हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गांधी चर्चा # 5 – हिन्द स्वराज से ☆ श्री अरुण कुमार डनायक
श्री अरुण कुमार डनायक
(श्री अरुण कुमार डनायक जी महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचानेके लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है.
आदरणीय श्री अरुण डनायक जी ने गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर 02.10.2020 तक प्रत्येक सप्ताह गाँधी विचार, दर्शन एवं हिन्द स्वराज विषयों से सम्बंधित अपनी रचनाओं को हमारे पाठकों से साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार कर हमें अनुग्रहित किया है. लेख में वर्णित विचार श्री अरुण जी के व्यक्तिगत विचार हैं। ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से आग्रह है कि पूज्य बापू के इस गांधी-चर्चा आलेख शृंखला को सकारात्मक दृष्टिकोण से लें. हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ प्रत्येक बुधवार को आत्मसात कर सकें. आज प्रस्तुत है इस श्रृंखला का अगला आलेख “हिन्द स्वराज से”.)
☆ गांधी चर्चा # 5 – हिन्द स्वराज से ☆
( गौ रक्षा)
प्रश्न:- अब गौरक्षा के बारे में अपने विचार बताइये।
उत्तर :- मैं खुद गाय को पूजता हूँ यानी मान देता हूँ । गाय हिन्दुस्तान की रक्षा करने वाली है, क्योंकि उसकी संतान पर हिन्दुस्तान का, जो खेती प्रधान देश है, आधार है। गाय कई तरह से उपयोगी जानवर है। वह उपयोगी जानवर है यह तो मुसलमान भाई भी कबूल करेंगे।
लेकिन जैसे मैं गाय को पूजता हूँ वैसे मैं मनुष्य को भी पूजता हूँ। जैसे गाय उपयोगी है वैसे मनुष्य भी- फिर चाहे वह मुसलमान हो या हिन्दू- उपयोगी है।तब क्या गाय को बचाने के लिये मैं मुसलमान से लडूंगा? क्या उसे मैं मारूंगा? ऐसा करने से मैं मुसलमान का और गाय का भी दुश्मन बनुंगा। इसलिए मैं कहूंगा कि गाय की रक्षा करने का एक यही उपाय है कि मुझे अपने मुसलमान भाई के सामने हाथ जोड़ने चाहिए और उसे देश की खातिर गाय को बचाने के लिये समझाना चाहिए। अगर वह न समझे तो मुझे गाय को मरने देना चाहिए, क्योंकि वह मेरे बस की बात नहीं है । अगर मुझे गाय पर अत्यंत दया आती हो तो अपनी जान दे देनी चाहिए, लेकिन मुसलमान की जान नहीं लेनी चाहिए। यही धार्मिक क़ानून है, ऐसा मैं तो मानता हूँ।
हाँ और नहीं के बीच हमेश वैर रहता है। अगर मैं वाद-विवाद करूँगा, तो मुसलमान भी वाद-विवाद करेगा। अगर मैं टेढ़ा बनूँगा तो वह भी टेढ़ा बनेगा। अगर मैं बालिश्त भर नमुंगा तो वह हाथ भर नमेगा; और अगर वह न भी नमे तो मेरा नमना गलत नहीं कहलायेगा। जब हमने जिद्द की तब गोकुशी बढी। मेरी राय है कि गोरक्षा प्रचारिणी सभा गौ वध प्रचारिणी सभा मानी जानी चाहिए। ऐसी सभा का होना हमारे लिए बदनामी की बात है। जब गाय की रक्षा करना हम भूल गए तब ऐसी सभा की जरूरत पडी होगी।
मेरा भाई गाय को मारने दौड़े, तो मैं उसके साथ कैसा बर्ताव करूँगा? उसे मारूँगा या उसके पैरों में पडूँगा? अगर आप कहें कि मुझे उसके पाँव पड़ना चाहिए तो मुझे मुसलमान भाई के भी पाँव पड़ना चाहिए।
गाय को दुःख देकर हिन्दू गाय का वध करता है; इससे गाय को कौन छुडाता है? जो हिन्दू गाय की औलाद को पैना (आर) भोंकता है, उस हिन्दू को कौन समझाता है? इससे हमारे एक राष्ट्र होने में कोई रुकावट नहीं आई है।
मेरी टिप्पणी :- गांधीजी की बात गौ रक्षा को लेकर सत्य ही है। हमारे शहर भोपाल में नवाबों का शासन रहा, तब आयोजनों में गौ मांस का प्रयोग खूब होता था, पर अब जब देश के विभिन्न शहरों से गौ तस्करों के पकडे जाने और उनपर प्राणघातक हमले की खबरें प्राय: सुनने में आती है तब भोपाल जो चारों ओर से कृषि आधारित गाँवों, कस्बों से घिरा है और मुस्लिम बहुल है वहाँ गौकुशी की खबर सुनाई नहीं देती, अखबारों में नहीं छपती। यह परिवर्तन आपसी समझ बूझ बढ़ने का ही परिणाम है।मुझे ऐसे दो अवसर याद हैं जब मैं मुसलमानों द्वारा ही गौ या भैंस का मांस खाने से बचाया गया। 1985 की घटना है मैं माँसाहार के लिए एक मुस्लिम होटल में गया, उसके संचालक ने मुझे माँस खिलाने से मना कर दिया। मेरे पूछने पर बोला आज भैस के पड़े का मटन है आप हिन्दू हैं आपको मैं यह कैसे खिला सकता हूँ ।दूसरी घटना दुबई की है, होटल में हम नाश्ता करने गए, मैंने चूकवश बीफ का टुकडा उठाया ही था कि वेटर जो कि पाकिस्तानी था उसने मुझे उसे लेने से रोका बताया यह बीफ है और आप हिन्दू है। इस प्रकार मैं दो बार धर्म च्युत होने से विधर्मियों द्वारा ही बचाया गया। जब हम गौ ह्त्या को रोकने की बात करते है तब हमें इसके आर्थिक पहलु की ओर भी ध्यान देना होगा। गरीब किसान बूढ़े मवेशी जो ना तो दूध देने की क्षमता रखता है और ना मेहनत की, उसको पालने का बोझ नहीं उठा सकता। गौशालाएं भी ऐसे जानवरों की उचित देखभाल नहीं करती और यह पशु आवारा हो सड़कों पर घूमते रहते हैं। आखिर इस समस्या का हल क्या है। गाय को दुःख देकर हिन्दू गाय का वध करता है; इससे गाय को कौन छुडाता है?महात्मा गांधी की इसी बात में इस समस्या का हल है शायद।
अरुण कुमार डनायक , भोपाल