डॉ प्रतिभा मुदलियार 

(डॉ प्रतिभा मुदलियार जी का अध्यापन के क्षेत्र में 25 वर्षों का अनुभव है । वर्तमान में प्रो एवं अध्यक्ष, हिंदी विभाग, मैसूर विश्वविद्यालय। पूर्व में  हांकुक युनिर्वसिटी ऑफ फोरन स्टडिज, साउथ कोरिया में वर्ष 2005 से 2008 तक अतिथि हिंदी प्रोफेसर के रूप में कार्यरत। कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत।  इसके पूर्व कि मुझसे कुछ छूट जाए आपसे विनम्र अनुरोध है कि कृपया डॉ प्रतिभा मुदलियार जी की साहित्यिक यात्रा की जानकारी के लिए निम्न लिंक पर क्लिक करें –

जीवन परिचय – डॉ प्रतिभा मुदलियार

आज प्रस्तुत है डॉ प्रतिभा जी का बंजारा लोक गीतों के सांस्कृतिक अध्ययन पर एक शोधपरक आलेख बंजारा लोक गीतों का सांस्कृतिक अध्ययन। यह आलेख आपको बंजारों के लोकगीतों के माध्यम से उनके जन-जीवन के महत्वपूर्ण पहलुओं से भी अवगत कराने का प्रयास करेगा। हम भविष्य में आपसे ऐसे ही सकारात्मक साहित्य कि अपेक्षा करते हैं। इस अतिसुन्दर आलेख के लिए आपकी लेखनी को सादर नमन। )

☆ बंजारा लोक गीतों का सांस्कृतिक अध्ययन ☆

भारत देश में कई सारी लोकसंस्कृतियाँ हैं। लोक संस्कृति को लोग साधारणतया ग्रामीण संस्कृति का पर्याय मानते हैं। जबकि यह उन सभी लोगों की संस्कृति है जो किसी समुदाय का हिस्सा है, जिनकी अपनी कुछ मान्यताएं तथा परंपराएं हैं। बंजारा संस्कृति भी भारत की एक महत्वपूर्ण संस्कृति है और जिसकी अपनी एक भाषा तो है किंतु न तो उसकी अपनी कोई लिपि है और ना ही कोई उसका अपना कोई व्याकरण। फिर भी इनके गीत और कथाएं आज भी मौखिक रूप में जीवित है। इनकी संस्कृति में समय के साथ कुछ बदलाव तो आते रहे हैं किंतु इनके लोकगीतों में कभी ठहराव नहीं आया है। वे किसी नदी की धारा के समान निरंतर प्रवाहमान रहे हैं, जिसमें उसकी अपनी एक सुगंध भी होती है। उनके गीतों से उनकी संस्कृति की छवियाँ साकार होती रही है।

बंजारा वह व्यक्ति है, जो बैलों पर अनाज लादकर बेचने के लिए एक स्थान से दूसरे स्थान जाता है।  इन बंजारों का कोई ठौर ठिकाना नहीं होता ना ही कोई घर द्वार। अपना पूरा जीवन वे यायावार, घुम्मकड्ड बनकर रह जाते हैं। इनका किसी स्थान विशेष से कोई लगाव नहीं होता। सदियों से यह समाज देश के दूर दराज इलाकों में निडर होकर यात्राएँ करता रहता है।

बंजारों का मूल लगभग सभी इतिहासकारों ने राजस्थान को ही माना है।  बंजारा समाज भारत के प्रत्येक प्रांत में अनेक नामों से जाना जाता है, जैसे महाराष्ट्र में बंजारा, कर्नाटक में लमाणी, आंध्र में लंबाडा, पंजाब में बाजीगर, उत्तर प्रदेश में नायक । अनादि काल से यह समाज व्यापार करता रहा था। तब से इस जाति को वाणिज्यकार के नाम से संबोधित किया जाता है। वाणिज्य शब्द को हिंदी में वणज कहा जाता है तथा बनज से ही बनजारा शब्द की व्युत्पत्ति हुई है। बणजारा शब्द मुक्त जीवन के प्रतीक के रूप में प्रयुक्त किया जाता है, आप को हिंदी गीत की वह  पंक्तियाँ तो याद ही होगी,

