श्री प्रदीप शर्मा
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “दान, दहेज, और दक्षिणा”।)
इंसान को दान पुण्य करते रहना चाहिए। अगर दानवीर कर्ण हो, तो सभी दान के पात्र होते हैं, लेकिन अगर आपको कहीं कोई पात्र नजर नहीं आए, तो आसपास दान पात्र पर नजर दौड़ाएं, क्योंकि दान से ही पुण्य की प्राप्ति होती है।
दान तो किसी को भी दिया जा सकता है, लेकिन दक्षिणा सिर्फ गुरु को ही दी जाती है। गुरु से ज्ञान की दीक्षा दान में ली जाती है और प्रतिदान स्वरूप दक्षिणा दी जाती है। पंडित पुजारी की बात अलग है, वहां दान और दक्षिणा दोनों यजमान ही देता है और बदले में यश, कीर्ति, मनोवांछित फल और ढेरों आशीर्वाद प्राप्त करता है।।
दान दक्षिणा तो ठीक है, लेकिन दान दहेज की बात हमारे मुंह से अच्छी नहीं लगती। लेकिन कौन समझाए उस बाबुल को, जो आज भी दुआ के साथ अपनी कन्या का दान करता है। हमारे भाई मुकेश तो कह भी गए हैं ;
कोई पुण्य करे कोई दान करे
कोई दान का रोज बखान करे।
जिन कन्या धन का दान दियो
उन और को दान दियो न दियो। ।
सती प्रथा, बाल विवाह और दहेज प्रथा के खिलाफ तो अब कानून भी है, नारी स्वयं आजकल अपने अधिकारों के प्रति सजग है, दुल्हन ही दहेज है, बेटियां बचाई जा रही हैं और लाड़ली योजना के अंतर्गत उन पर दिल की दौलत लुटाई जा रही है।
ऐसे में दान दहेज की बात शोभा नहीं देती।
आज से ५० वर्ष पूर्व एक बाबुल ने हमें भी भरे मन से अपनी कन्या का दान किया था। दान के साथ दहेज में क्या आया, आज कुछ याद नहीं लेकिन हां एक हाथ से चलाने वाली उषा सिलाई मशीन जरूर हमें नजर आई थी। वैसे भी खाली हाथ कौन अपनी कन्या को विदा करता है।
हमने भी अपनी बहन बेटियां ब्याही हैं। ।
हम अपने माता पिता के एक आज्ञाकारी पुत्र हैं, हमारे माता पिता भी आधुनिक विचारों के ही थे, लेकिन व्यवहार कुशल थे और सबकी मान मर्यादा का पूरा खयाल रखते थे।
अपनी सभी बहुओं को उन्होंने बेटियों की तरह ही रखा। शादियों में अपनी बेटियों को भले ही अपनी हैसियत अनुसार कुछ दिया हो, लेकिन घर आई बेटियों को ही लक्ष्मी माना।
हम तब भी अजीब थे, आज भी अजीब हैं। खुद को समझदार समझते हैं, लेकिन कभी सामने वाले को समझने की कोशिश नहीं करते। उस उषा सिलाई मशीन से जुड़ी किसी की भावना की हमने कभी कद्र नहीं की, हमें वह मशीन हमेशा पराई ही लगी। थाली में परोसी मिठाई तो हमें पसंद आई लेकिन करेला कड़वा लगा। ।
कुछ वर्ष पूर्व एकाएक हमें पुराना घर खाली करना पड़ा। हमें और हमारे सामान को भी लदकर, दूसरे मकान में जाना पड़ा। हमारी नज़रों में खटकने वाली उषा सिलाई मशीन से हमेशा के लिए छुटकारा पाने का हमें मौका मिल गया। हमने आव देखा न ताव, जो मजदूर सामने नज़र आया, उसे ही कह दिया, भैया यह मशीन तुम ले जाओ। उसे कुछ क्षण विश्वास नहीं हुआ, लेकिन उसने भी मौका हाथ से नहीं जाने दिया, बाबू जी पैसे ? हमने जोश में जवाब दिया, कुछ नहीं, ऐसे ही ले जाओ।
जोश में होश नहीं खोना चाहिए, लेकिन अब पछताए होत क्या, जब चिड़िया चुग गई खेत। हमने न तो अपनी धर्मपत्नी से राय ली, न उन्हें कुछ बताया, बस चले दानवीर बनने! बाद में पता चला, वह मशीन हमारी पत्नी के ही, स्कॉलरशिप की बचत के पैसे से खरीदी हुई मशीन थी, जो उनके पिताजी ने आशीर्वाद स्वरूप अपनी बेटी के साथ भिजवाई थी। ।
अब हमारे पास सिवाय पछताने और प्रायश्चित करने के, कोई विकल्प नहीं। पत्नी की अब सिलाई बुनाई की उम्र नहीं रही।
उन्हें उनकी मशीन जाने का कोई रंज, अफसोस प्रकट रूप से नहीं। दोष हमारा ही है, दान दहेज के भ्रम में हम किसी की अमानत में खयानत कर बैठे। आज हमारी कारगुजारी पर अफसोस करने वाले ना तो वे बाबुल हैं, जिन्होंने अपनी बेटी का कन्यादान किया था, और ना ही हमारे माता पिता।
बस हम हैं, हमारा झूठा अहंकार है और दुनिया भर की बेवकूफी है।
आज हम अपनी मर्जी के मालिक हैं, कोई हमारा कान पकड़ने वाला नहीं, डांटने वाला नहीं, दो बातें सुनाने वाला नहीं। लगता है, अब यही सब काम भी हमें ही करना पड़ेगा। आज अगर उषा सिलाई मशीन होती तो शायद हमारा घाव भर जाता। उसने कई बार हमारे कपड़ों को रफू किया होगा, हमारे लिए रूमाल तैयार किए होंगे। शायद कोई पुराना रूमाल मिल जाए, हमारे पश्चाताप के आंसू केवल उसे ही नजर आएंगे, उसके बनाए रूमाल ही शायद वे आंसू पोंछ पाएंगे। ।
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© श्री प्रदीप शर्मा
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