श्री राकेश कुमार
(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” आज प्रस्तुत है नवीन आलेख की शृंखला – “ परदेश ” की अगली कड़ी।)
☆ आलेख ☆ परदेश – भाग – 17 – गैरेज/ गैराज ☆ श्री राकेश कुमार ☆
साठ के दशक में जब हमारे देश में फिएट और एंबेसडर जैसी कारों ने अपने कदम रखे तो अधिकतर अमीर लोग बड़े मकान जिसको कोठी, बंगला, हवेली आदि की संज्ञा से जाना जाता है, में निवास करते थे।
कुछ बड़े सेठ/ लाला/ शाह प्रकार के लोग तो देश को स्वतंत्रता मिलने के पश्चात भी निजी घोड़ा-गाड़ी के उपयोग से ही आवागमन करते थे। हमारे स्वर्गीय दादाश्री ने भी देश विभाजन के समय पाकिस्तान से दिल्ली आकर सबसे पहले लुटेरों से छुपा कर लाई गई अपनी पूरी पूंजी से घोड़ा-गाड़ी क्रय कर ली थी, वो बात अलग है, एक वर्ष में ही जब घोड़े को घास खिलाने के लिए “पैसे के लाले पड़” गए तो शेष जीवन पैदल चल कर ही व्यतीत किया था।
कार को सुरक्षित और संभाल कर रखने के लिए घर में उपलब्ध रिक्त स्थान पर एक कमरा बनाये जाने की प्रथा आरंभ हुई थी, उसी को आंग्ल भाषा में गैरेज कहा जाता है। जिनके घर में कार का गैरेज होता था, तो उस क्षेत्र के निवासी उसको “लैंड मार्क” के रूप में भी प्रयोग करते थे, फलां का घर गैरेज से तीसरा है, आदि। समय बदला अब तो कार सड़कों या घर के बाहर खुली देखने को ही मिलती हैं।
यहां विदेश में ज़मीन की बहुतायत होने के कारण अधिकतर घरों की चारों दिशाओं में खुली ज़मीन रहती है। सभी घरों में दो जुड़े हुए गैरेज होते हैं, जिसमें कारों के अलावा बागवानी का समान आदि रखा जाता हैं। आधुनिक तकनीक से कार में बैठे हुए भी इसके दरवाज़े “खुल जा सिम सिम” तिलस्म की भांति खुल जाते हैं।
अपने घर की अनुपयोगी हो चुकी वस्तुएं भी “गैरेज सेल” के नाम से विक्रय किए जाने की परम्परा अभी भी विद्यमान है। क्योंकि यहां पुराने समान को खरीदने वाले “कबाड़ी” जो नहीं होते हैं।
© श्री राकेश कुमार
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