डाॅ. मीना श्रीवास्तव
☆ आलेख ☆ मेघ, सावन और ईश्वर… ☆ डाॅ. मीना श्रीवास्तव ☆
(हिंदीभाषा डॉट कॉम परिवार द्वारा आयोजित ‘मेघ, सावन और ईश्वर’ विषय पर 84 वीं स्पर्धा कराई गई। इसमें उत्कृष्टता अनुसार प्रथम विजेता बनने का सौभाग्य गद्य में डॉ. मीना श्रीवास्तव जी को प्राप्त हुआ। प्रस्तुत है पुरस्कृत आलेख ‘मेघ, सावन और ईश्वर’। ई-अभिव्यक्ति परिवार की ओर से हार्दिक बधाई।)
“वागर्थाविव संपृक्तौ वागर्थ: प्रतिपत्यये।
जगत: पितरौ वंदे पार्वतीपरमेश्वरौ॥”
(अर्थ: शब्द और अर्थ का सम्यक ज्ञान प्राप्त हो, इसलिए शब्द और अर्थ के समान ही (परस्पर से भिन्न होकर भी) परस्पर में समाहित रहने वाले, जो अखिल जगत के जनक जननी हैं, ऐसे पार्वती तथा परमेश्वर (शिव) को मैं प्रणाम करता हूँ|)
महाकवि कालिदास के अमर काव्य ‘रघुवंशम्’ का प्रारम्भ शिव-पार्वती स्तुति के इसी श्लोक से होता है। जब मेघों से लरजती रिमझिम फुहार धरती पर बरसने को व्याकुल हो, जब इंद्रधनुषी किनारी से सजी, विविध कुसुमों की भीनी-भीनी खुशबू में लिपटी बेल-बूटी से सजे वस्त्र ओढ़ कर साँवरी-सलोनी वसुंधरा आनन्द गीत गुनगुनाने लगे और जब परमेश्वर की असीम कृपा आप पर हर पल वृद्धिगत होने को तैयार हो तो, समझ लीजिए कि, सावन का महीना आपके द्वार पर दस्तक दे रहा है।
अब कृष्णमेघ नई उमंग के साथ आसमान में छा जाते हैं। जरा-सी बारिश हुई नहीं कि, मेघों से लुका-छुपी खेलती सुनहरी धूप की किरणें झांकती हैं। फिर प्रकृति का एक अनुपम दृश्य ‘इंद्रधनुष’ आसमान में तन जाता है। उसके सप्त रंग सुहानी आभा बिखेरते हैं समस्त वातावरण में। जब इंद्रधनुष कहे कि, मेरी इस सुंदरता का कोई सानी नहीं, तब कोई है जो कारे- कारे बदरा को देख अपने पंखों को फैलाकर अपनी नृत्यकला से समस्त प्रकृति को भावविभोर करे एवं कहे-है कोई मेरा सानी रंगों में और नृत्य में ? मित्रों, हमें तो मयूर का नृत्य उतना ही लुभाता है, जितने मोरपखा के रंग। ‘छायावाद’ के शीर्ष लेखक सुमित्रानंदन पंत ने उनकी ‘बरसते बादल’ नामक कविता में सावन के शस्य श्यामल रूप का मनमोहक वर्णन किया है, जो कर्णमधुर भी है।
“झम झम झम झम मेघ बरसते हैं सावन के,
छम छम छम गिरती बूँदें तरुओं से छन के।
चम चम बिजली चमक रही रे उर में घन के,
थम थम दिन के तम में सपने जगते मन के।”
वर्षा की फेनिल धाराओं धारा के कवि का मन ऐसा डोलने लगता है कि, वह बारम्बार सावन के आने की प्रतीक्षा करने लगता है।
“पकड़ वारि की धार झूलता है मेरा मन,
आओ रे सब मुझे घेर कर गाओ सावन!
इन्द्रधनुष के झूले में झूलें मिल सब जन,
फिर फिर आए जीवन में सावन मन भावन!”
