श्री अजीत सिंह
(हमारे आग्रह पर श्री अजीत सिंह जी (पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन) हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए विचारणीय आलेख, वार्ताएं, संस्मरण साझा करते रहते हैं। इसके लिए हम उनके हृदय से आभारी हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय आलेख ‘बिन इंटरनेट सब सून!’। हम आपसे आपके अनुभवी कलम से ऐसे ही आलेख समय समय पर साझा करते रहेंगे।)
☆ आलेख ☆ बिन इंटरनेट सब सून! ☆ श्री अजीत सिंह, पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन ☆
तीन दिन इंटरनेट बंद क्या हुआ, सब कुछ फीका फीका सा लग रहा था। व्हाटसएप पर देश भर से जुड़ने वाले दोस्तों से मुलाकात ही नहीं हुई। बार बार चैक कर रहे हैं कि नेट आया कि नहीं।
सुबह सुबह मिलने वाले दोस्तों के गुड मॉर्निंग संदेश नहीं मिल रहे थे। जब मिलते थे तो कहते थे, इनकी रोज़ रोज़ क्या ज़रूरत है। सारी मेमोरी खा जाते हैं। ज़्यादातर वक्त तो फ़िज़ूल से लगने वाले मेसेज डिलीट करने में ही लग जाता था। नेटबंदी में नहीं आए तो इनका इंतजार सा हो रहा था। कुछ मित्र सुबह प्रेरक संदेश भेजते थे, वो भी नहीं मिले। एक मित्र रंग बिरंगे पक्षियों के चित्र भेज कर मन खुश कर देते थे। अब बस उनकी यादें हैं।
ज़िन्दगी की गति जैसे ढीली पड़ गई थी। हम अपने मनपसंद साइट टेड टाक्स से भी नहीं जुड़ सके। जो मेसेज आते हैं हम उनमें से कुछ सेव करके रख लेते हैं। उन्हे दोबारा पढ़ कर कुछ चैन मिला।
वक्त जैसे पांच साल पीछे चला गया था जब हमने स्मार्टफोन लिया था और इसके साथ ही हम वॉट्सएप और फेसबुक से जुड़ गए थे।
इसी के सहारे हम एक ऐसे ग्रुप से जुड़ गए जहां सर्विस के दौरान साथ रहे मित्र फिर आन मिले थे अपनी वे कहानियां और किस्से लेकर जिन्हे हमने सर्विस कैरियर में भी नहीं सुना था। खूब जन्मदिन व शादी की साल गिरह मनाते थे। तीन दिन से कुछ नहीं मनाया था।
सर्विस वाले ही क्यूं, कुछ कॉलेज व यूनिवर्सिटी के दोस्त भी करीबन 50 साल बाद ढूंढ लिए थे हमने। हां एक स्कूल वाला दोस्त भी मिल गया 60 साल पुराना। लंबे समय से परिचित इन दोस्तों से असली पहचान तो अब हुई थी। उनकी विचारधारा और छुपे गुणों का पता तो अब चला। कई छुपे रुस्तम निकले तो कई बस फॉरवर्ड करने वाले ही थे। पर सभी प्यारे थे। मैं कुछ मित्रों से इतना प्रभावित हुआ कि मैंने उन पर लेख भी लिख दिए। स्मार्टफोन और इंटरनेट ने मेरे लेखन को बहुत तराशा है। मित्रों से मिली प्रशंसा उत्साहवर्धन करती है।
पांच साल पहले मैं साहित्यकारों के एक ग्रुप से जुड़ा। मैं शाम को सोने से पहले और सुबह उठते ही मैं साहित्यिक रचनाएं ही पढ़ता था।
अखबार तो बासी से लगने लगे थे। हर ताज़ा समाचार अलर्ट के साथ वॉट्सएप पर मिल जाता था।
इंटरनेट हमारे जीवन का अभिन्न अंग बनता जा रहा है। इसीलिए लगता है, बिन इंटरनेट सब सून। इंटरनेट अलग किस्म का जनसंचार, मास मीडिया, है। अखबार, रेडियो, टेलीविजन बहुत हद तक एक तरफ साधन है। आपको संदेश सुनाए, पढ़ाए, दिखाए जाते हैं। दर्शक, पाठक, श्रोता की कोई खास सुनवाई नहीं होती। इंटरनेट पर आप जो चाहें उसे गूगल से ढूंढ कर पा सकते हैं, अपनी पसंद के मुताबिक। जिससे चाहें उससे बात करें, या फिर ग्रुप छोड़ दें। पर यहां भी विवेक की ज़रूरत है, वर्ना लुभावने संदेश आपके मन मस्तिष्क को काबू कर लेंगे। आपकी पसंद नापसंद का पता लगा कर आपकी सोच और जेब दोनों खाली कर देंगे। आपकी स्वतंत्रता छीन लेंगे, आपको भीडतंत्र का हिस्सा बना देंगे, केवल नारे लगाने के लिए।
