श्री अजीत सिंह जी

(हमारे आग्रह पर श्री अजीत सिंह जी (पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन) हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए विचारणीय आलेख, वार्ताएं, संस्मरण साझा करते हैं।  इसके लिए हम उनके हृदय से आभारी हैं। दीपावली पर्व के विशेष अवसर पर आपने एक विचारणीय आलेख  ‘लुप्त होती परम्पराएं साझा किया है। समय के साथ इन लुप्त होती परम्पराओं को जीवित रखने की आवश्यकता है। हम आपसे उनकी अनुभवी कलम से ऐसे ही आलेख समय समय पर साझा करते रहेंगे।)

☆ आलेख ☆ दीपावली विशेष – लुप्त होती परम्पराएं ☆ 

ज़िक्र कपास के फाहे, मोरपंख के पटूवे, और पचगंडे  का

पौराणिक कथाओं से जुड़े, जनमानस में रमे बसे, दीवाली और गोवर्धन पूजा के त्यौहार साथ साथ ही आते हैं, पर हैं बिल्कुल अलग से। दीवाली भगवान राम से जुड़ी है तो गोवर्धन पूजा भगवान कृष्ण से।

हमारे गांव हरसिंहपुरा में दीवाली को बनियों की दीवाली कहा जाता था और इस दिन प्राय अग्रवाल समाज के लोग लक्ष्मी पूजा करते थे और दीपमाला करते थे।

किसान मज़दूर वर्ग की दीवाली गोवर्धन पूजा पर ही होती थी।

(सांझी लोक कला का एक नमूना)

गोवर्धन पूजा के लिए गोबर से एक लोथड़ा जैसी मानव आकृति बनाई जाती थी। उस पर कोई दर्जन भर सरकंडे के टुकड़े खड़े कर उन पर कपास के फाहे लगा कर कपास की फसल का प्रतीक बनाया जाता था। खेत से पहली बार काटकर पांच गन्ने लाए जाते थे और इन्हें गोवर्धन की आकृति के पास रखा जाता था। इन्हें पचगंडा कहा जाता था। परिवार के सभी लोग जिनमें चाचा, ताया, भाई भतीजे सभी शामिल होते थे, पूजा के लिए शाम को अंधेरा होते ही इकठ्ठा हो जाते थे। पंडित कभी आता था, कभी नहीं। एक पंडित, किस किस के घर जाए!

अक्सर मेरे पिता ही पूजा कर देते थे। उन्हे कोई मंत्र नहीं आते थे। वे सीधी साधी भाषा में कुछ इस तरह कहते थे,” हे कृष्ण भगवान, जैसी कपास और गन्ने की फसल इस बार दी है, वैसी ही आगे भी देना। हमारे बच्चों और गाय बछड़ों को बीमारी से दूर रखना, कोर्ट अदालत के झगड़ों से बचाना, सब को प्रेम प्यार का आशीर्वाद देना”। फिर वे कहते,”बोलो गोवर्धन महाराज की जय, बोलो भगवान कृष्ण की जय, बोलो भूमिया खेड़े की जय”

(दीवार पर बना लोक कला का नमूना)

 

सभी हाथों में ली हुई खील गोवर्धन की आकृति पर चढ़ा देते और पूजा संपन्न हो जाती। गन्ने और कुछ मिठाई अगली सुबह पंडित जी के घर पहुंचाई जाती।

पिताजी हमारे घर में पूजा संपन्न कर विस्तृत परिवार के हर घर में जाते और यही प्रक्रिया संपन्न कराते। पूजा के बाद मिठाई बांटी जाती। उसमें आजकल की कोई मिठाई नहीं होती थी। ज़्यादातर फीकी और मीठी खील होती थी, साथ में पतासे और मीठे खिलौने होते थे जिन्हे हम बड़े चाव से खाते थे। दरअसल ये खिलौनों की शक्ल में तैयार की गई शुद्ध खांड की मिठाई होती थी। पूजा के बाद भोजन में चावल, घी-बूरा और दाल होती थी। बड़ी सी टोकनी में चावल बनते थे। कभी किसी साल फीकी खीर भी बनती थी। हम उस पर शक्कर बुरका कर खाते थे। इसका स्वाद ही अलग है और मैं अब भी इसे खाना पसंद करता हूं। वैसे गन्ने के रस की खीर भी स्वादिष्ट होती है पर वह लोहड़ी के त्यौहार या ईख बिजाई के लिए सभी परिवारों से इकट्ठा हुए सदस्यों के लिए बनती थी।

गोवर्धन पूजा के दिन परिवार के इलावा हमारे खेतों में काम करने वाले साझी और उनके परिवार तथा घर से पशुओं का गोबर उठाकर बाहर कुरड़ी पर डालने वाली महिला का परिवार भी शामिल होता था। वे अपने बर्तन लेकर आते थे। कभी वहीं बैठकर खाते थे, कभी भोजन लेकर चले जाते थे। घर के बाहर व मुंडेरों पर मिट्टी के दिए तेल बाती डाल कर जलाए जाते थे। एक दीया  कुरड़ी  पर भी जलाया जाता था। खेतों को खाद तो वहीं से मिलता था। और हां, खेत में काम करने वालों को नौकर नहीं, साझी कहते थे। उन्हे वेतन नहीं मिलता था, फसल में एक चौथाई हिस्सा मिलता था। वे जी जान से काम करते थे।

