उपेंद्र नाथ ‘अश्क’ 

☆ आलेख ☆  जन्मदिवस विशेष – “’अश्क’ जिन्हें केवल लिखने के लिए ही धरती पर भेजा गया ” ☆ डॉ. हरीश शर्मा 

हिंदी उपन्यास और गद्य क्षेत्र में मध्यवर्गीय जीवन को चित्रित करने वाले उपेन्द्रनाथ अश्क 14 दिसम्बर, 1910 की दोपहर जालंधर में पैदा हुए और वो खुद इस बारे में कहते हैं कि दोपहर में पैदा होने वाले थोड़े शरारती और अक्खड़ माने जाते है।

एक हठी और सख्त पिता तथा सहनशीलता की मूरत माँ से पैदा हुआ ये आदमी कमाल के बातूनी और मोहक व्यक्तित्व को लेकर पैदा हुआ । पंजाब के निम्न मध्यवर्गीय मुहल्ले में पला बढ़े अश्क जी ने लाहौर, जालंधर, मुंबई से होते हुए इलाहाबाद को अपना पक्का ठिकाना बनाया। आप सोच कर देखिए कि उर्दू में लिखने की शुरुआत करने वाले उपेन्द्रनाथ अश्क को 1932 में एक खत के द्वारा मुंशी प्रेमचंद हिंदी में लिखने की प्रेरणा देते हैं और अश्क हिंदी की ओर मुड़ते हुए उस समय की चर्चित पत्रिका ‘चंदन’ में छपना शुरू हो जाते हैं । इस पर उर्दू के चर्चित कथाकार कृष्ण चन्दर लिखते हैं, अश्क मुझसे बहुत पहले लिखना शुरू कर चुके थे और लोकप्रियता की मंजिल तय करके उर्दू कहानीकारों की पहली पंक्ति में आ चुके थे । उस जमाने मे सुदर्शन जी लाहौर से कहानी की एक बहुत ही अच्छी पत्रिका ‘चंदन’ निकालते थे और अश्क जी की कहानियाँ अक्सर उसमें छपती थीं ।

अश्क जी चर्चित कथाकार राजेन्द्र सिंह बेदी, सहादत हसन मंटो के समकालीन रहे । 1947 में इनके साथ ही लाहौर रेडियो स्टेशन के लिए कृष्ण चंदर भी नाटक लिखा करते थे । अश्क जी लाहौर रेडियो पर नाटक लिखने के लिए बाकायदा तनख्वाह पाते थे ।

अश्क जी की लोकप्रियता का सबसे बड़ा सबूत उनकी 57वीं वर्षगाठ पर लिखे गए संस्मरणों की किताब ‘अश्क, एक रंगीन व्यक्तित्व’ है, जिसमे हिंदी और उर्दू के कई जाने माने चेहरों ने अश्क जी पर अपने अनुभव साझा किए हैं, इन साहित्यकारों में शिवपूजन सहाय, मार्कण्डेय, सुमित्रानन्दन पंत, भैरवप्रसाद गुप्त, राजेंद्रयादव, मोहन राकेश, जगदीश चन्द्र माथुर, फणीश्वर नाथ रेणु, शेखर जोशी, ख्वाजा अहमद अब्बास, कृष्ण चन्दर, बेदी, देवेंद्र सत्यार्थी, शानी आदि ने लिखा । इस अर्ध शती समारोह के अवसर पर लेनिनग्राद से लेखक बारानिकोव ने भी संस्मरण लिखा है।

अश्क जी ने अपना पहला उपन्यास ‘सितारों के खेल’ 1940 में लिखा और फिर ‘गिरती दीवारें’ बड़ी बड़ी आँखें, एक नन्ही कंदील, बांधो न नाव इस ठाँव, शहर में घूमता आईना, पलटती धारा, निमिषा, गर्म राख सहित दस उपन्यास लिखे । उपन्यास ‘इति नियति’ उनकी अंतिम रचना थी जो उनकी मृत्यु के उपरांत 2004 में छपा। इसके इलावा अश्क जी ने साहित्य की हर विधा में हाथ आजमाया । उन्होंने लगभग सौ किताबें हिंदी साहित्य को दीं ।