ईक बणजारा गाये, जीवन के गीत सुनाये

हम सब जीनेवालों को जीने की राह सिखाए।

कर्नाटक की कई जातियों में बंजारा प्रमुख हैं। रंगीन आकर्षक पहनावे और गहनों से अलंकृत इन बंजारा स्त्री पुरूषों में उनकी संस्कृति प्रतिबिंबित होती है। उत्तर भारत के राजस्थान मूल के ये लोग भारत के कोने कोने में फैले हुए हैं और समूचे भारत में इन्हें बंजारा के नाम से पहचाना जाता है। इनकी विशिष्ट वेशभूषा, भाषा, संस्कृति, रहन सहन आदि में अधिक समानता है।

जिस प्रकार किसी भी शुभ कार्य के प्रारंभ में मंगलाचरण होता है, भगवान से प्रार्थना की जाती है वैसे ही बंजारों में प्रार्थना की जाती है। इसके लिए भी एक गीत है,

ये पणि जे पणि

गंगा पणि सरसती

निरंकार तू हर जे बोलो।

उपर्युक्त प्रार्थना के अनुसार गंगा सरस्वती का परिसर ही बंजारा संस्कृति का मूल बस्ती स्थान है। बंजारा समाज में नारियों को भी ‘हरपळी’ कहा जाता है। ‘हरपळी’ का बंजारा बोली में अर्थ- हडप्पा की रहनेवाली। इस संदर्भ में यह गीत दिखाई देता है।–

मारा हरपळी याडी

मारी हरपळी बाई

मार हरपळ नायकन

बंजारा संस्कृति में ज्यादातर लोग गाय-बैलों का ही व्यापार करते थे। जिस कारण बंजारा समाज को ‘गोर समाज’ भी कहा जाता है। हडप्पा संस्कृति के लोग भी खेती, व्यापार करते थे। इससे स्पष्ट होता है कि, बंजारा जाति यह सिंधु संस्कृति तथा हडप्पा संस्कृति के काल की रही है। सिंधु संस्कृति की बहुत सारी मान्यताएँ बंजारा संस्कृति में दिखाई देती हैं।

एक सर्वे के अनुसार कर्नाटक में बंजारों की जनसंख्या 44,72.000 है और इनको परिशिष्ट जातियों में वर्गीकृत किया गया है। बेलगाँव डिविजन में जिसमें बागलकोट, वेलगाव, विजापुर, धारवाड, गदग, हावेरी और उत्तर कन्नड इलाको में इनकी संख्या रगभग 14 से 15  लाख  तक मानी गयी है। इनकी बस्तियाँ शहर से दूर होने के कारण शिक्षा, बिजली, सडक, जल आदि सुविधाएं इन तक  बहुत कम पहुँचती हैं। ये लोग अपने अपने तांडों में रहने के कारण भी इन्होंने अपनी भाषा और संस्कृति  को सुरक्षित रखा है।  ये लोग अपनी भाषा को गोरबोली, बंजाराभाषा या लमाणी भाषा कहते हैं।  कर्नाटक में इनकी भाषा पर मराठी और कन्नड का प्रभाव विशेष रूप से दिखाई देता है।  इस भाषा की अपनी कोई लिपि तो नहीं है। किंतु देवनागरी लिपि का प्रयोग आज उनके साहित्य के लिखित रूप के लिए किया जा रहा है।

