डाॅ. मीना श्रीवास्तव
☆ गाये लता, गाये लता, गाये लता गा! ☆ डॉ. मीना श्रीवास्तव ☆
प्रिय पाठकगण
नमस्कार 💐🎼
२८ सितम्बर १९२९ का अत्यंत मंगलमय दिवस! इस दिन घटी ‘न भूतो न भविष्यति’ ऐसी घटना! गंधर्वगान के परे रहे ‘लता मंगेशकर’ नामक सात अक्षर रुपी चिरंतन स्वरविश्व के मूर्तरूप ने जन्म लिया| अक्षय परमानंद की बरसात बरसाने वाली स्वर शारदा लता आज संगीत के अक्षय अवकाश में ध्रुव तारे के समान अटल पद पर विराजमान हुई है| उसके स्वर अवकाश में इस कदर बिखरे हुए हैं कि, वह इस नश्वर जगत में नहीं है, इसका आभास तक नहीं होता| ‘शापदग्ध गंधर्व’ दीनानाथ मंगेशकरजी की विरासत लेकर लता ने अपने जीवन का प्रत्येक क्षण कँटीली राह पर चलते हुए संगीत को समर्पित करते हुए गुजारा| एकाध मूर्ति का निर्माण जब होता है, तब उसे छिन्नी के कई घाव सहने पड़ते हैं| ठीक उसी तरह उसके जीवन की अंतिम बेला तक लता ने अनगिनत घाव सहन किये| उसके साथ काम करने वाले गायक, संगीतकार, गीतकार, फिल्म जगत के अनेक लोग और बाबासाहेब पुरंदरे तथा गो नी दांडेकर जैसे दिग्गज व्यक्तियों के प्रेरणादायी मार्गदर्शकों के कारण उसके व्यक्तित्व को और मुलायम स्वरों को दैवी स्वर्ण कांति प्राप्त हुई| लता जीवन भर एक अनोखी और अनूठी सप्तपदी चली, सप्तस्वरों के संग!
मंगेशकर भाई-बहनें यानि वर्तमान भाषा में मैं कहूँगी, ‘मंगेशकर ब्रँड’! इसका अन्य कोई सानी नहीं या अन्य कोई बराबरी करने वाला भी नहीं| दीनानाथ और माई (शेवंती) मंगेशकरजी के ये पंचप्राण थे| हर एक का गुण विशेष निराला! लता की सफलता का राज था अपने पिता से, अर्थात मराठी संगीत नाटकों के प्रसिद्ध गायक अभिनेता ‘मास्टर दीनानाथ मंगेशकर’ से विरासत के हक़ से और शिक्षा से आई संगीतविद्या, उसकी ‘स्वयं-स्वर-प्रज्ञा’ और जी तोड़ कर की हुई स्वर साधना! अबोध उम्र की लता के इस संगीत ज्ञान को उसके पिता ने बहुत जल्द भाँप लिया था| उस समय से ही उन्होंने उसकी गायकी को तराशना आरम्भ किया था | छह साल की उम्र से ही वह रंगमंच पर गाने लगी थी| १९४२ में पिता की असामयिक मृत्यु हुई तब वह महज १३ वर्ष की थी| उतनी नन्ही सी उम्र से ही लता अपने भाई-बहनों का मजबूत सहारा बन गई! उसके समक्ष संघर्षों की एक शृंखला थी, लेकिन उन्हीं के मध्य से लता ने इस कांटेदार रास्ते को पार किया।
प्रथम प्रसिद्धी मिली ‘महल'(१९४९) फिल्म के ‘आएगा आने वाला’ इस गाने को! तब लता थी बीस वर्ष की और इस फिल्म की नायिका मधुबाला थी सोलह वर्ष की| इस फिल्म से इन दोनों का फ़िल्मी सफर साथ साथ फला फूला| एक बनी स्वर की महारानी और दूसरी बनी सौंदर्य की मलिका! मजे की बात यह थी कि, इस गाने के रेकॉर्डप्लेअर पर गायिका का नाम लिखा था ‘कामिनी’ (तब सिल्वर स्क्रीन पर गाना प्रस्तुत करने वाले किरदार का नाम रेकॉर्डप्लेयर पर लिखा जाता था|) इसके पश्चात् लता ने ही अथक संघर्ष करते हुए रेकॉर्डप्लेअर पर सिर्फ नाम ही नहीं तो, रॉयल्टी और गायक गायिका को विभिन्न फिल्मफेअर पुरस्कार आदि प्राप्त करवाते हुए उनको उनका श्रेय दिलवाया| लता और फिल्म जगत की अमृतगाथा समानान्तर चली, यह कहने में कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए| १९४० से लेकर तो अभी अभी तक यानि, २०२२ तक लगभग ८० वर्षों की साथ में निभाई हुई थी संगीत यात्रा! उसके साथी गायक, गायिका, नायक, नायिका, संगीतकार, गीतकार, तकनीशियन, वादक, दिग्दर्शक, निर्माता ऐसे हजारों लोग उसके साथ यह यात्रा पूरी करते हुए आधे रास्ते ही निकल गए। अब तो वह भी उनके साथ चली गई है| यह ‘अमृत-लता’ वक्त के चलते आसमान की ऊंचाई को छू गई है|