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“उज्जयिन्यां महाकालं ओम्कारम् अमलेश्वरम्॥
परल्यां वैद्यनाथं च डाकिन्यां भीमशङ्करम्।
सेतुबन्धे तु रामेशं नागेशं दारुकावने॥
वाराणस्यां तु विश्वेशं त्र्यम्बकं गौतमीतटे।
हिमालये तु केदारं घुश्मेशं च शिवालये॥”
मित्रों, १२ ज्योतिर्लिंगों में ही नहीं, बल्कि हर शिवभक्त के प्राणों में बसे देवों के देव महादेव की आराधना करने के लिए सर्वोत्तम ऐसा सावन का महीना भगवान शिव को समर्पित है, जिस मनोरम प्रकृति के हर रूप में ईश्वर का निवास है, वहीं प्रकृति अपने सबसे सुन्दर रूप का श्रृंगार कर भोलेनाथ की पूजा में तल्लीन हो जाती है। इस माह में चंद्रमा श्रवण नक्षत्र में होते हैं, इसलिए इस महीने को ‘श्रावण’ या ‘सावन’ कहा जाने लगा। शास्त्र कहते हैं कि, सावन के महीने से भगवन विष्णु चौमासे के लिए योगनिद्रा में चले जाते हैं, इसलिए महादेव सृष्टि का संचालन करने लगते हैं और इस महीने में भूलोक पर आते हैं।
भगवान शिव को सोमनाथ अर्थात सोम (चंद्र के स्वामी) और जलदेव (वर्षा के स्वामी) भी कहा जाता है। जलाभिषेक से सम्बंधित एक प्रचलित पौराणिक कथा के अनुसार-सावन के महीने में समुद्र मंथन के दौरान ‘हलाहल’ नामक विष निकला था। समस्त सृष्टि की रक्षा करने के लिए भगवान शिव ने विष ग्रहण कर लिया था, जिसके कारण उनका गला नीला पड़ गया। तब से वे ‘नीलकंठ’ कहलाए। उस समय गले पर विष का प्रभाव कम करने के लिए देवताओं ने उन्हें जल अर्पित किया था। मुझे तो यही प्रतीत होता है कि, शिव ऐसे इकलौते अल्पसंतोषी भगवान हैं जो श्रद्धापूर्वक अर्पण किए हुए जल तत्व को ग्रहण कर प्रसन्न होते हैं।
भगवान शिव की पूजा-अर्चना करने के लिए सावन के सोमवार को उपवास, उपासना और जलाभिषेक महत्वपूर्ण माने जाते हैं। मान्यता है कि, इन दिनों में शिवजी को जलाभिषेक करने से सर्वोत्तम फलप्राप्ति और भक्तों की मनोकामनाएं अवश्य पूरी होती हैं। बेल की पत्तियाँ और धतूरा भी भोलेनाथ को अतिप्रिय है।
श्रावण माह का महत्व इस महीने में आने वाले पूजा अर्चना और त्योहारों के कारण और भी वृद्धिगत हो जाता है। महादेव को प्रसन्न करते-करते उनके गले में प्रेम से लिपटे नीलकंठ की शोभा बढ़ाते हुए नागराज वासुकी को कैसे बिसरा दें ? इन्होंने ही अमृत मंथन के लिए रस्सी का कार्य किया था। नाग पंचमी का त्यौहार हम इसी सावन में (श्रावण शुक्ल पंचमी) मनाते हैं। देखिए, हमारी भारतीय संस्कृति इतनी महान है कि, विष उगलने वाले सर्पों को भी हम देवता का दर्जा दे पूजते हैं। श्रावण पूर्णिमा के दिन मछुआरे सागर को श्रीफल अर्पण कर यह प्रार्थना करते हैं कि वह शान्त रहे। इसी दिन भाई-बहन के प्रेम का प्रतीक रक्षाबंधन मनाया जाता है| जन्माष्टमी (श्रावण वद्य अष्टमी) यह कृष्णजन्म का पावन दिवस कृष्णभक्तों के लिए तो आनंदोल्लास का पर्व होता है। हर श्रावण शुक्रवार को जरा जीवंतिका पूजन बालकों की मंगल कामना के लिए किया जाता है। इन दिनों में नववधुएं मायके में जाने को व्याकुल होती हैं। ऐसे में उसे सखियों के साथ बिताए पल याद आते हैं, खास कर ‘सावन के झूले!’
भक्ति और समृद्धि से समाहित यह खुशहाल समां सबको आनंद विभोर करता है। उसकी जलधाराओं के नृत्याविष्कार में ‘ॐ नमः शिवाय’ और नन्हें बाल गोपाल की किलकारियाँ प्रतिध्वनित होती हैं। आइए, इस हरित ऋतु का प्रेमोल्लास से स्वागत करें।
© डॉक्टर मीना श्रीवास्तव
ठाणे
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≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