अश्क जी द्वारा लिखे नाटक भारत और लंदन तक में खेले गए । उनका लिखा नाटक ‘अंजो दीदी ‘तो जालंधर में एक ही दिन छह जगह खेला गया । उनके अन्य चर्चित नाटक स्वर्ग की झलक, छठा बेटा, कैद और उड़ान, जय पराजय आदि भारत के विभिन्न राज्यों और विदेशों में चर्चित रहें । अश्क जी का मंटो पर लिखे संस्मरण की किताब, ‘मंटो: मेरा दुश्मन’ बहुत चर्चित रहा ।

अश्क जी ने दर्जनों कहानियाँ हिंदी और उर्दू साहित्य की झोली में डाली । ‘छींटे, काले साहब, बैंगन का पौधा, पिंजरा, आदि कहानी संग्रहो में सौ के लगभग कहानियां उन्होंने लिखी ।

उनके पूरे साहित्य में लाहौर,जालंधर क्षेत्र का पंजाबी मध्यवर्ग मुखर रहा । उपन्यासों में तो वे चेतन नाम के पात्र द्वारा अपने ही जीवन की एक लंबी कथा लिखते रहे जिसने पंजाब के मध्यवर्ग के हर कोण को बहुत बारीकी से पकड़ा । बंटवारे से पहले और बाद के संदर्भो को समझने के लिए उनके उपन्यास एक अहम दस्तावेज हैं ।

मैं खुद 2003 में जब अश्क जी पर पंजाबी यूनिवर्सिटी पटियाला में शोध कर रहा था तो विभाग अध्यक्ष डॉ चमनलाल जी ने बताया कि डेजी रोकवेल की एक किताब अंग्रेजी में अश्क जी पर आई है । अमेरिकन लेखक और अनुवादक डेजी रोकवेल वही नाम है जिसे गीतांजलि श्री के उपन्यास ‘रेत समाधि’ के अंग्रेजी अनुवाद के लिए अभी हाल ही में बुकर पुरस्कार मिला ।

डेजी की किताब उपेन्द्रनाथ अश्क, अ क्रिटिकल बायोग्राफी’ में भी अश्क जी के जीवन और उनकी रचना प्रक्रिया पर बहुत शोधात्मक काम हुआ है । डेजी ने अश्क के उपन्यास ‘गिरती दीवारें’ और ‘शहर में घूमता आईना’ को भी अंग्रेजी में अनुवाद किया।  इससे अश्क के महत्व का अंदाजा स्वयं ही लगाया जा सकता है कि वे कॉटन महत्व पूर्ण व्यक्ति थे ।

अश्क जी को उनके लेखन के लिए कभी किसी पुरस्कार की आकांक्षा नही थी, आकाशवाणी को दिए एक साक्षात्कार में वो कहते हैं “लिखना मेरे लिए जीवन है और मैं अखबारों की संपादकीय, वकालत को छोड़कर लेखन में ही लग गया क्योंकि इससे मुझे खुशी मिलती थी ।” अश्क जी न केवल देश की राज्य सरकारों ने सम्मानित किया बल्कि विदेश में भी सम्मानित हुए । उनके उपन्यास ‘बड़ी बड़ी आंखे’ 1956 में भारत सरकार द्वारा पुरस्कृत हुआ । ‘शहर में घूमता आईना, पत्थर अल पत्थर, हिंदी कहानियाँ और फैशन (आलोचना) आदि को पंजाब सरकार द्वारा पुरस्कृत किया गया । ‘साहब को जुकाम है’ एकांकी नाटक को पंजाब तथा उत्तर प्रदेश सरकार ने सम्मान से पुरस्कृत किया | संगीत नाटक अकादमी ने उन्हें सर्वश्रेष्ठ नाटककार का सम्मान दिया । 1972 में अश्क जी को नेहरू पुरस्कार मिला तथा रूस जाने का निमंत्रण दिया गया ।  पंजाब सरकार के भाषा विभाग ने अपने इस धरती पुत्र की स्वर्ण जयंती मनाई गई तथा उनके गृहनगर जालंधर में लोकसम्मान किया गया । इसी प्रकार अश्क की अर्धशती केवल जालंधर और इलाहाबाद में नही बल्कि रूस के लेनिनग्राद में भी मनाई गई । जीवन के अंतिम दिनों में मध्यप्रदेश सरकार द्वारा उन्हें एक लाख रुपये का ‘इकबाल सम्मान’ देने की भी घोषणा हुई । इस प्रकार अश्क जी अपने अथक लेखन के लिए अनगिनत पुरस्कारों से सम्मानित हुए ।