आश्चर्य की बात यह है कि, इतनी बार उसका गाना सुना होने के बावजूद भी ऐसा क्यों होता है, ‘हे ईश्वर, यह सुन्दर गाना आजतक मैंने कैसे सुना नहीं! अरे भई, यह कैसे मिस हो गया!’ मित्रों, यह अवस्था हर उस संगीतप्रेमी रसिकजन की होती होगी, क्योंकि यह स्वर कोषागार बहुत ही विशाल है| और एक मजे की अलग ही बात कहूं इसके जादूभरे स्वरों की? जिस तरह ऋतु बदलते हैं, उसी तरह हमारे बदलते मूड के अनुसार हमारे लिए लता की आवाज की ‘जवारी’ (क्वालिटी) बदल रही है, ऐसा हमें आभास होने लगता है| सच में पूछा जाय तो, एक बार सुनकर यह स्वरोल्लास हमारे ह्रदय में समाहित नहीं होता ऐसा संभव है| देखिये ना, अगर आज मेरा ‘मूड ऑफ’ है तो, ‘उस’ गाने में मुझे लता की आवाज कुछ अधिक ही शोकाकुल लगने का ‘फील’ आता है| क्या कहूं इस बहुरंगी, बहुआयामी, तितली के विविध इंद्रधनुषी रंगों की तरह सजे आवाज की महिमा को! इन स्वरों के बारे में बोलना हो तो मराठी संत तुकारामजी की रचना का स्मरण हुआ, ‘कमोदिनी काय जाणे तो परिमळ भ्रमर सकळ भोगीतसे’! यानि ‘कुमुदिनी क्या जाने उस परिमल के सौंदर्य को, जो भ्रमर सम्पूर्ण रूप से भोग रहा है’| लता क्या जाने कि, उसने हमारा जीवन कितना और कैसे समृद्ध किया है! उसके आवाज से समृद्ध हुई ३६ भाषाओं में से कोई भी भाषा लें, इस एक ही आवाज में वह भाषा ही धन्य होगी ऐसे ऐसे गाने, एकदम ओरिजिनल लहेजा और स्वराघात! लता तुम, ऊपर से क्या लेकर आयी और यहाँ धरती पर तुमने क्या शिक्षा प्राप्त की, इसका अचेतन हिसाब करने का मतलब यह हुआ कि, आसमान के तारे गिनने से भी कठिन होगा! इसके बजाय सच्चे संगीतप्रेमी एक ऍटिट्यूड (वर्तमान संदर्भ वाला नहीं) रखें, ‘आम खाओ, पेड मत गिनो’| सिर्फ और सिर्फ उसके गाने पर फिदा हो जाना, बस मैटर वहीं समाप्त!
डॉ. मीना श्रीवास्तव
उसने दया बुद्धि दर्शाकर संगीत के कुछ प्रांत उसके बिलकुल पहुँच में होते हुए भी छोड़ दिए, शास्त्रीय संगीत तथा नाट्यसंगीत | (यू ट्यूब पर कुछ गिने चुने उपलब्ध हैं!) संगीतकार दत्ता डावजेकर ने कहा था कि, लता के नाम में ही लय और ताल है| जिसके गाने से आनंदसागर में आनंद तरंग निर्माण होते हैं, जिसने ‘आनंदघन’ इस नाम से गिने चुने मराठी फिल्मों (महज चार) को संगीत देकर तमाम संगीतकारों पर उपकार ही किया, जिसने शास्त्रीय संगीत की उच्च शिक्षा ले कर उसमें महारत हासिल की, परन्तु व्यावसायिक तौर पर शास्त्रीय संगीत के जलसे नहीं किये (प्रस्थापित शास्त्रीय गायकों ने भी इसके लिए उसका शुक्रिया अदा किया है), उसके बारे में संगीतकार वनराज भाटिया कहते हैं, ’she is composer’s dream!’ किसी भी संगीतकार के गीत हों, खेमचंद प्रकाश, नौशाद, अनिल बिस्वास, ग़ुलाम मोहम्मद, सज्जाद हुसैन, मदनमोहन, जमाल सेन के जैसे दिग्गजों की कठिनतम तर्जें, सलिलदा या सचिनदा की लोकसंगीत पर आधारित धुनें, वसंत देसाई, सी. रामचंद्र या शंकर जयकिशन के अभिजात संगीत से सजी, या आर डी, ए आर रहमान, लक्ष्मी प्यारे, कल्याणजी आनंदजी के आधुनिक गीत हों, जिस किसी गाने को लता का शुद्ध पारसमणि सम स्वर गंधार प्राप्त हुआ, उसकी आभा नवनवीन स्वर्ण-उन्मेष लेकर रसिक जनों के कलेजे की गहराई में उतर जाती| अत्यंत कठिनतम तर्जें बनाकर लता से अनगिनत रिहर्सल करवाने वाले संगीतकार सज्जाद हुसैन का तो कहना था ‘सिर्फ लता ही मेरे गाने गा सकती है!’
