श्री नवेन्दु उन्मेष
भारत वर्ष साधु संतों की भूमि है। समस्त विश्व में भारतीय संतों की वाणी गूंजती है। संत ईसाई हो अथवा हिन्दू या मुसलमान उसका संदेश मानव जाति के लिए होता है। संत चाहे देशी हो या विदेशी उसका ज्ञान पूरे विश्व के लिए होता है। बाबा कामिल बुल्के जन्म से बेल्जियम और धर्म से ईसाई थे किंतु उनकी आत्मा भारतीय थी।
भारतीय दर्शन में उनकी गहरी रूचि थी और मातृभाषा फलेमिश रहते हुए भी वे आजीवन हिन्दी के प्रति समर्पित रहे। वे अपने आपको विशुद्ध भारतीय मानते थे। उनका हृदय हिन्दी के प्रति समर्पित था। वे हिन्दी पर किसी प्रकार का आक्षेप बर्दाश्त नहीं सकते थे। हिन्दी की रक्त उनके रग-रग में दौड़ती थी। वे जो भी सोचते-विचारते और करते सब हिन्दी में और हिन्दी के अतिरिक्त किसी भी भाषा में नहीं। उनका कहना था कि हिन्दी जन-जन की भाषा है। यह भारतीय जनमानस की भाषा है और पूरे भारत में सभी कार्य व्यवहार में इसका व्यवहार होना चाहिए।
वे एक बार जोर देकर बोले थे- ‘-हिन्दी को रोटी के साथ जोड़ दो।‘ अर्थात् नौकरी उसे ही मिलनी चाहिए जिसे हिन्दी आती हो। वे हिन्दी प्रेमियों को बहुत मानते थे उनसे हिन्दी के संबंध में घंटो तरह-तरह की बातें करते। हिन्दी के प्रति उनके विचार जानने की भलीभांति कोशिश करते लेकिन हां, हिन्दी प्रेमी यदि उनके समक्ष अंग्रेजी में बातें करते या अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग करते तब वे बिगड़ खड़े होते तथा उसे समझाते हुए कहते ’-तुम हिन्द देश के वासी हो इसलिए तुम्हें हिन्दी में बोलना चाहिए।‘
ज्ञातव्य है कि बाबा बुल्के सर्वत्र अपने भाषणों में कहा करते थे – ’हिन्दी बहुरानी है और अंग्रेजी नौकरानी।‘ किंतु एक बार हिन्दी-अंग्रेजी संबंधी वार्तालाप के दौरान उन्होंने मुझसे कहा था – ‘कौन सा काम ऐसा है जिसे हिन्दी में नहीं किया जा सकता यदि सभी मिल-जुल कर ईमानदारी से कार्य करें तो प्रातः सूरज के उगने के साथ अंग्रेजी को हरी झंडी दिखाई जा सकती है।’
फादर कामिल बुल्के के मुख्य प्रकाशन
- (हिंदी) रामकथा : उत्पत्ति और विकास, 1949
- हिंदी-अंग्रेजी लघुकोश, 1955
- अंग्रेजी-हिंदी शब्दकोश, 1968
- (हिंदी) मुक्तिदाता, 1972
- (हिंदी) नया विधान, 1977
- (हिंदी) नीलपक्षी, 1978
(साभार – विकिपीडिया)
मैं कुछ वर्षो तक उनके सानिध्य में रहा और उनके आचार-विचार, क्रिया कलाप को निकट से देखा। सादे वस्त्रों में सरल, सौम्य और सौजन्यपूर्ण बाबा बुल्के सरस्वती के एक विनम्र पुत्र नजर आते थे। रांची शहर के पुरूलिया रोड पर कुतुबमिनार की तरह गगनचुंबी कैथोलिक गिरिजाघर है जिसके ठीक सामने ईसा मसीह की एक विशाल प्रतिमा है जो पुरूलिया रोड पर चलने वाले राहगीरों को आशीर्वाद देती हुई दिखाई देती है। ठीक इसी गिरजाघर के बगल में है – मनेरसा हाउस कैथोलिक संन्यासियों का आश्रम। इसी के एक हिस्से में रहते थे तुलसी साहित्य के मूर्धन्य विद्वान और हिन्दी संत कामिल बुल्के। वर्षो पूर्व उन्होंने संन्यास ले लिया था और अपने आपको ईश्वर के चरणों में समर्पित कर दिया। उनका जन्म बेल्जियम में हुआ था जहां उन्होंने इंजीनियरिंग पढ़ी थी। भला इंजीनियर का साहित्य से क्या लगाव। पर अपने मन कुछ और है विधन के कुछ और। कामिल बुल्के जो इंजीनिरिंग के अध्येता थे और कहां साहित्य के अध्येता हो गये। संभवतः पहले संस्कृत के अध्ययन की और झुके बेंल्जियम से भारत चले आये। संस्कृत के ही एक श्लोक में कहा गया है कि राजा की पूजा अपने देश में ही होती है परंतु विद्वान की पूजा सर्वत्र होती है। विद्वान के लिए बेल्जियम क्या और भारत क्या। भारत आकर हमेशा हिन्दी आंदोलन में अग्रसर रहे। एक बार मैंने उन्हें उनके निवास स्थान पर एक विदेशी पादरी को जो उनसे अंग्रेजी में बोल रहा था डांटते हुए सुना था ’-तुम इतने दिनों से भारत में रहे हो, तुमने आज तक हिन्दी नही सीखी और अंग्रेजी में बोलते हो, बहुत शर्म की बात है।‘
बाबा को रांची से बेहद प्यार था। वे रांची को अपनी साधना स्थली मानते थे। एक बार मेरे पिता कविवर रामकृष्ण उन्मन से कहा था- ‘मैं भारतीय हूं, हिन्दी मेरी भाषा है और भारत मेरा घर। यही रांची के कब्र्रिस्तान में मेरे लिए थोड़ी सी भूमि सुरक्षित है और मरणोपरांत भी यही रहूंगा।’
जीवन के अंतिम दिनों में उन्हें गैंगरिन नामक बीमारी ने घेर लिया था। रांची में इलाज के बाद जब उनकी बीमारी ठीक नहीं हुई तो उन्हें पटना के कुर्गी अस्पताल में भर्ती कराया गया जिन्हें देखने के लिए मैं अपने पिता के साथ उस अस्पताल में गया था। अस्पताल के बिस्तर में भी उन्हें इस बात की चिंता थी कि उन्हें अगर कुछ समय की मोहलत मिल जाती तो वे शायद हिन्दी के लिए कुछ और कर जाते। 17 अगस्त 1982 को उनका निधन नई दिल्ली में हो गया। यहां तक कि उनका अंतिम संस्कार भी नई दिल्ली में किया गया। शव को रांची लाने को लेकर मेरे पिता फादर पी पोनेट से मिले और उनकी अंतिम इच्छा बतायी लेकिन मिशन ने शव का अंतिम संस्कार नई दिल्ली के निकोल्सन कब्रिस्तान में करने का निर्णय लिया।
© श्री नवेन्दु उन्मेष
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