इनका साहित्य विशाल और वैविध्यपूर्ण है। बंजारा लोगों को कर्नाटक में लम्बानि या लमाणि के नाम से जाना जाता है। इनके कबिलों को तांडा कहा जाता है। ये स्वयं को राजपुतों के वंशज मानते हैं और हिंदु धर्म का ही परिपालन करते हैं। अतः विशिष्ट अनुष्ठानों, तीज, त्योहारों में इनकी जुँबा पर अपने आप कुछ विशेष गीत आने लगते हैं। इनमें जन्म से लेकर मृत्यु तक विभिन्न अवसरों पर गीत गाए जाते हैं।  इनको संस्कार गीत कहा जाता है। ये उनके जीवन का अभिन्न अंग है। ये गीत लिपिबद्ध नहीं है। इनमें जो गीत गाए जाते हैं उनके कुछ विशिष्ट नाम भी हैं जैसे एकळपोयेर या वदाओं ( पुत्र जन्म से संबंधित), वळंग (मुंडन के समय का गीत), धुंड गीत ( होली के समय सुखमय जीवन की कामना का गीत), इसके अलावा देवी देवताओं से मिन्नत मांगने के लिए भी गीत गाए जाते हैं, इनमें तुलजा भवानी. सीतलामाता  प्रमुख हैं। विवाह के समय मंगलगीत, प्रेमगीत, छेडछाड गीत, ढावलों तथा हवेली आदि गीत भी गाए जाते हैं।  दूसरी  ओर कटाई, बुआई करते समय, चक्की पीसते समय आदि विभिन्न अवसरों पर भी गीत गाए जाते हैं।

इनके गीतों में मुग्धता, भोलापन, मादकता, मधुरता तो है ही साथ ही जीवन के प्रति आस्था भी है।  लय, ताल इनके गीतों की विशेषता है। ये गीत मौखिक होने के कारण इनका लिखित रूप नहीं मिलता और पीढि दर पीढि एक मूँह से दूसरे मूँह तक पहुँचते समय इनमें काफी परिवर्तन भी हो जाता है। इनके गीतों में व्याकरण का ध्यान नहीं रखा जाता।  इन गीतों का किसी व्यक्ति के नाम से गीत का कोई पेटेंट नहीं होता। लोग बस यह मौखिक परंपरा बनाए रखते हैं। बंजारों के गीत लिखित रूप में संकलित नहीं है। वह संगोष्ठियों, शोध कार्य आदि के कारण कुछ संकलित रूप में हमारे सामने आ रहे हैं। इन गीतों के लिए देवनागरी लिपि का प्रयोग कर लिखित रूप दिया जाता है। महाराष्ट्र में मराठी के प्रभाव से हिंदी प्रदेश में हिंदी के प्रभाव से यह संकलित किए जा रहे हैं। इसलिए यह अल्पज्ञात है जिसे लिखित रूप में सामने लाया जा रहा है।

बंजारा लोक साहित्य में लोकगीत शीर्ष पर हैं। सर्वप्रिय भी है। इन लोकगीतों में एकजीवन पद्धति है, संस्कार है, संस्कृति है और जीवन दर्शन भी है। इन लोकगीतों में तीज-त्योहार, जन्म मृत्यु, सुख-दुख, प्रकृति- परिश्रम, नीति-भक्ति आदि से संबंधित भाव विचार मिलते हैं। इन गीतों में अभिव्यक्त संस्कृति का अध्ययन यहाँ प्रस्तुत है।

संस्कार गीत बंजारों में विशेष महत्व के हैं। जन्म, नामकरण, मुंडन, विवाह और मृत्यु आदि से संबंधित संस्कार बंजारा समुदाय में परंपरागत रूप से आचरण में लाए जाते हैं और ऐसे समय कुछ संस्कार गीत भी गाए जाते हैं। इनमें एक जो महत्वपूर्ण गीत है जिसे एकळपोयु गीद कहा जाता है। यह गीत पुत्रजन्म के अवसर पर गाया जाता है। बंजारों के परिवार में पुत्र का जन्म किसी उत्सव से कम नहीं होता है। इस पुत्र को सेवाभाया कहा जाता है। पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं,

