सुश्री सुनिता गद्रे
आकाशगंगा… सुश्री सुनिता गद्रे
घटना वैसे पुरानी ही… मतलब सन उन्नीस सौ पैंसठ की! मैं तब ग्यारहवीं में पढ़ती थी।… उस जमाने में उसे मैट्रिक कहते थे। उसके बाद डिग्री के लिए चार साल की कॉलेज की पढ़ाई… !तो ग्यारहवीं में हमारे साइंस पढ़ाने वाले सर जी ने एक बार हमारे क्लास के सब छात्रों को हमारे गाॅंव की सबसे ऊंची बिल्डिंग के (तीन मंजिला बिल्डिंग के) छत पर रात के वक्त बुलाया था। वह अमावस की रात थी। अमावस की काली रात …. नहीं, डरने की कोई बात नहीं ।…. खगोल शास्त्र के ‘आकाशगंगा’ टॉपिक पर हमें वह प्रत्यक्ष आकाशगंगा और ग्रह तारे नक्षत्र दिखाने वाले थे।
हमारे साइंस के टीचर जैसा डेडीकेटेड शिक्षक मैं ने आज तक नहीं देखा। अपने सब्जेक्ट का पूरा-पूरा ज्ञान उनके पास था और उसको छात्रों तक ले जाने की तीव्र इच्छा भी उनके अंदर थी। फिजिक्स, केमिस्ट्री के बहुत सारे एक्सपेरिमेंट जो हमारे पढ़ाई का हिस्सा भी नहीं थे, उन्होंने हमसे करवा लिए थे।
उस रात सर जी ने हमें उत्तर से दक्षिण तक, या कहो दक्षिण से उत्तर तक फैला हुआ अनगिनत सितारों से भरा हुआ आकाशगंगा का( मिल्की वे) पट्टा दिखाया था। उसके बारे में बहुत सारी जानकारी भी दी। इस वजह से हमें खगोल शास्त्र की अलग से पढ़ाई भी नहीं करनी पड़ी।
शादी के बाद मेरा वास्तव्य दिल्ली में ही रहा। बहुत बार हमारे चार मंजिला अपार्टमेंट के छत पर जाकर मैं आकाशगंगा ढूंढने का प्रयास करती थी, अमावस की रात को।….लेकिन बिजली की लाइट के चकाचौंध में वह आकाशगंगा मुझे कभी भी नजर नहीं आयी। अब तो छोटे-छोटे गांवों, कस्बों में भी बिजली पहुॅंच गई है। इसलिए आकाशगंगा वहाॅं भी, कितनी भी ऊंचाई पर जाओ दिखाई देगी ही नहीं।
गर्मी के दिनों में हम लोग छत पर सोया करते थे। अब ए.सी. की वजह से वह बात भी नहीं रही। और छत की ताजा हवा में सोने का सौभाग्य भी हमसे बहुत दूर चला गया। छत पर बिस्तर पर बैठे-बैठे मैं बच्चों को बचपन में पढ़ा हुआ खगोल शास्त्र का ज्ञान जो थोड़ा-थोड़ा मुझे याद था, बताया- दिखाया करती थी। मृग नक्षत्र… हिरन… उसके पेट में घुसे हुए बाण के तीन चमकीले तारे…. व्याध, और उसी तरह सप्तर्षि का पतंग.. उसकी डोर पकड़े हुए , उत्तर की दिशा में ही दिखने वाला ध्रुव तारा…जो ज्यादा चमकता नहीं,… सप्तर्षि में, वशिष्ठ ऋषि साथ में ही एक छोटे से चमकीले के तारे के रूप में उनकी पत्नी अरुंधति… सब कुछ उनको दिखाती थी। सच में वह उतना साफ नहीं दिखता था जो मैंने बचपन में देखा था। शर्मिष्ठा ,देवयानी, ययाति का वह एम् आकार वाला तारा समूह… जो एक अलग आकाशगंगा का हिस्सा है… (शायद) जो सर जी ने हमें दिखाया था, वह तो बिल्कुल ही नहीं दिखाई देता था। चमकीला शुक्र, लाल रंग का मंगल ग्रह भी कभी-कभी दिखाई देते थे, अगर आसमान साफ हो तो!… आगे चलकर बच्चे जब बड़े हो गए मैं उनको प्लेनेटोरियम ले गई थी। वहां मॉडर्न तकनीक से दिखाई हुई आकाशगंगा बच्चों के साथ मैंने भी देखी। लेकिन बचपन में देखी हुई आकाशगंगा मुझे वहाॅं भी नहीं मिली ,वह कहीं खो ही गई थी।
एक साल पहले की बात है। मुझे कर्नाटक के एक बहुत छोटे देहात में किसी काम के लिए जाना पड़ा। हम तीन लोग थे ।एक छोटे से बस स्टैंड पर बस रुकी, उतरकर हम हमारे गंतव्य की ओर जाने के लिए निकले। लगभग दो ढाई मैल का फासला चलकर तय करना था। वह भी अमावस की रात थी। ( हो सकता है एकाध दिन आगे- पीछे )चलते चलते मेरी नजर आसमान की तरफ गई…. और मैं सब कुछ भूल कर आसमान में उत्तर- दक्षिण फैली हुई आकाशगंगा को मुग्ध होकर देखती ही रह गई। वह दक्षिण उत्तर फैला हुआ आकाशगंगा का पट्टा (मिल्की वे) मुझे बचपन में ले गया। संपूर्ण गोलाकार क्षितिज… काला स्याह आसमान ..वह भी गहरी कटोरी समान.. और उसके अंदर चमकता हुआ आकाशगंगा का पट्टा! वह तो इतना नजदीक लग रहा था की सीडीपर चढ़कर कोई भी उसे हाथ लगा सके। और हे भगवान, यह क्या?… मृग नक्षत्र के चौकोर में अनगिनत तारे चमक रहे थे। फिर मैं अपने जाने पहचाने सितारे खोजने का प्रयास करने लगी। सच में अभी सर जी यहां होते तो कितना अच्छा होता, मन में विचार आया। पंद्रह-बीस मिनट के बाद, “काकी रुको मत,.. जल्दी-जल्दी आ जाओ।” इस भतीजे की आवाज से में खगोल छोड़कर भूगोल पर आ गई। बिना चंद्रमा के चमकने वाली ज्यादा से ज्यादा चाॅंदनियों को अपने मन में भरकर मैं आगे चल पड़ी।
बचपन में देखी हुई और बाद में खोयी हुई मेरी आकाशगंगा मुझे वहाॅं मिल गई थी।
© सुश्री सुनीता गद्रे
माधवनगर सांगली, मो 960 47 25 805.
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