कुम्हार मिट्टी के दीए सप्लाई करते थे। पैसे लेकर नहीं। उस समय तो कुछ अनाज दिया जाता था पर फसल आने पर उन्हे फसलाना मिलता था। नाई को भी मिलता था। मिट्टी के दीयों को  चुगड़े कहा जाता था।

एक बात और। हमारे गांव में मोर बहुत होते थे। खेतों में उनके मोरपंख गिरे हुए मिल जाते थे। इन्हे हम चंदे कहते थे। इनसे सुंदर पटूवे बनते थे और दीवाली के दिन बैलों के गले में बांधे जाते थे। गाय की पूजा कर उसके सींगों पर तेल लगाया जाता था। इस बार मेरे भतीजे सुरेंद्र ने अपनी कंबाइन हार्वेस्टर मशीन को दीवाली पर फूलों से सजाया था। यह मशीन 50 मजदूरों का काम कर सकती है। पता नहीं, इस मशीन के कारण बेरोज़गार हुए मजदूर किस शहर की झुग्गी झोपड़ी में जी रहे होंगे?

पुराने समय हमारे गांव में चावल या गेहूं खाने का रिवाज़ नहीं था। तीज त्यौहार और मेहमान के आने पर ही ये भोजन बनते थे। गेहूं की रोटी जिसे मांडा कहते थे, ऐसे ही विशेष अवसरों पर खाने को मिलती थी, घी-बूरे के साथ।

आम तौर पर हम गेहूं और चने के आटे से बनी मिस्सी रोटी खाते थे, कई बार मक्खन में नमक मिर्च मिलाकर। मुझे आज भी उससे बढ़िया कोई चीज़ स्वाद नहीं लगती। सर्दियों में मक्की की रोटी और सरसों व बथूए का साग चलता था। सब्ज़ी का चलन बहुत नहीं था, दाल ही बनती थी।

सामान्य दिनों में भी अक्सर शाम के वक्त कोई लड़की हमारे घर खाली कटोरी लेकर आती और मेरी मां से कहती,”ताई, म्हारे घर बटेउ आया है। एक कटोरी दाल की दे दे”।

अब मेरे गांव में लगभग सब कुछ बदल गया है। अब गन्ने, कपास, मिर्च , मक्की, बाजरे की खेती नहीं होती। बस केवल गेहूं और धान होता है। सब कुछ शहरों जैसा हो रहा है। साझी भी गए, नौकर आ गए हैं। गन्ना, कपास, गाय, बैल, मोर, हिरण, घोड़े, ऊंट भी गए। भैंस और ट्रैक्टर आ गए हैं। स्थानीय व्यक्तियों की जगह बिहारी मज़दूर आ गए हैं। ब्लड प्रेशर और शूगर की बीमारियां भी आ गई हैं।

मेरा गांव बदल गया है, सुख समृद्धि आई है, भाईचारा और प्रेम घट गया है। कहावत बनी है कि “पहले घर कच्चे थे, पर मन पक्के थे, अब घर पक्के हैं, पर मन कच्चे हो गए हैं”।

दीवाली और गोवर्धन त्यौहारों पर रामरमी की रसम होती थी। परिवार और गांव के युवा व बालक बुजुर्गों के पास जाकर राम राम कहते थे और “ज़िंदा रह बेटे, खुश रहो भाई”  का आशीर्वाद लेते थे। अब कुछ राजनैतिक लोगों ने इस रसम को अपने ढंग से ढाल लिया है।  नेता लोग निर्वाचन क्षेत्र में अपने घर या दफ्तर में आ जाते हैं जहां उनके समर्थक आकर रामरमी करते हैं। यह उनका जनसंपर्क कार्यक्रम भी हो जाता है।

बुज़ुर्ग अब पीछे चले गए हैं।

“कहां की रामरमी। अब तो गुडमॉर्निंग गुडमॉर्निंग करते हैं । आशीर्वाद के लिए पुचकारो, तो कहते हैं मेरा हेयर स्टाइल बिगाड़ दिया”, बुज़ुर्ग मास्टर ज़िले सिंह कहते हैं।

नवरात्रों में कच्ची  चिकनी मिट्टी से आभूषण व तारे बनाकर तथा उन्हे रंग कर किसी दीवार पर सांझी देवी के आकर्षक चित्र बनाए जाते थे। पुत्र की लंबी आयु के लिए होई माता का व्रत तो रखा जाता है पर दीवार पर होई माता का चित्र अब नहीं बनता। बाज़ार से छपे छपाए होई माता के पोस्टर मिल जाते हैं। लोकचित्र कला की ये दोनों विधाएं लुप्त प्राय हो गई हैं।

दीवाली और गोवर्धन पूजा की वॉट्सएप पर खूब बधाई आ रही हैं, मेरे भाइयों के पोते पोतियों की तरफ से। पोती पायल जो बी ए फाइनल ईयर में पढ़ती है, उसे टिक टॉक बनाने का शौक है। करवा चौथ पर उसने अपने मम्मी डैडी का रैंप वॉक का वीडियो भेजा था। पुरानी परंपराएं लुप्त हो रही हैं, नई उभर रही हैं।

मेरा गांव ‘तरक्की ‘ कर रहा है। मेरा गांव ज़िंदाबाद।

 

©  श्री अजीत सिंह

पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन

संपर्क: 9466647037

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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