‘सेवाभाया जलमों येघर दूयों वजाळो/ भगवान जलमों येघर हूयो वजाळो।

याडि बापूरि आसिस ये बेटा जलमों ये/ देवू, धरमूरि आसिस ये बेटा जलमो ये।

आचि आचि घडी ये सूरज्या जलमों ये/ छटीमातार आसिस ये याडी घडी ये।

चांदा सूरजोरी उमर ये बेटान आसिस ये। माँ-बापेरि रे छडिवेन रिसतू/

सेवाभायार आसिस तोनरे बेटा/ भगवानेर आसिस तोनरे बेटा’।[1]

यह एक प्रकार का प्रार्थना गीत है जिससे बच्चे को भगवान का आशीर्वाद प्राप्त हो सकें। इस गीत में  बच्चा बडा होकर अपने माता पिता तथा समाज के रक्षक बनने की प्रार्थना की जाती है। इसमें आनेवाले प्रतीक, रूपक तथा लय आदि अर्थपूर्ण होते हैं। इन गीतों के माध्यम से बंजारों का अभिव्यक्ति सौंदर्य तथा उनकी कल्पनाशीलता को देखा जा सकता है। पुत्र जन्म पर होनेवाली खुशी इतनी है कि उनको लगता है जैसे सारा घर सूर्य के प्रकाश से भर गया है। इस गीत में वजाळो, बापूरि, आचि आचि घडी,  आसिस ये शब्द हिंदी और मराठी से प्रभावित है। उजालो – वजाळो, अच्छि- आचि, घडी- क्षण, आसिस- आशिष।

उनका एक अन्य गीत ‘दळना धोकायेरो’ कहलाता है। जिसमें बंजारा लोग जन्म के बाद ‘छठी मता’ की आराधना करते हैं। उसके बाद बच्चे को पालने में डालने की रस्म की जाती है जिसे ‘छोरान तोटलाम घोलेरो’ का कहा जाता है। इस गीत की कुछ पंक्तियाँ द्रष्टव्य है

वेमाता हासती हासती आयेस।/ रोती रोती जायेस।।

लेपो, लावण लेन पर जायेस। /सुवो सुतळी लेन आयेस।।

वेमाता हालन फूलन रकाडेस / सण ढेरो लेन आयेस

वेमाता सुई दोरा लेन पर जा लेन जायेस / सण सुतळी सुवो लेन आयेस।

इस गीत में स्त्री वेमाता अर्थात प्रसुता से हंसते हँसते घर आने को तथा रोते रोते जाने को कह रही है। इस गीत में लेपो -लावण तथा सुई-धागा शब्दों का प्रयोग बहुत ही उल्लेखनीय है। लेपो लावण बंजारा स्त्रियों के लहंगे  को कहते हैं। सुई धागा लमाणी महिलाओं के जीवन से जुडा अहम हिस्सा है।  इस गीत की यह पंक्तियाँ कि हँसते आना और रोते जाना भी विशेष उल्लेखनीय है जिसका अर्थ है यदि लडकी का जन्म हो तो तुम यहाँ से रोते जाना और पुत्र का जन्म हो तो हँसते आना। ‘बंजारों में भी बेटी का जन्म भी संभवतः बोझ माना जाता रहा होगा जैसा की अन्य समुदायों में भी है’।[2] कारण बेटी के जन्म पर पिता को उसकी शादी ब्याह की चिंता रहती है।

‘छोरोम धुंडेरो’ नामक एक और रस्म है जिसमें बच्चे का नामकरण किया जाता है। ‘बाळलट्टा काढेरो’ नामक संस्कार मुंडन संस्कार है।

