श्री प्रदीप शर्मा
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “सैटेलाइट…“।)
अभी अभी # 656 ⇒ सैटेलाइट
श्री प्रदीप शर्मा
सैटेलाइट कृत्रिम उपग्रह को भी कहते हैं। हमारा मन भी तो एक तरह का सैटेलाइट ही है, जिसके जरिए हमने अपने चैनल सेट किये हुए हैं। किसी का मन २४ घंटे न्यूज में लगा है तो किसी का राजनीति में। कहीं सनसनी, सीआईडी और क्राइम पैट्रोल चल रहा है तो कहीं खाना खजाना।
स्पोर्ट्स चैनल में किसी को धोनी नजर आ रहा है तो किसी को नेटफ्लिक्स पर कोई बेहतरीन फिल्म। कुछ बड़े बूढ़े स्त्री पुरुष आस्था, संस्कार और सत्संग पर आँखें गड़ाए बैठे हैं तो कुछ युवा “पॉप पॉर्न” चबा रहे हैं।
वर्णाश्रम के अनुसार कभी जीवन के चार आश्रम होते थे। कलयुग में भी चार आश्रम ही होते हैं, जिनमें से तीन आश्रम तो आम व्यक्ति के लिए होते हैं, अनाथाश्रम, गृहस्थाश्रमऔर वृद्धाश्रम। चौथा आश्रम तो सिर्फ साधु महात्मा, महा मंडलेश्वर, जगद्गुरु और संन्यासियों का होता है।।
एक कुंआरा, शादीशुदा गृहस्थ होते होते, कब रिटायर हो जाता है, पता ही नहीं चलता। ५० वर्ष से ७५ वर्ष के बीच की एक अवस्था होती है, जिसे वानप्रस्थ कहा जाता है। अगर शास्त्र की मानें तो संन्यास अवस्था तो वानप्रस्थ के भी बाद की अवस्था है, क्योंकि तब मनुष्य की औसत आयु सौ वर्ष मानी जाती थी।
पचास वर्ष के बाद की आयु, भक्ति, ज्ञान और वैराग्य को समर्पित होती थी। तब कहां आज की तरह भौतिकवाद, वैज्ञानिक सोच, डिजिटल जीवन और हिन्दू मुसलमान होता था।
बस भगवान का नाम लेते रहो, क्या पता कब प्राण पखेरू उड़ जाएं। अंतिम सांस तक अगर नारायण का स्मरण है तो मुक्ति यानी मोक्ष अर्थात् जन्म मरण के बंधन से गारंटीड छुटकारा।।
मेरे पास भी मन रूपी सैटेलाइट है, जिस पर अक्सर मेरा म्यूजिक चैनल ही चला करता है। आज भी कुछ ऐसा ही हुआ। नहाते वक्त मैं रफी साहब का यह गीत गुनगुना रहा था ;
तुम एक बार मुहब्बत का इम्तहान तो लो
मेरे जुनूँ मेरी वहशत का इम्तहान तो लो …
(फिल्म बाबर १९६०)
इधर मैं गीत गुनगुना रहा था और उधर रेडियो पर यह गीत बज रहा था ;
मैने शायद तुम्हें पहले भी कहीं देखा है।
अजनबी सी हो,
मगर गैर नहीं लगती हो वहम से भी जो हो नाज़ुक वो यकीं लगती हो …
(बरसात की रात १९६०)
मुझे आश्चर्य हुआ, जो गीत मैं गुनगुना रहा हूं, उसी मूड का, उसी गायक का गीत उस समय रेडियो पर बज रहा था। यानी मेरे मन के सैटेलाइट और रेडियो की तरंगों में आपस में कुछ तो संबंध होगा ही।
ऐसी आकस्मिक घटनाओं को हम टेलीपैथी कहकर टाल देते हैं। लेकिन मेरी और रेडियो के बीच कैसी टेलीपेथी! ये दोनों गीत विलक्षण हैं, जिनकी धुन भी मिलती जुलती ही है और दोनों फिल्में सन् १९६० की ही हैं। इन दोनों गीतों के गीतकार साहिर लुधियानवी हैं, और संयोगवश इन दोनों फिल्मों के संगीतकार भी रोशन ही हैं। इसी मूड के और भी कई गीत होंगेे रफी साहब की आवाज में। मेरा मन का सैटेलाइट कभी ना कभी खोज ही निकालेगा, संगीत के सागर में गोता मारकर। आखिर हाथ तो मुझे मोती ही लगना है।।
© श्री प्रदीप शर्मा
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