हैं कुछ पापी पेट, जिनकी भूख पैसे से ही भरती है।

सुना है, वह बाबू पैसा खाता है और उसका अफसर भी। और इसे ही व्यावहारिक भाषा में रिश्वत और भ्रष्टाचार कहते हैं।

रिश्वत खा, रिश्वत देकर छूट जा।।

इस तरह का पैसा ऊपर का पैसा कहलाता है, जो कभी टेबल के नीचे से लिया जाता था। अब तो सब कुछ खुल्लम खुल्ला, खेल फर्रुखाबादी चलने लगा है। पैसा भी एक नंबर और दो नंबर का होने लगा है।

लेकिन हमारे देश में देर है, अंधेर नहीं। पहले नोटबंदी हुई, फिर पेटीएम (paytm) का विज्ञापन आया और अचानक देश डिजिटल हो गया। अचानक पैसेवाला अमीर आदमी कैशलैस हो गया।

सब्जी और खोमचेवालों को भी पेटीएम से पैसा मिलने लगा। देश में डिजिटल क्रांति हो गई।।

तो क्या फिर नोट छपने बंद हो गए, या लोगों ने रिश्वत लेना देना ही बंद कर दिया ? इधर कुछ समझ नहीं आया और उधर ईडी भ्रष्ट व्यापारियों और अफसरों के घर छापे मार मारकर नोटों का जखीरा बरामद करने लगी।

करेंसी नोट का भी एक मनोविज्ञान होता है। जब तक वह एक हाथ से दूसरे हाथ का स्पर्श करता है, उसे कभी मेहनत और कभी ईमानदारी की गंध आती रहती है। ऐसे नोट बेचारे थोड़े तुड़े मुड़े और गंदे भी होते रहते हैं। नोटबंदी के वक्त तो महिलाओं की बिस्तर, आलमारी और मसाले के डिब्बों तक के नोट बाहर आ गए थे  आत्मसमर्पण के लिए।।

लेकिन जो नोट छपने के बाद सीधे भ्रष्ट तंत्र के हवाले हो जाते हैं, उन्हें तहखानों और बाथरूम के टाइल्स के नीचे तक अपना मुंह छुपाना पड़ता है। वे बेचारे अभिशप्त कभी बाजार का मुंह नहीं देख सकते।

यह तो जगजाहिर है, नोटों में गर्मी होती है। करेला और नीम चढ़ा, बेचारा कब तक गोदाम और किसी के आउटहाउस में पसीने पसीने होता रहेगा। वह अपनी ही आग में झुलस जाता है और जल मरता है और इधर हंगामा हो जाता है। आग आग, जाओ जाओ जाओ, किसी फायरब्रिगेड को बुलाओ।।

अभी आग बुझी नहीं है। गरीबों के मेहनत और पसीने की कमाई थी इन नोटों में। भले ही यह नोटों का आत्मदाह का मामला हो, गरीबों की हाय तो लगना ही है। सभी को विश्वास है कानून के रखवाले कानूनी कार्यवाही तो अवश्य करेंगे..!!

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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