विवाह संस्कार में प्रत्येक अवसर पर इनके यहाँ गीत है। जिसमें सगाई से लेकर विवाह संपन्न होने तक के विविघ विधि विधान हैं, जिसपर उनके गीत हैं और इन गीतों में उनकी संस्कृति भी झलकती है। इन गीतों में उनके भाव भी है और पारंपरिक नृत्य भी। इनके विदाई के अवसर पर जो गीत गाए जाते हैं उसमें दुल्हन के मनोभाव अभिव्यक्त होते हैं। वह अपने माता, पिता, भाई, सखियाँ तथा तांडा के नायकों से संबोधित करते हुए अपने मन के भाव व्यक्त करती है और पराए घर जाने का दुख व्यक्त करती है। कितुं इस गीत की जो सबसे बडी सांस्कृतिक विशेषता यह  है कि दुल्हन हवेली से, गाय, बैल, बकरी से संबोधित करती है और उनसे बिछुडन का दर्द उसके गीतों में झलकता है, द्रष्टव्य है,

हवेली ये आँ हियाँ..

तोती छुटो धोळो घन/ मोतो छुटो मारे जे

बापुरो बंगला आँ हियाँ…

वेसु  तो सो कांसेरी वाळ न लाग

काडी काडी कर सासी  ये माया जोडी

xxx

ये हवेली ये आँ हियाँ…

दूध,घी ये रो कालवा चलायेस

अन धनेरी कमी नवेस पाणी पावसेरी

कमी न वेस

ये हवेली ये आँ हियाँ…

गुरु र आसिस देस ये

ये हवेली आँ हियाँ

यह एक बहुत ही लंबा गीत है। किंतु इसमें मैंने उन्हीं पंक्तियों को लिया है जिसमें मुझे बंजारा संस्कृति की कुछ भिन्न विशेषता नज़र आयी।  दुल्हन अपनी विदाई के समय हवेली के प्रति हित की कामना करती है कि यहाँ जिस नगर में मेरे पिता की हवेली है वहाँ दूध घी की नदियाँ बहे, वहाँ अन्न. धन और पानी की  कभी कमी ना आए और इन पर गुरु का आशिष बना रहें। इसमें ‘पानी की कमी कभी ना हो’ इसमें जो विशिष्ट गर्भितार्थ है। बंजारो का निवास स्थान प्रमुखता से राजस्थान है, जो रगिस्तानी इलाका है। जहाँ पानी की कमी होती है। रेगिस्तान में बदरी का घिर आना और पानी का गिरना आहोभाग्य होता है। दुल्हन की चाहत है कि उसके पिता की नगरी में कभी पानी की कमी ना हो।

मनुष्य जीवन का अंतिम पडाव मृत्यु इस अवसर पर भी एक गीत उपलब्ध हैं। यह गीत शोक गीत है।  किंतु इनमें एक जो उल्लेखनीय है वह यह कि तांडा के नायक अंतिम संबोधिन, वह कहता है,

सामळो भाईयो

गोरमाटी मा एत कावत छ

जिवतेन बाटी

मूयेन माटी

इ जग रूढी छ करन म

रोवामत सासो करोमत

करन केरोचू भाईयों।। [3]

तांडा नायक सभी को संबोधित कर कहता है कि हम सब जानते हैं कि बंजारों में एक कहावत है कि जीवित को बाटी  (रोटी) मृतक को मिट्टी। यह तो संसार का दस्तुर ही है, इसलिए रोना नहीं है।

बंजारों में जीवन के विभिन्न अवसरों पर किए जानेवाले विधिविधानों के अवसरों पर जो गीत गाए जाते हैं उनसे एक बात निश्चित रूप से ज्ञात होती है कि  इन गीतों में  जहाँ खुशी है, उपदेश है वहीं शोक  भी है। वहीं दूसरी ओर कलात्मकता की दृष्टि से इन गीतों में ताल और लय के साथ गीतात्मकता है।  पहाडी नदी सा उबड खाबडपन है किंतु उसका अपना प्राकृतिक सौंदर्य भी है जो अपनी सहजता से सबको आकर्षित करती है।