यह स्वरवल्लरी मल्टीस्पेशलिटी हॉस्पिटल से भी सुपर डुपर है! बीमारी कोई भी हो, उसके पास गाने के रूप में अक्सीर इलाज वाली दवा मौजूद है ही! इस दवा को न खाना तो सख्त मना है| छोटी बच्ची का, ‘बच्चे मन के सच्चे’, सोलह साल की नवयुवती का, ‘जा जा जा मेरे बचपन’, विवाहिता का, ‘तुम्ही मेरी मंजिल’, समर्पिता का, ‘छुपा लो यूं दिल में प्यार मेरा’, तो एक रूपगर्विता का, ‘प्यार किया तो डरना क्या’ एक माता का, ‘चंदा है तू’, एक क्लब डांसर का (है यह भी), ‘आ जाने ना’, एक भक्तिरस से परिपूर्ण भाविका का,‘अल्ला तेरो नाम’, एक जाज्वल्य राष्ट्राभिमानी स्त्री का, ‘ऐ मेरे वतन के लोगों’ऐसे कितने सारे लता के मधु मधुरा स्वर माधुर्य से सजे बहुरंगी स्त्री रूप याद करें?
लता के गाये गानों में मेरे पसंदीदा गाने याद करने की कोशिश की तो, मानों हाथों से बहुमूल्य मोतियों के फिसलने का आभास होने लगा| उनमें से चुनिंदा गाने पेश करने की तीव्र इच्छा हो रही है| मुझे लता का १९५० से १९५५ का बिलकुल कमसिन स्वर बहुत ही प्रिय है| इसलिए गाने भी वैसे ही हैं…. | ‘उठाए जा उनके सितम’- (फिल्म -‘अंदाज’, १९४९, मजरूह सुल्तानपुरी- नौशाद), ‘सीने में सुलगते हैं अरमाँ’ – (फिल्म -‘तराना’, १९५१, प्रेमधवन-अनिल बिस्वास), ‘साँवरी सूरत मन भायी रे पिया तोरी’- (फिल्म -‘अदा’, १९५१, प्रेमधवन-मदनमोहन), ‘ये शाम की तनहाइयाँ’- (फिल्म -‘आह’, १९५३, शैलेन्द्र-शंकर जयकिशन), ‘जाने वाले से मुलाकात ना होने पायी’-(फिल्म -‘अमर’- १९५४, शकील बदायुनी-नौशाद)| अर्थात पसंद अपनी अपनी! हर एक की पसंद का कोई परिमाण नहीं, यहीं सच है!
