श्री प्रदीप शर्मा
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी पुस्तक चर्चा – “व्यंग्य का एपिसेंटर…“।)
अभी अभी # 652 ⇒ पुस्तक चर्चा – व्यंग्य का एपिसेंटर
श्री प्रदीप शर्मा
यह शीर्षक मेरा नहीं !
छप्पन भोग की तरह जहां छप्पन व्यंग्य एक जगह एकत्रित हो जाएं, वह वैसे भी व्यंग्य का एपिसेंटर बन जाता है। मेरे शहर में कई बाज़ार हैं, कई चौराहे हैं और कई सेंटर ! कपड़ों की दुनिया में जहां कटपीस सेंटर से लगाकर महालक्ष्मी वस्त्र भंडार तक मौजूद है। औषधि हेतु अगर भरा पूरा दवा बाजार है तो हर शॉपिंग मॉल में एक अदद बिग बाजार और ट्रेड सेंटर का तो मानो यत्र तत्र सर्वत्र साम्राज्य ही है।
पुस्तक और पाठक के बीच, लेखक ही वह मध्यस्थ है, जो दोनों को आपस में मिलाता है। बहुत कम ऐसा होता है कि पुस्तक तो पढ़ ली जाए और लेखक को भुला दिया जाए। कुछ कुछ पुस्तकें तो इतनी प्रभावशाली होती हैं कि जोर जबरदस्ती के बावजूद ( तीन चार वाक्य अगर अतिशयोक्ति न हो तो) और मन मारकर भी तीन चार पृष्ठों से आगे नहीं पढ़ी जाती। और हां, ऐसे लेखक हमेशा याद रहते हैं। ऐसे श्री कर्नल रंजीत को दूर से ही प्रणाम है। ।
रोटी, कपड़ा और मकान की ही तरह होता है, लेखक, प्रकाशक और पाठक। अगर लेखन प्रकाशित नहीं हुआ, तो पाठक तक कैसे पहुंचेगा। अतः जो छपता है, वही लेखक है। पहले समर्थ लेखक अखबार और पत्र पत्रिकाओं में छपता है, पाठक उसे पसंद करते हैं, जब उसकी पहचान बन जाती है तो एक पुस्तक का जन्म होता है। महाकाव्य, उपन्यास और गंभीर किस्म का लेखन वर्षों की मेहनत, लगन, और साधना के बाद ही एक पुस्तक का रूप धारण कर पाता है।
तुम्हें जिन्दगी के उजाले मुबारक, विसंगतियां मुझे रास आ गई हैं। करें, जिनको संतन की संगत करना हो, यहां तो संगत, विसंगति की कर ले।।
सुश्री समीक्षा तेलंग
एक अच्छे लेखक को उसकी कृति ही महान बनाती है। एक वक्त था, जब पाठक केवल एक पाठक था, गंभीर अथवा साधारण ! लेखक से उसका आत्मिक और भावनात्मक संबंध तो होता था, लेकिन संवाद और साक्षात्कार संयोग और विशेष प्रयास से ही संभव हो पाता था। सोशल मीडिया और विशेषकर फेसबुक से वह सृजन संसार के और अधिक निकट आ पाया है, जहां अपने प्रिय लेखक से न केवल संवाद संभव हो सका है, अपितु दोनों परस्पर परिचय और मित्रता की राह पर ही चल पड़े हैं। मैं एक अच्छे लेखक को कभी दूर के ढोल सुहाने समझता था, अब तो मन करता है, जुगलबंदी हो जाए।
मेरे जैसे एक नाचीज़ औसत पाठक को जब फेसबुक ने कोरा कागज दिया, एक सजा सजाया की बोर्ड के रूप में मनमाफिक फॉन्ट उपलब्ध कराया और एक शुभचिंतक की तरह अनुग्रह किया, यहां कुछ लिखें, Write something here, तो एक अच्छे आज्ञाकारी बच्चे की तरह मैं भी कुछ लिखने लगा। मेरी भी कलम चलने लगी। फेसबुक पर कलम चलेगी तो दूर तलक जाएगी और मेरे हाथों अभी अभी का जन्म हो गया।।
फेसबुक एक बहती ज्ञान गंगा है। मैने इस बहती गंगा में ना केवल हाथ धोया है, बल्कि कई बार डुबकी भी लगाई है। गंभीर चिंतन मनन, अध्यात्म, कला, संगीत और साहित्य के साथ साथ सहज हास्य विनोद और व्यंग्य के एपिसेंटर तक पहुंचने का सुयोग मुझे समीक्षा तेलंग के सौजन्य से प्राप्त हुआ है।
एक समर्थ व्यंग्यकार की जीभ भले ही अनशन पर हो, लेकिन उसकी लेखनी कभी कबूतर का कैटवॉक करती नज़र आती है तो कभी समाज के सम सामयिक विषयों पर वक्र दृष्टि डालने से भी नहीं चूकती। साहित्यिक गुटबाजी और महिला विमर्श जैसे लिजलिजे प्रलोभनों और प्रपंचों से कोसों दूर, केवल सृजन धर्म को ही अपना एकमात्र लक्ष्य मान, प्रचार और प्रसिद्धि से दूर, अनासक्त और असम्पृक्त रहना इतना आसान भी नहीं होता। ।
समीक्षा जी को पढ़ने के बाद कुछ भी समीक्षा लायक नहीं रह जाता। बस मन करता है, पढ़ते ही जाएं, एक एक व्यंग्य को एक बार नहीं, कई कई बार ! साहित्य में कई नामवर आलोचक हुए, राजनीति में जो आलोचना का हथियार विपक्ष के पास था, भले ही आज उसे सत्ता पक्ष ने हथिया लिया हो, लेकिन
व्यंग्य की आज भी आलोचना नहीं हो सकती, सिर्फ समीक्षा हो सकती है। और जब समीक्षा जी खुद जहां मौजूद हों, वहां समीक्षा भी नहीं, सिर्फ तारीफ, बधाई और साधुवाद..!!
© श्री प्रदीप शर्मा
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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