संस्कार गीतों के अलावा बंजारों के धार्मिक गीत भी होते हैं।  इन गीतों में प्रार्थना, स्तुति, भजन तथा उपदेशपरक गीतों का समावेश होता है। ये लोग प्रकृति पूजक होने के कारण वे प्रकृति को ही अपना ईश्वर मानते हैं और सर्वप्रथम प्रकृति की स्तुति करते हैं। उसके बाद बंजारा लोग संत सेवालाल, तुळजाभवानी, मरिमाया, जगदंबा आदि के प्रति अपना भक्तिभाव व्यक्त करते हैं।  देवी के प्रति उनकी भक्ति भावना उल्लेखनीय है।  इस संदर्भ में डॉ. वी. सी रामकोटी ने कहा है कि, बंजारा मुख्य रूप से देवी के उपासक हैं। विभिन्न प्रांतों में बसे हुए बंजारें मेराना माडी (देवी) की पूजा करते हैं। कुछ देवियाँ तांडे में पूजी जाती है और कुछ देवियाँ जंगलों में या खेतखलिहानों में पूजी जाती है। ये लोग देवी ( माउली) को व्यक्तिगत रूप से पूजते हैं और सार्वजनिक रूप से भी।[4] इनके धार्मिक लोक गीतों में मानवता, बंधुता, लोक कल्याण, समता आदि को विशेष महत्व दिया गया है। इनकी लोक कल्याण की भावना मुझे अथिक भा गयी, जिसमें वे सेवालाल के प्रति अपने  को समर्पित करते है और सकल जीवों के प्रति ‘सेन साई वेस’ (सबको सुखी रखना) की मंगल कामना करते है। जिसमें जीव जन्तुओं के साथ संपूर्ण मनुष्य जाति का समावेश है। गीत के प्रारंभ में ये लोग तुळजा भवानी से अपनी चूक भूल माफ करने की प्रार्थना करते हैं और सबको सुखी रखने की प्रार्थना करते हैं। अंत में कहते हैं,

जिन्दगीर नैया पार लगायेस

अन ई – पूजा तारे देवळेम मंजूर करलेस याडी।

सा…ई… वेस.. याडी साहेबानी।

बंजारा समाज में तीज त्योहारों के समय भी खूब गीत गाए जाते हैं।  इनके महत्वपूर्ण त्योहार है, दीवाली, दशहरा, होली और गणगौर। दीवाली और होली ये प्रमुख त्योहार है। हिंदुओं की तरह ये भी इन दोनों त्योहारों का उत्साह के साथ मनाते हैं। बंजारे दीवाली को दवाळी या काली अमावस कहते  हैं। इस दिन वे बकरे की बलि देते है। दिवाली होली के संबंध में इनका लोक गीत है,

होळी- दवाळी दोई भनेडी

होळी को मांग छळहाक बोकडो

दवाळी तो मांग झगमग दिवळो

होळी आती ते, गेरियान बेटा गे जाती

दवाळी आती तो बळदान सक दे जाती।

बंजारों  में श्रृगार, देशभक्ति, श्रम  तथा प्रकृतिपरक अन्य गीत भी हैं।  जिसमें शब्द  का स्वाभाविक सौदर्य है। गीतात्मकता के साथ भाव सौंदर्य भी है।

इन सारे लोकिगीतों में अभिव्यक्त संस्कारों का जीवन में बडा महत्व है। मानव इन संस्कारों के द्वारा जन्मजात अपवित्रताओं से छुटकारा पाकर सच्चे मनुष्यत्व को प्राप्त करता है। संस्कारों के विधान के पीछे यही दृष्टिकोण लोकगीतों में समाहित है। लोकगीतों में लोकमानस की सहज अभिव्यक्ति होती है। लोकगीतों के पीछे सामाजिक परंपरा होती है। मानवीय मूल्य और सम्मान का भाव छिपा रहता है। इसप्रकार हम देखते हैं कि लोकगीत की भावसंगती सूपर्ण लोक की मंगलकामना के रूप में उद्भाषित नजर आती है।

