श्री प्रदीप शर्मा
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “ओज़ोन”।)
मेरे घर से कुछ ही दूर, सर्विस रोड पर एक होटल है जिसका नाम ozone है! जाहिर है, अंग्रेजी नाम है तो हिंदी में तो लिखने से रहे। कभी शहर की सबसे पुरानी एक होटल थी, जिसका नाम लेन्टर्न था, आज यह होटल अतीत हो चुकी है, ठीक उसी तरह जैसे कभी इंदौर में मिल्की वे और स्टार लिट टॉकीज थे। वहीं पास में एक खूबसूरत जगह शबे मालवा भी थी। कुछ फिल्मों के शौकीन दर्शकों को शायद बेम्बिनो टॉकीज भी याद हो।
बाजारवाद और विज्ञापन की दुनिया में हम किसी ब्रांड से इतने जुड़ जाते है, कि उसके नाम को महज एक नाम मानकर आगे बढ़ जाते हैं। एक ईगल फ्लास्क आता था, जो उस समय हर घर की जरूरत था। वीआईपी तब केवल एक सूटकेस का नाम होता था। आजकल हर वीआईपी के हाथ में एक सूटकेस होता है। ।
मैं कभी ozone होटल में गया नहीं, लेकिन जब भी इस होटल के सामने से गुजरता हूं, इसका नाम मुझे पर्यावरण की याद दिलाता है। होटल वाले अपने आसपास हरियाली बनाए रखते हैं, और सुरूचिपूर्ण साज सज्जा भी। आइए, इसी बहाने आज ozone की भी संक्षिप्त चर्चा कर ली जाए।
आप चाहें तो इसे ट्राई ऑक्सीजन भी कह सकते हैं। ऑक्सीजन के तीन अणुओं से बनी, एक रंगहीन और गंध हीन गैस है ओजोन, जो पर्यावरण का एक प्राकृतिक हिस्सा है। बोलचाल की भाषा में जितनी क्रीमी लेयर आम है, ओजोन परत, उतनी ही पर्यावरण के संबंध में खास है।
जब भी मौसम बईमान होता है, पहाड़ बर्फ विहीन होकर अपनी जगह छोड़ने लग जाते हैं, प्रकृति तांडव करने लग जाती है। समुद्र अपनी सीमाएं लांघकर, अठखेलियों की जगह उत्पात मचाने लगता है। एक ही मौसम में, गर्मी, आंधी, तूफान और बरसात का सामना एक साथ करना पड़ता है। ।
जितनी चिंता हमें इस देश की और इसके पर्यावरण की है, उतनी शायद ही किसी को हो। स्वच्छ भारत अब नारा नहीं, एक हकीकत हो गया है। वृक्षारोपण ने भले ही समारोह की शक्ल ले ली हो, फिर भी आम आदमी हरियाली और पेड़ पौधों से प्यार करता है। लेकिन यह विकास की आंधी, कहीं न कहीं, पहले वृक्षों को उजाड़ती है और फिर वापस उन्हें उगाने की भी चिंता करती है।
प्राकृतिक और धार्मिक स्थानों तक दर्शक, श्रद्धालु ही नहीं, पर्यटक भी पहुंचे, इसलिए इन स्थलों का विकास भी जरूरी हो जाता है। जहां अधिक लोग, वहां अधिक सुविधा और इन सबसे ओजोन परत को बड़ी असुविधा। पहाड़ की ऊंचाइयों पर बर्फ जमता है, ग्लेशियर पिघलते हैं, नदियां निकलती हैं। पूरी सृष्टि का यही चक्र है। ।
कुदरत से हम हैं, हम से कुदरत नहीं ! यह अमानत हमें विरासत में मिली है। अमानत में खयानत होगा अपराध, लेकिन प्रकृति से खिलवाड़ के खिलाफ कोई कानून नहीं, कोई दंड नहीं। और तो और, जब बागड़ ही खेत को खाने लगे, तो खेत की रखवाली कौन करे।
इसलिए प्रकृति खुद कानून अपने हाथ में ले लेती है, वह पहले आगाह करती है, लेकिन जब कथित पर्यावरण का विनाश रथ, रुकने का नाम नहीं लेता, तो कयामत आ जाती है। यही वह दंड है, लेकिन यह लोभी, लालची इंसान कितना उद्दंड है। ।
कल सुबह टहलते हुए हमने भी अपनी ozone होटल की खबर ली। कोरोना काल में यह बंद रही। वैसे भी कुछ विशिष्ट व्यक्ति ही यहां आते थे। इस होटल से हमारे जैसे लोगों की दूरी का एक ही कारण था, wine & dine जो इनके विज्ञापन का ही एक महत्वपूर्ण हिस्सा था।
हमें लगा, शायद यह होटल बंद होने के कगार पर है, लेकिन अचानक यहां फिर से चहल पहल शुरू हुई, पुरानी रौनक लौटी, लेकिन एक मामूली के बदलाव के साथ। जाहिर है, मालिक ही बदले होंगे, क्योंकि ozone होटल के wine & dine स्वरूप को अब थोड़ा बदल दिया गया है। किसी ने wine शब्द को काले रंग से ढंका नहीं, मिटा ही दिया है। अब केवल dine ही दिखाई देता है। मतलब अब यहां भोजन के साथ मदिरा पान नहीं। ।
शायद यह एक संकेत है, ओजोन परत के साथ खिलवाड़ अब बंद होना चाहिए। पहाड़ों और तीर्थ स्थलों को अपने मूल स्वरूप में ही रहने दें। हर तरह की खाने पीने और मौज मस्ती की सुविधा मानवता को बहुत भारी पड़ ही रही है। हमारी ozone होटल तो शायद ठोकर लगने के बाद होश में आ जाए, हम कब होश में आएंगे, पूछता है पहाड़, पूछता है ग्लेशियर और पूछती है ट्राई ऑक्सीजन जिसे हम आम भाषा में पर्यावरण कहते हैं ..!!
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© श्री प्रदीप शर्मा
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