श्री प्रदीप शर्मा
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “किताब और कैलेण्डर”।)
चार दिल चार राहें जहां मिले उसे चौराहा कहते हैं।
मैं तो चला, जिधर चले रस्ता! मैं चलूं, वहां तक तो ठीक, लेकिन क्या कहीं रास्ता भी चलता है। कबीर के अनुसार, अगर चलती को गाड़ी कहा जा सकता है, तो रास्ता भी चल सकता है और जब रास्ता चलेगा तो वह भी घिस घिसकर रास्ते से, रस्ता हो जाएगा।
चौराहे को चौरस्ता भी कहते हैं। कहीं कहीं तो इसे चौमुहानी भी कहते हैं। रास्तों की तरह, गलियां भी होती हैं, ठाकुर शिवप्रसाद सिंह की गली, आगे मुड़ती है, और वहीं कहीं बंद गली का आखरी मकान धर्मवीर भारती का है।।
इंसान का क्या है, जिंदगी में कभी दोराहे पर खड़ा है तो कभी चौराहे पर। होने को तो खैर तिराहा भी होता है, लेकिन न जाने मेरे शहर के गांधी स्टेच्यू को लोग रीगल चौराहा क्यूं कहते हैं, जब कि यहां तो तीन ही रास्ते हैं। हां, यह भी सही है कि एक रास्ता स्वयं रीगल थिएटर भी था, लेकिन समय ने वह रास्ता भी बंद कर दिया।
थिएटर तो सारे बंद हुए, मैं अब फिल्म देखने कहां जाऊं।
जिस चौराहे से चार राहें निकलती हैं, उन्हें आप चौराहे की भुजा भी कह सकते हैं। हम तो जब भी श्रीनाथ जी के दर्शन के लिए नाथद्वारा जाते हैं, काकरौली, चारभुजा जी और एकलिंग जी होते हुए झीलों की नगरी उदयपुर अवश्य जाते हैं। जहां सहेलियों की बाड़ी हो, वहां तो भूल भुलैया होगी ही।
यह अंक चार हमें एक चौराहे पर लाकर खड़ा कर देता है जहां हमें जयपुर की बड़ी चौपड़ और छोटी चौपड़ याद आ जाती है। बही खाते वाले चोपड़ा जी कब फिल्मों में आ गए, और यश कमा गए कुछ पता ही नहीं चला।।
अगर आपसे पूछा जाए, आपके शहर में कितने चौराहे हैं, तो शायद आप गिन नहीं पाएं।इसीलिए इन चौराहों का नाम दे दिया जाता है। कहीं चौक तो कहीं चौराहा। हमने अगर एक चौराहे का नाम जेलरोड रख दिया तो दूसरे का चिमनबाग चौराहा। चिमनबाग तो आज चमन हो गया, लेकिन हमारे भाइयों ने उस चौराहे का नाम ही बदलकर चिकमंगलूर चौराहा कर दिया। वैसे भी किसी विकलांग को दिव्यांग बनने में कहां ज्यादा वक्त लगता है।
हमारे शहर के प्रमुख चौराहों में अगर पलासिया चौराहा है तो गिटार चौराहा भी। जहां रोबोट लगा है, वह रोबोट चौराहा और जहां आज लेंटर्न होटल नहीं है, वहां भी लैंटर्न चौराहा है। सांवेर रोड पर अगर मरी माता चौराहा है तो रेडिसन होटल पर रेडिसन चौराहा। कुछ चौराहों पर भुजाएं जरा जरूरत से ज्यादा ही फड़फड़ाती हैं, रीजनल पार्क के आसपास तो इतनी राहें हैं कि राही, राह भी भटक जाए।।
इन सब चौराहों के बीच, पंचकुइया रोड पर एक अंतिम चौराहा भी है, क्योंकि वहां से आखरी रास्ता मुक्ति धाम की ओर ही जाता है। लेकिन यह जीव माया में नहीं उलझता ! वह जानता है , कोई ना संग मरे। बस थोड़ा श्मशान वैराग्य, शोक सभा और उठावने के बाद शाम को छप्पन दुकान।
क्या भरोसा कब जिंदगी की शाम आ जाए, कौन सा चौराहा हमारा अंतिम चौराहा हो जाए ! लेकिन हमने तो चौराहों को पार करना सीख लिया है। ट्रैफिक का सिपाही भले ही सीटी बजाता रहे, सिग्नल लाल लाल आंखें दिखलाता रहे, कोई मार्ग अवरोधक हमारी जिंदगी की गाड़ी को इतनी आसानी से नहीं रोक सकता।।
ऊपर भले ही चित्रगुप्त गणेश चोपड़ा भंडार खोले हमारे खाते बही की जांच करते रहें, हम स्वयंसेवक अपनी लाठी स्वयं साथ लेकर आएंगे। चित्रगुप्त के खातों की भी सरकार जांच करवा रही है। सब डिजिटल, ऑनलाइन और पारदर्शी हो रहा है। ईश्वर की मर्जी जैसा डायलॉग अब नहीं चलेगा।
जिसकी लाठी उसकी भैंस। यमराज को दूसरा वाहन तलाशना पड़ेगा। चित्रगुप्त को आईटी सेक्टर के लिए शिक्षित लोगों को ऊपर भी जॉब देने होंगे, और वह भी फाइव डे वीक और आकर्षक पैकेज के साथ।उसके बाद ही हमारी अंतिम चौराहे से रवानगी होगी। स्वर्ग में बर्थ नहीं, एक नया जॉब, एक नया चैलेंज।।
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© श्री प्रदीप शर्मा
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