इस दौरान वे गम्भीर बीमारियों से लगातार जूझते रहे पर लेखन ने उन्हें हमेशा ऊर्जा दी और जीते रहने की संजीवनी बूटी दी ।

वे लगातार लिखते रहे । वे खुद लिखते हैं कि दस से पंद्रह पेज जब तक वे रोजाना लिख न लें उन्हें चैन नही पड़ता था। शायद इसी कारण वे अपने बृहद उपन्यासों की रचना कर पाए। उनका उपन्यास ‘शहर में घूमता आईना’ जो लगभग 450 पृष्ठों में फैला है, एक ही दिन की कथा है, जिसमे वो बहुत से पात्रों और स्थान का वर्णन करते हुए उनकी मनोवैज्ञानिक, सामाजिक तथा आर्थिक दशा को दिखाते हैं | उनके पास हर विधा में लिखने की जो कला थी, वो उन्हें हर प्रकार की ऊब से परे रखती ।

विविधता ने उनकी कलम को कभी रुकने न दिया । इसलिए वे उपन्यास, कहानी, नाटक, एकांकी, लेख, आलोचना, संस्मरण के बीच पाला बदल बदल कर आगे बढ़ते रहे । बीमारियां चलती रही पर उन्होंने इन्ही के साथ जीना सीखते हुए लिखना जारी रखा। उन्होंने बीमारी के दौरान लाभ उठाते हुए टालस्टाय, दस्तोवस्की, जेन आस्टन, मैन्टरलिक,पिरेन्डलो और बर्नार्ड शा को पढ़कर अपने लेखन को नया शिल्प दिया और इन क्लासिक रचनाओं को पढ़कर लिखने की प्रेरणा पाते रहे । कहने के लिए उनके पास अपना खुद का जीवन था, जिसमे मुहल्ले, बदहाली, आर्थिक विषमता, संघर्ष और एक नौजवान के जीवन की लंबी किस्सागोई मौजूद थी । उन्होंने एक साक्षात्कार में भी कहा, “मुझे सच में किसी बात का अफसोस नही, मुझे संतोष है कि जैसे भी जिया, अपनी तरह जिया और अपनी जिंदगी से कुछ लिया तो बदले में कुछ कम नही दिया।”

अश्क जी की लेखन परम्परा को उनके पुत्र नीलाभ ने आगे बढ़ाया । उसी के नाम से उन्होंने इलाहाबाद में नीलाभ प्रकाशन शुरू किया था । नीलाभ हिंदी के चर्चित कवि, अनुवादक रहे | काफी समय बी बी सी लंदन में भी उन्होंने काम किया । अब वे भी इस दुनिया से जा चुके हैं ।

9 जनवरी 1996 को अश्क जी ने अंतिम सांस ली । वे अपने पीछे एक बड़ा साहित्य कर्म छोड़ कर गए जो रचनाओं के रूप में एक समाज और क्षेत्र का शाश्वत  दस्तावेज है ।

© डॉ. हरीश शर्मा

मो 9463839801

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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