कानों में प्राणशक्ति एकत्रित कर सुनना चाहें, ऐसे ये ‘आनंदघन’ बरसते हैं और इनमें मन भीग जाता है| कितना ही भीगें, फिर फिर से उन मखमल से नर्म मुलायम बारिश की बुन्दनियों के स्पर्श की अनुभूति करने को जी चाहता है| यहाँ मन संतुष्ट होने का सवाल ही नहीं है| अगर अमृतलता हो तो, जितना भी अमृतपान करें, उतना ही असंतोष वृद्धिंगत होते ही जाता है| मित्रों! यह असंतोष शाश्वत है, क्योंकि लता का ॐकारस्वरूप स्वर ही चिरंतन है, उसका अनादी अनंत रूप अनुभव करने के उपरान्त स्वाभाविक तौर पर लगता है, ‘जहाँ दिव्यत्व की प्रचीति हो, वहाँ मेरे हाथ नमन करने को जुड़ जाते हैं!’ मुझे मशहूर साहित्यिक आचार्य अत्रे का लता से सम्बन्धित यह वाक्य बड़ा ही सुन्दर लगता है, ‘ऐसा प्रतीत होता है कि, सरस्वती की वीणा की झंकार, उर्वशी के नूपुरों की रुनझुन और कृष्ण की मुरली का स्वर, ये सब समाहित कर विधाता ने लता का कंठ निर्माण किया होगा |’
आचार्य अत्रे ने ही लता को २८ सितम्बर १९६४ में (अर्थात उसके जन्मदिन पर) ‘दैनिक मराठा’ इस उन्हीं के समाचारपत्र में अविस्मरणीय बने उनके मराठी में लिखे ‘सम्मान पत्र’ को अर्पण किया था! वैसे तो सम्पूर्ण लेख ही पढ़ने लायक है, परन्तु उसकी झलक के रूप में देखिये लता के अद्भुत, अनमोल तथा अनुपम स्वराविष्कार का वर्णन करते हुए अत्रेजी ने कितने नाजुक और मखमली लब्जों की सजावट की है, ‘स्वर्गीय स्वरमाधुरी का मूर्तिमंत अवतार रही लता का केवल लोहे की निब से उतरी स्याही के शब्दों से, समाचारपत्र के कठोर और खुरदरे कागज़ पर अभिनंदन करना यानि, स्वरसम्राज्ञी के स्वागत के लिए उसके चरणों के नीचे खुरदरे और कठोर बोरियों की चटाई बिछाने के जैसा अशोभनीय है| लता के गले की अलौकिक कोमलता को शोभा दे, ऐसा अभिवादन करना हो तो, उसके लिए प्रभात बेला के कमसिन स्वर्ण किरणों को ओस की बून्दनियों में भिगाकर बनाई हुई स्याही से, कमलतंतू की लेखनी से और वायुलहरों के हल्के हाथों से, तितलियों के पंखों पर लिखा हुआ सम्मानपत्र गुलाब की कली के सम्पुट में उसे अर्पण करना होगा|’
डॉ. मीना श्रीवास्तव
इतने मानसम्मान, शोहरत, ऐश्वर्य और फ़िल्मी दुनिया की चकाचौंध के होते हुए भी लता का रियाज निरंतर चलता रहा और उसके कदम भी इसी जमीं पर ही रहे| जागतिक कीर्ति प्राप्त प्रतिष्ठित अल्बर्ट हॉल में उसे आंतरराष्ट्रीय गायिका के रूप में प्रस्थापित करने वाले कार्यक्रम की तारीफ़ करें, या सर्वश्रेष्ठ दादासाहेब फाळके और भारतरत्न पुरस्कार मिलने के उपरान्त भी लता की विनम्रता कैसे कम नहीं हुई इसका आश्चर्य करें?
‘स्वरलता’ इस विषय पर स्तंभ लेखों पर लेख, ऑडिओ, विडिओ, पुस्तकें, सब कुछ भरपूर मात्रा में उपलब्ध हैं। परंतु हम जिस प्रकार सागर को उसके ही जल से अर्ध्य देते हैं ना, वैसा ही मेरा यह लेखन है! इस स्वर देवता ने भर भर के स्वर सुमन दिए हैं! ‘कितना लूँ दो हथेलियों में, ऐसी अवस्था हुई है मेरी, वे तो कब की भर गईं फूलों से, लिखते लिखते ऑंखें भी भर गईं आंसुओं से और लब्ज़ भी गायब हो गए, हृदय भर गया ‘हृदया’ (लता का यह नाम मुझे अतिप्रिय है) के अनगिनत स्वर मौक्तिकों से! अब ‘हे दाता भगवन यहीं दान देता जा’ कि, सिर्फ लता का निर्मोही, निरंकारी और निरामय स्वर हो, उसके सप्तसुरों के सितारों के सोपान पर चढ़ते हुए जाएं और उस असीम अवकाश में ध्रुव तारे के समान चमकने वाली हमारी लाड़ली स्वरलता को अनुभव करें इसी काया से, इसी हृदय से और इसी जनम में!
प्रिय पाठक गण, ‘जहाँ मैं जाती हूँ वहीं चले आते हैं’, ऐसे लता के स्वराविष्कार को फ़िलहाल यहीं विराम देते हुए इस अमर स्वर शारदा के चरणों में नतमस्तक होती हूँ।
धन्यवाद 🙏🌹
© डॉ. मीना श्रीवास्तव
ठाणे
तारीख-२८ सितम्बर २०२३
मोबाईल क्रमांक ९९२०१६७२११, ई-मेल – [email protected]
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