श्री राकेश कुमार
(ई- अभिव्यक्ति में श्री राकेश कुमार जी का स्वागत है। भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।”
आज प्रस्तुत है स्मृतियों के झरोखे से अतीत और वर्तमान को जोड़ता हुआ एक आलेख – “बूट पालिश”.)
☆ आलेख ☆ बूट पालिश ☆ श्री राकेश कुमार ☆
पच्चास के दशक में फिल्मी दुनिया के सबसे बड़े शोमैन राजकपूर साहब ने इसी नाम से फिल्म का निर्माण किया था। गरीब परिवार के लड़के इस सेवा से धनोपार्जन कर जीवनयापन करते हैं, ऐसा हमारी फिल्मों में दिखाया जाता है। आज कल तो गायन या नृत्य के अनेक टीवी प्रतियोगी भी बूट पालिश के बैक ग्राउंड से आते हैं। ऐसा बताने से जनता की सहानभूति भी वोटों में परिवर्तित हो जाती है। सदी के महानायक ने भी एक फिल्म यही कार्य करते हुए जमीन पर फेंके हुए पैसे उठाने से मना कर दिया था, वो डायलॉग आज भी लोगों की जुबां पर रहता है।
ऐसा कहा जाता है कि किसी भी व्यक्ति का सबसे पहला प्रभाव उसके जूतों से ही पड़ता है। साठ के दशक में “बिल्ली” नाम की शू पालिश चला करती थी। ब्लैक और ब्राउन दो रंग होते थे। हमारे देश में अंग्रेज अपने साथ इसे लाए थे। बाद में क्रीम पालिश भी आ गई थी। हमारे जैसे जिन्होंने शीत ऋतु में भी चेहरे पर सरसों के तेल लगा कर जीवन काट लिया हो, वो क्या जाने जूते वाली क्रीम के बारे में ?
रेलवे स्टेशन और प्रमुख बाजारों में पालिश करने वाले क्रमबद्ध बैठ कर पालिश पालिश पुकार कर ग्राहकों को आकर्षित करते थे। शादी के कार्यक्रम में भी इनकी सेवाएं ली जाती थी। दक्षिण मुम्बई के चर्चगेट लोकल स्टेशन पर आज भी पालिश वाले अपने बक्से पर ब्रश स ठक-ठक कि आवाज़ से जनमानस को अपनी और आकर्षित करने में सक्षम हैं। विगत कुछ वर्षों से बूट पालिश में चेरी ब्लॉसम नामक ब्रांड ही चल रहा है।
परिवर्तन के दौर से बूट पालिश भी अछूता नहीं है। विगत तीन दशकों से कपड़े (स्पोर्ट्स) और रबर के जूते प्रचलन में आ जाने से इसके उपयोग में भी कमी आ गई है। लेकिन वर्दीधारी सेवा में इसका उपयोग यथावत जारी है। कुछ समय पूर्व तरल पालिश को भी अजमाया गया था, जिसका उपयोग सरल है। लेकिन ये भी उपभोक्ता पर पकड़ नहीं बना सकी। कुछ बड़े होटलों, अतिथि ग्रहों में बूट पालिश की मशीन लग जाने से इस रोज़गार में कार्यरत लोगों के लिए कठिनाइयां हो गई है।
शायद मैन और मशीन में मशीन हमेशा आगे निकल जाती है।
© श्री राकेश कुमार
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