करीबन दस साल पहले जब अरब देशों में अरब बसंत नाम के आंदोलन चल रहे थे और सरकारों ने इंटरनेट की सुविधा बंद कर दी थी तो उस वक्त अमेरिका की तत्कालीन विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन का बयान आया था कि संपर्क करने का अधिकार संयुक्त राष्ट्र के चार्टर में मूलाधिकार के रूप में शामिल किया जाना चाहिए। इंटरनेट किसी खास मुद्दे को लेकर समर्थकों के विशाल समुदाय खड़े कर सकता है। ये समुदाय किसी भी सरकार के लिए उसकी किसी नीति या उसके अस्तित्व तक पर सवाल खड़े कर सकता है।
टेक्नोलॉजी के विस्तार के साथ अब दुनिया की हर घटना की जानकारी लाइव सभी के पास पहुंच जाती है। भारत में लालकिले पर किसानों के एक गुट द्वारा उपद्रव हो या अमेरिका में ट्रंप समर्थकों द्वारा वहां की संसद में घुसकर तोड़फोड़, सबकुछ दुनिया भर में उसी समय पहुंच जाता है जिस समय यह घटित हो रहा होता है। इस स्थिति में आंदोलन और भी भड़क सकता है या फिर यहीं से इसका पतन भी शुरू हो सकता है।
प्रजातंत्र एक धीमी प्रक्रिया है। पूर्ण बहुमत की सरकार भी अपने चुनाव पूर्व घोषित कार्यक्रम को फिर से जनमत बनाए बिना लागू नहीं कर सकती। विपक्ष चाहे वह किसी भी दल का हो, वह सत्तारूढ़ दल के खिलाफ हर मुद्दे पर विरोध करता ही रहता है। प्रजातंत्र में यह नैतिक अभाव रहता ही है, विरोध केवल विरोध के लिए। अत: पूर्ण बहुमत के बावजूद सत्ता दल को विपक्ष को साथ लेकर चलना ही पड़ता है।
पिछली सदी में साम्यवादी व्यवस्था से दुनिया के अनेक देशों ने भारी तरक्की की पर मानवीय मूल्यों और स्वतंत्रता के मुद्दों की अनदेखी के कारण सोवियत संघ के विघटन के बाद आज दुनिया के लगभग दो तिहाई देशों में प्रजातंत्र व्यवस्था काम कर रही है हालांकि इसका स्वरूप एक समान नहीं है। पूंजीवादी व्यवस्था प्रजातांत्रिक व्यवस्था का अभिन्न अंग है। अमेरिका व यूरोपीय देशों ने इसी व्यवस्था के तहत तेज़ तरक्की की है। पर इस व्यवस्था का भी एक गंभीर दोष सामने आ रहा है। समाज की पूंजी कुछ एक अमीर घरानों के पास इकट्ठी हो रही है। अमीर अधिक अमीर होता जा रहा है और गरीब अधिक गरीब। लगता है दोनों ही व्यवस्थाएं फेल हो रही हैं और कोई नया विकल्प भी नहीं सूझ रहा। विभिन्न देशों में उभरे आंदोलन इसी विफलता की निशानी हैं।
नागरिक स्वतंत्रता भी बनी रहे और तेज तरक्की भी हो जिसके लाभ सभी तक समान रूप से पहुंच सकें, ऐसी व्यवस्था की ज़रूरत है पर यह कैसे संभव होगी यही लाख टके का सवाल है। मेरी निजी राय है कि अनेक अन्य देशों की तुलना में भारत कुल मिलाकर विकास और नागरिक आज़ादी की व्यवस्था का एक अच्छा उदाहरण है पर राजनैतिक दलों में पारस्परिक सद्भाव की कमी अक्सर खेल बिगाड़ देती है।
© श्री अजीत सिंह
पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन
संपर्क: 9466647037
≈ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