श्री अरुण कुमार डनायक
(श्री अरुण कुमार डनायक जी महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ प्रत्येक बुधवार को आत्मसात कर सकें। प्रस्तुत है 23 फ़रवरी को आदरणीय कस्तूरबा गाँधी जी की पुण्य तिथि पर विशेष आलेख “’बा’ की पुण्यतिथि पर स्मरण”)
☆ आलेख ☆ ‘बा’ की 74वीं पुण्यतिथि पर स्मरण ☆ श्री अरुण कुमार डनायक ☆
23 फ़रवरी को बा की 74वीं पुण्यतिथि थी।
गांधीजी जब दक्षिण अफ्रीका में 1907के दौरान सत्याग्रह कर रहे थे तब स्त्रियों को भी सत्याग्रह में शामिल करने की बात उठी। अनेक बहनों से इस संबंध में चर्चा की गई और जब सबने विश्वास दिलाया कि वे हर दुःख सह कर भी जेल यात्रा करेंगी तो गांधी जी ने इसकी अनुमति उन सभी बहनों को दे दी। लेकिन बहनों के जेल जाने की चर्चा उन्होंने अपनी पत्नी कस्तूरबा से नहीं की। बा को भी जब सारी चर्चा का सार पता चला तो उन्होंने गांधी जी से कहा ” मुझसे इस बात की चर्चा नहीं करते, इसका मुझे दुःख है। मुझमें ऐसी क्या खामी है कि मैं जेल नहीं जा सकती। मुझे भी उसी रास्ते जाना है, जिस रास्ते जाने की सलाह आप इन बहनों को दे रहे हैं।”
गांधीजी ने कहा “मैं तुम्हें दुःख पहुंचा ही नहीं सकता। इसमें अविश्वास की भी कोई बात नहीं। मुझे तो तुम्हारे जाने से खुशी होगी; लेकिन तुम मेरे कहने से गई हो, इसका तो आभास तक मुझे अच्छा नहीं लगेगा। ऐसे काम सबको अपनी-अपनी हिम्मत से ही करने चाहिए। मैं कहूं और मेरी बात रखने के लिए तुम सहज ही चली जाओ और बाद में अदालत के सामने खड़ी होते ही कांप उठो और हार जाओ या जेल के दुःख से ऊब उठो तो इसे मैं अपना दोष तो नहीं मानूंगा ; लेकिन सोचो मेरा हाल क्या होगा! मैं तुमको किस तरह रख सकूंगा और दुनिया के सामने किस तरह खड़ा रह सकूंगा? बस, इस भय के कारण मैंने तुम्हें ललचाया नहीं?”
बा ने जवाब दिया ” मैं हारकर छूट जाएं तो मुझे मत रखना। मेरे बच्चे तक सह सकें, आप सब सहन कर सकें और अकेली मैं ही न सह सकूं, ऐसा आप सोचते कैसे हैं? मुझे इस लड़ाई में शामिल होना ही होगा।”
गांधीजी ने जवाब दिया ” तो मुझे तुमको शामिल करना ही होगा। मेरी शर्त तो तुम जानती ही हो। मेरे स्वभाव से भी तुम परिचित हो। अब भी विचार करना हो तो फिर विचार कर लेना और भली-भांति सोचने के बाद तुम्हें यह लगे कि शामिल नहीं होना है तो समझना, तुम इसके लिए आजाद हो। साथ ही, यह भी समझ लो कि निश्चय बदलने में अभी शरम की कोई बात नहीं है।”
बा ने जवाब दिया ” मुझे विचार-विचार कुछ भी नहीं करना है। मेरा निश्चय ही है।”
तो ऐसी दृढ़ संकल्प की धनी थी बा, जिन्होंने बापू का कठिन से कठिन परिस्थितियों में साथ दिया। बापू को जो सारे सम्मान मिले उसके पीछे मेहनत बा की ही थी और इसे गांधी जी ने स्वयं सार्वजनिक रूप से स्वीकार किया।
बा का निधन 22फरवरी 1944को आगा खान पैलेस पूना में हुआ, जहां वे बापू और महादेव देसाई के साथ कैद थी। बा ने अंतिम श्वास तो बापू की गोदी में सिर रख कर ली।
? उनकी 74वीं पुण्य तिथि पर शत शत नमन ?
© श्री अरुण कुमार डनायक
42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39