श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. आज प्रस्तुत है श्री अरुण डनायक जी का विचारणीय आलेख भारत के राजनीतिक परिदृश्य में डाक्टर भीम राव आंबेडकर.)

(14 एप्रिल 1891 – 6 डिसेंबर 1956)

☆ आलेख – भारत के राजनीतिक परिदृश्य में डाक्टर भीम राव आंबेडकर ☆ श्री अरुण कुमार डनायक ☆

भारत के राजनीतिक पटल में डाक्टर आंबेडकर का आगमन जाति प्रथा के खिलाफ संघर्ष से आरंभ हुआ और गोलमेज कांफ्रेंस से लेकर पूना पेक्ट, महात्मा गांधी से विरोध और संविधान निर्माण तक व्यापक है। सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ अहिंसक आंदोलनों के समय वे भारत के स्वतंत्रता संग्राम से दूर रहे। कभी वे गांधीजी के प्रसंशक बने और कांग्रेस के निकट आए तो कभी जिन्ना से भी मुलाकात करी। ऐसे विलक्षण व्यक्तित्व के धनी डाक्टर आंबेडकर के विचार आजादी के आंदोलन को लेकर क्या थे? यह सदैव चर्चा का विषय रहा है।

स्वराज को लेकर उनके विचारों का पता हमें 08 अगस्त 1930 को नागपुर दलित जाति कांग्रेस के प्रथम अधिवेशन में दिए गए भाषण से लगता है। डाक्टर आंबेडकर ने माना कि कांग्रेस के सविनय अवज्ञा आंदोलन से जन चेतना पैदा हुई है लेकिन वे इस आंदोलन के पक्ष में नहीं थे। उन्हें लगता था कि गांधीजी और कांग्रेस के प्रयासों से राजनैतिक सत्ता का हस्तांतरण तो हो जाएगा पर सामाजिक परिवर्तन नहीं आ सकेंगे। उनके अनुसार कांग्रेस ने छुआछूत उन्मूलन को अपना लक्ष्य नहीं बनाया और गांधीजी ने भी छूआछूत मिटाने के लिए कोई सत्याग्रह या उपवास नहीं किया, इसलिए वे चाहते थे कि दलित वर्ग सरकार, कांग्रेस और गांधीजी से स्वतंत्र रहे। काँग्रेस और देश का बहुमत प्रथम गोलमेज कांफ्रेस में भाग लेने के विरुद्ध था। गांधीजी समेत कांग्रेसी नमक सत्याग्रह के चलते जेलों में बंद थे। ऐसे में दलितों के हितों की पैरवी करने, डाक्टर आंबेडकर ने प्रथम गोलमेज सम्मेलन में सम्मिलित होने ब्रिटिश सरकार के आमंत्रण को स्वीकार किया और इस कारण देश भर में उनकी आलोचना हुई। उन्होंने गोलमेज सम्मेलन में ब्रिटिश राज में दलितों के हक और उनकी सामाजिक स्थिति में किसी परिवर्तन के न होने पर दुख व्यक्त किया और यहाँ तक कहा कि भारत में अछूत ब्रिटिश शासन के विरुद्ध हैं और ऐसी सरकार के पक्ष में हैं जो जनता के द्वारा बनाई गई हो। उन्होंने भारत को डोमिनियन राज्य का दर्जा दिए जाने की भी मांग सम्मेलन में रखी। गांधीजी ने भी प्रथम गोलमेज सम्मेलन में डाक्टर आंबेडकर के द्वारा दिए गए भाषण के आधार पर उन्हें महान देश भक्त कहा।

7 सितंबर 1931 से लंदन में प्रारंभ हुई द्वितीय गोलमेज सम्मेलन, में कांग्रेस के प्रतिनिधि के रूप में महात्मा गांधी शामिल हुए और उन्होंने अपने शुरुआती भाषण में ही यह स्पष्ट कर दिया कि कांग्रेस सभी भारतीयों यानि हिन्दूओं, अल्पसंख्यक मुसलमानों, सिखों व पारसियों के साथ साथ अछूतों का भी प्रतिनिधित्व करती है। अंग्रेजों ने इस सम्मेलन में राजनीतिक चाल चलते हुए अल्पसंख्यकों और अछूतों को एकजुट कर एक समझौता प्रस्ताव प्रस्तुत किया जिसके अनुसार अल्पसंख्यकों की भांति अछूतों को भी प्रथक निर्वाचन का अधिकार दिया जाना प्रस्तावित था। गांधीजी, अंग्रेजों की इस कुटिल चाल को समझ गए और उन्होंने इसका विरोध किया। जब डाक्टर आंबेडकर ने गांधीजी और कांग्रेस की कटु आलोचना करते हुए अखबारों में लेख लिखे तो इसका परिणाम यह हुआ कि उन्हें भी कांग्रेस समर्थकों की ओर से कठोर निंदा का सामना करना पड़ा। उन्हें सवर्ण हिंदुओं द्वारा घृणित व्यक्ति के रूप में देखा जाने लगा । उन्हें ब्रिटिश राज का पिच्छलग्गू, प्रतिक्रियावादी, देशद्रोही और हिन्दू धर्म विनाशक माना गया।

