डॉ.राशि सिन्हा
(गांधी जन्मोत्सव के अवसर पर प्रस्तुत है डॉ राशि सिन्हा जी का एक विचारणीय आलेख गांधी विचारधारा और वैश्विक चेतना। )
☆ गांधी जन्मोत्सव विशेष –गांधी विचारधारा और वैश्विक चेतना ☆ डॉ.राशि सिन्हा ☆
चैतन्य आत्मा एवं अक्षुण्ण अमर सत्ता को स्वीकार करने वाले देश में जन्म लेने वाले, नैतिक दर्शन के समर्थक, महात्मा गांधी के ‘व्यवस्थित विचारों’ के आधार में वैश्विक चेतना की नींव बड़ी गहरी दिखाई देती है। ऐसी नींव जो सामाजिक स्तरीकरण संबंधित अवधारणा को आत्मिक समरूपता के माध्यम से विश्वव्यापी चिंतन-दर्शन में व्यावहारिकता के नये आयाम जोड़ सके। इन नये आयामों को, वैश्विक मूल्यों की अवधारणा में शामिल करने के लिए महात्मा गांधी ने यथार्थवादी प्रश्नानुकुल जिज्ञासा का मंथन करते हुए मानवतावादी चिंतन के विभिन्न आयामों का गहरे से विश्लेषण किया है।
वैश्विक चेतना में नई जान डालने वाले इस संत विचारक ने जिस व्यवस्थित विचार की पुरजोर वकालत की है, उसे सामान्य तौर पर’ गांधीवाद’ या ‘गांधी दर्शन’ के नाम से जाना जाता है, किंतु सत्य तो यह है कि गांधी जी ने किसी ‘वाद’ या ‘दर्शन’ को कभी सैद्धांतिक रुप से परोसने का प्रयास ही नहीं किया बल्कि सत्याभास को व्यावहारिक जीवन में लागू करते रहे और उन्ही सत्यानुभूतियों को मानव समाज और जगत के भौतिक भाष्य के मध्य की बुनियादी कड़ी के रुप में प्रस्तुत कर मानवतावाद तथा मानवधर्म को रुपायित करने की चेष्टा करते रहे। शुद्ध, पुनीत और मानवीय तथ्यों को आधार मानकर संपूर्ण जगत के विकास की बात करने के तहत गांधीजी ने ईश्वर के मूल में निहित ‘ शिवमय’, ‘सत्यमय’ व ‘चिन्मय’की परिकल्पना में समाहित ईश्वर की सृष्टि रचना के प्रयोजन को सशक्त करने का प्रयास किया है। इस क्रम में उन्होंने ‘ईशावास्यमिदं सर्व: यकिचं जगत्या’ की अवधारणा को वसुधैव कुटुंबकम की अवधारणा से जोड़ते हुएं ईश्वर की प्रयोजनवादी विचारधारा को व्यावहारिक रुप प्रदान करने की कोशिश की है ताकि प्रत्येक जन-मन आत्म परीक्षण, सादगी, सरलता, आत्मिक व सामाजिक समरुपता तथा त्यागमय जीवन शैली को अपनाकर पर पीड़ा को महसूस कर सके। चारित्रिक शुद्धता के द्वारा मानवीय संवेदनाओं को महसूस कर सके।
वैश्विक एकीकरण की भूमिका में सिर्फ एक धर्म विशेष यथा; ‘मानव धर्म’ पर बल देते हुए, गांधीजी ने ‘सर्वोदय’ जैसे अर्थवान शब्दों को अत्यंत सक्रिय व श्रेष्ठतम बताया है। उदात्त चरित्र व मानवीय विचारों में निहित मानवता के दैवीय अंश के साथ कर्म की प्रधानता को स्वीकार करता उनका यह ‘व्यावाहरिक रुप सेे व्यवस्थित विचार’ तर्कों की महीन बारीक उलझनों में लिपटा नहीं दिखता, परंतु संपूर्ण परिवार, समाज, राष्ट्र व विश्व के एकीकरण की बात करता दिखायी देता है।
