श्री प्रदीप शर्मा
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “किताब और कैलेण्डर”।)
रोटी से इंसान का पेट भरता है। पेट तो जानवर भी भर लेते हैं, लेकिन इंसान एक समझदार प्राणी है। वह घास फूस नहीं खाता, उसकी अपनी रुचि है, अपनी पसंद है, वह जरूरत और हैसियत के अनुसार अपने भोजन का चुनाव करता है, जिसमें देश, काल, परिस्थिति और पर्यावरण का भी अपना योगदान होता है।
जिस तरह इस सृष्टि में जड़ और चेतन की ही तरह जीव और वनस्पति का भी अस्तित्व है, आहार भी मुख्य रूप से शाकाहार और मांसाहार में वर्गीकृत किया जा सकता है। तीन चरों से मिलकर बना यह चराचर जगत, जलचर, नभचर और थलचर के रूप में विराजमान है। जीव के आहार की परिभाषा कम से कम और स्पष्ट शब्दों में इस तरह की गई है, जीव: जीवस्य भोजनम्।।
पेड़ पौधे, वनस्पति, फल, फूल, अनाज, सभी जीव ही तो हैं, निर्जीव नहीं, यहां तक कि हमारी माता और गऊ माता के दूध में भी एनिमल फैट मौजूद है। फिर भी एक लकीर है, जो शाकाहार और मांसाहार को अलग करती है। यह एक वृहद विषय है जिसका हमारे मोटे अनाज से कहीं दूर दूर तक कोई संबंध नहीं है।
स्पष्ट शब्दों में कहें जो जैसे गाय भैंस चारा खाती है, हम संसारी जीव मोटा अनाज खाते हैं। भौगोलिक परिस्थितियों के अनुसार कहीं चावल की पैदावार अधिक है तो कहीं अन्य तरह के अनाज की। ।
आहार संवाद का विषय है, विवाद का नहीं ! किसान जो बोएगा, वही तो खाएगा। एक मजदूर को जितनी मजदूरी मिलेगी, उसमें ही तो वह अपना और अपने परिवार का पेट पालेगा। युद्ध जैसी त्रासदी और अकाल, बाढ़ और जलजले जैसी परिस्थिति में भूख महत्वपूर्ण होती है, पौष्टिक भोजन नहीं।
शेर घास नहीं खाता, कोस्टल एरिया में चावल और जल तुरई ही उनका प्रमुख भोजन है। बड़ा सांभर और इडली डोसा खाने वाला एक मद्रासी व्यक्ति कितनी रोटी खाएगा। कभी पंजाबी लस्सी पीजिए, मलाई मार के। ।
हमने एक समय में लाल गेहूं भी खाया है और आज मोटे अनाज पर जगह जगह परिसंवाद हो रहे हैं, जन जागरण का माहौल है। गांव में किसने ज्वार, बाजरा, और मक्के की रोटी नहीं खाई। लेकिन शहर में आकर मालवी, शरबती गेहूं ऐसा मुंह लगा कि घर घर अन्नपूर्णा आटे ने अपनी पहचान बना ली। ।
भोजन में बढ़ती केमिकल फर्टिलाइजर की मात्रा ने लोगों को सोचने पर मजबूर कर दिया और संतुलित आहार और भोजन की गुणवत्ता पर अधिक जोर दिया जाने लगा। एकाएक भोजन से टाटा का नमक और शकर गायब होने लगी। तेल घी और मिर्च मसालों की तो शामत ही आ गई। मत पूछिए फिर बाजार में चाट पकौड़ी और कचोरी समोसे कौन खाता है।
मोटे तौर पर मोटा अनाज आठ प्रकार का होता है जिसमें ज्वार, बाजरा, रागी, सावां, कंगनी, चीना, कोदो, कुटकी और कुट्टू का आटा प्रमुख है। हमने तो इनमें से सिर्फ ज्वार बाजरे का नाम ही सुना है। रागी आजकल अधिक प्रचलन में है। कुट्टू का आटा, हमारे लिए फलाहार का विकल्प है। ।
आप जैसे ही स्वास्थ्य के प्रति जागरूक होते हैं, सस्ती खाद्य सामग्री आसमान छूने लगती है।
उपेक्षित ज्वार बाजरे की आजकल चांदी है। ब्राउन राइस और ब्राउन राइस अलग भाव खा रहे हैं।
आप अगर ऑर्गेनिक हो सकें तो हो ही जाएं, स्वास्थ्य की कीमत पर, कोई महंगा सौदा नहीं है।
कभी मोटा अनाज गरीबों के नसीब में होता था, आज हम भी नसीब वाले हैं कि इतनी न्यूट्रीशनल वैल्यू वाला मोटा अनाज हमारी पहुंच में है और उधर बेचारा गरीबी रेखा से नीचे वाला आदमी, उसे तो सरकार के मुफ्त राशन से ही अपने पेट की आग बुझानी है। ज्यादा भावुक होने की आवश्यकता नहीं, अपना स्वास्थ्य सुधारें, स्वाद पर नहीं, गुणवत्ता पर जाएं। जान है तो जहान है। ।
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© श्री प्रदीप शर्मा
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