इनके लोकगीतों का अध्ययन करते समय एक बात विशेष रूप से ध्यान में आयी वह यह है कि इनकी भाषा में कई सारे शब्द मराठी, पंजाबी और हिंदी से प्रभावित है।  जिस क्षेत्र में रहते हैं उस भाषा का प्रभाव इनकी भाषा पर हो जाता है। कई शब्द क्षेत्रिय भाषा से प्रभावित हो जाते है और उनका प्रयोग भी अनायास उनकी भाषा में होने लगता है। उसीप्रकार वाक्यसंरचना भी प्रभावित हो जाती है। जैसे उदाहरण को लिए ऊपर एख संस्कार का उल्लेख किया छोरोम तोटलाम घालेरो। जहाँ तक मुझे लगता है तोटलाम और घालेरो दोनों शब्दों पर मराठी भाषा का प्रभाव है। मराठी में झुले के लिए लोकभाषा में ‘तोटला’ कहा जाता है और ‘डालना’ (क्रिया)  के लिए ‘घालणे’  (क्रिया) शब्द का प्रयोग किया जाता है।

बंजारों मे केवल गीत भी नहीं है उनकी लोकथाएं भी हैं। ये लोकगीत तथा लोककथाएँ मौखिक ही रही हैं। उनकी अपनी कोई लिपि नहीं है ना ही कोई व्याकरण। कुछ लोगों ने इनके मौखिक साहित्य का अध्ययन किया है और उनको लिपिबद्ध करने का प्रयास कर रहे हैं।  इनमें कर्नाटक में एक नाम विशेष हैं और वह है प्रो.  हेगप्पा लमाणी और दूसरे है डॉ. गुलाब राठोड जिन्होंने इस लिपिबद्ध किया है। मुझे लगता है, बंजारों का  जो मौखिक साहित्य इतनी मात्रा में उपलब्ध है उनका प्रतिलेखन देवनागरी लिपि में कर उसको सुरक्षित करने की आवश्यकता है। जिससे अध्ययन के, शोध के कई आयाम खुल सकते हैं। केवल इतना ही नहीं बल्कि इस भाषा के प्रलेखन से हमें इस समुदाय के सांस्कृतिक, सामाजिक स्वरूप को भी परिचय हो जाएगा। भारत जैसे बहुभाषाभाषी तथा बहुस संस्कृति देश में ऐसी अल्पज्ञात भाषाओं को सुरक्षित करना आवश्यक है।

 

©  डॉ प्रतिभा मुदलियार

प्रोफेसर एवं अध्यक्ष, हिंदी अध्ययन विभाग, मैसूर विश्वविद्यालय, मानसगंगोत्री, मैसूर 570006

दूरभाषः कार्यालय 0821-419619 निवास- 0821- 2415498, मोबाईल- 09844119370, ईमेल:    [email protected]

 

❃❃❃❃❃❃❃❃❃❃

[1] बंजारा लोकगीत – ड़ा. गुलाब राठोड – पृ -21 लेखनी प्रकाशन, नई दिल्ली

[2]  The art and literature of Banjara’s – A socio- cultural study. Dhansing B Nayak – Page -17

[3]  बंजारा लोकगीत – डॉ गुलाब राठोड –लेखनी, नई दिल्ली –पृ 71

[4] बंजारा लोकगीत  डॉ, वी. रामकोटी – पृ -84

 

संदर्भ ग्रंथ

  • बंजारा लोकगीत – डॉ गुलाब राठोड
  • बंजारा लोकगीत – डॉ. वी.टी रामकोटी
  • The art and literature of Banjara’s – A socio- cultural study. Dhansing B Nayak

 

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