अपनी इस परिकल्पना की पूर्णता के लिए गांधी जी प्रत्येक जन से सत्य, अहिंसा के आदर्शों पर चलते हुए शिक्षा को दैनिक जीवन में उतारने की बात करते हैं। उनका मानना है कि एक ‘शोषण विहीन समाज’ के लिए शिक्षा से बड़ा कोई मंत्र नहीं। ‘सा विद्या या विमुक्तये’ का अनुसरण करते हुए गांधीजी कहते हैं कि यह एक ऐसा आधार है जो मनुष्य को दुराग्रह की सभी व्याधियों से दूर कर व्यापक व उदार बना पाता है। और व्यक्ति स्व से ऊपर उठकर समस्त जीवन को अपनी आत्मा से स्वीकार कर पाता है।
इसके लिए उन्होंने महज साक्षर होने वाली शिक्षा नहीं वरन तात्कालिक और दुरगामी उद्देश्यों पर आधारित ऐसी शिक्षा की बात की है जिसके केंद्र में मानव को आर्थिक स्वावलंबन की शिक्षा के साथ साथ मानसिक, आत्मिक, सांस्कृतिक व आध्यात्मिक विचारों को सशक्त करने की भी क्षमता वृद्धि की सीख हो ताकि आत्मविकास के माध्यम से सर्वोच्च अनुभूतियों को प्राप्त कर मानव सर्वोदय विकास की भावना में जी सके और उसी अनुसार समाज में सक्रिय हो व्यवहार कर सके, वसुधैव कुटुंबकम की अवधारणा को साकार करने में अपने दायित्वों को महसूस कर, अपनी भूमिकाओं का निर्वाह कर सके और विश्व के अंतिम अधिकार की लड़ाई लड़ सके।
इन्ही विचारों को परिपूर्ण रुप प्रदान करने के लिए आगे चलकर गांधी जी ने स्वराज दर्शन या विचारों को स्पष्ट किया है। जिसमें पुन: वह मानवता और मानव जाति के लिए समान रुप से संवेदनशील होने की बात को स्वीकार करते हुए उपदेशक की जगह ‘सत्यशोधक’ होने पर जोर देते हैं ताकि वैश्विक चेतना को खंडित होने से बचाया जा सके।
हालांकि मानवतावादी चिंतन की भूमि पर गांधीजी ने विश्व को जोड़ कर रखने के लिए मानवतावाद व मानव धर्म जैसे सशक्त विचारों को अत्यंत सुलझे व व्यवस्थित रुप से रखने की कोशिश की है। साथ ही, उनके विचारें की व्यावहारिकता के परिणामों ने भी वैश्विक सांस्कृतिक चेतना को अत्यंत प्रभावित किया है, किंतु बावजूद इसके , उनकी विचारधारा के परिप्रेक्ष्य में उठे विरोध के स्वर भी काफी ऊँचे उभर आये हैं। वर्तमान युग की चकाचौंध जीवन पद्धति में भौतिकता व स्वार्थों की क्षुद्रता, व्यक्ति गत लाभ की आतुरता ने विरोध के स्वरों को ऊंचे उभरने में मदद की है तो कहीं तथाकथित बुद्धि-प्राब्ल्यता तथा वैचारिक मतभेद ने इन स्वरों की धुन ऊंची कर रखी है, फिर भी आज के हिंसात्मक व भौतिकवाद के अंधे युग में गांधी जी की विचारधारा को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।यह एक शाश्वत सत्य है कि विरोध के विस्फोटक स्वरों के बीच भी गांधी जी की विचारधारा की प्रासंगिकता आज भी बनी है और सदा बनी रहेगी।
डॉ.राशि सिन्हा
नवादा, बिहार
(साभार श्री विजय कुमार, सह संपादक – शुभ तारिका, अम्बाला।)
≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
दिनांक 2 अक्टूबर को गाँधी जन्मोत्सव के अवसर पर प्राप्त सभी सर्वोत्कृष्ट रचनाओं को स्थान नहीं दे पाए थे जिसका हमें खेद है। वे रचनाएँ हम प्रतिदिन आगामी अंकों में प्रकाशित कर रहे हैं।