द्वितीय गोलमेज सम्मेलन असफलता के साथ समाप्त हुआ लेकिन अंग्रेजों की चालबाजी खत्म नहीं हुई। 20 अगस्त 1932 को ब्रिटिश प्रधानमंत्री ने कम्यूनल अवार्ड की घोषणा कर दी और इसके अनुसार दलितों को अल्पसंख्यकों की ही तरह प्रथक निर्वाचन का अधिकार मिला। उन्हें दोहरे मतदान का अधिकार दिया गया और वे अपने प्रतिनिधियों को तो चुन ही सकते थे साथ ही अन्य प्रतिनिधियों के लिए भी मतदान कर सकते थे। गांधीजी ने ब्रिटिश चाल को ध्वस्त करने के लिए आमरण अनशन की घोषणा कर दी और यरवदा जेल में 20 सितंबर से उपवास पर बैठ गए। डाक्टर आंबेडकर और कांग्रेस के नेताओं के बीच बातचीत का दौर शुरू हुआ। अंतत: डाक्टर आंबेडकर ने भी अपनी जिद्द छोड़ी और वे राष्ट्रहित में महात्मा गांधी का जीवन बचाने सहमत हुए। इस प्रकार 26 सितंबर को पूना पेक्ट पर हस्ताक्षर होने व ब्रिटिश राज की मंजूरी मिलने के बाद गांधीजी का अनशन समाप्त हुआ। डाक्टर आंबेडकर के लिए यह दौर बड़े धर्म संकट का था। एक ओर उन्हें दलितों के हितों की रक्षा करने की चिंता थी तो दूसरी ओर भारत की स्वतंत्रता के लिए महात्मा गांधी के प्राण बचाने का दबाव भी उन पर था। उन्होंने जन दवाब और व्यापक राष्ट्रहित के सामने झुकने का निर्णय लिया और पूना पेक्ट पर अपनी सहमति दी। पूना पेक्ट पर निर्मित सहमति और देश हित महात्मा गांधी के प्राणों की रक्षा का सारा श्रेय कांग्रेस के सम्मानित नेता मदन मोहन मालवीय ने डाक्टर आंबेडकर को दिया। इस पेक्ट के फलस्वरूप कांग्रेस ने डाक्टर आंबेडकर को दलित नेता के रूप में मान्य किया। डाक्टर आंबेडकर के समर्थक विद्वान, दलितों के विषय को लेकर गांधीजी की कठोर आलोचना करते हुए भी यह मानते हैं कि पूना पेक्ट के जरिए गांधीजी ने न केवल कांग्रेस को बचाया वरन हिन्दू धर्म और समाज को भी सदैव के लिए विघटित होने से बचा लिया। पूना पेक्ट के कारण गांधीजी को भी सनातनी हिंदुओं के तीव्र विरोध का सामना करना पड़ा और यह विरोध प्रदर्शन तो उनकी हरिजन यात्रा के समय और भी उग्र हो उठते थे। गांधीजी की अस्पृश्यता निवारण संबंधी सार्वजनिक घोषणाओं की प्रशंसा डाक्टर आंबेडकर ने तृतीय गोलमेज सम्मेलन में नवंबर 1932 में जाते वक्त भी की थी।  

1920-30 के दशक और गोलमेज सम्मेलनों के दौरान डाक्टर आंबेडकर प्रखर राष्ट्रवादी दिखते हैं। उन्होने उस वक्त कभी भी स्वतंत्रता आंदोलन का विरोध नहीं किया। वे गांधीजी और कांग्रेस की आलोचना में भी पर्याप्त सावधानी रखते थे और राष्ट्रीय एकता के प्रति अपनी प्रतिबद्धता दोहराते रहते थे। लेकिन बाद के वर्षों में डाक्टर आंबेडकर छूआछूत मिटाने, दलितों के मंदिर प्रवेश, मनुस्मृति जैसे सामाजिक भेदभाव पैदा करने वाले ग्रंथों को जलाने जैसे आंदोलन में सक्रिय रहे और इस दौरान उनकी महात्मा गांधीं से अनेक बार भेंट तो हुई पर वे मंदिर प्रवेश और जाति व्यवस्था को लेकर गांधीजी के विचारों का प्रबल विरोध करते रहे। गांधीजी चाहते थे कि डाक्टर आंबेडकर बंबई विधान सभा व केन्द्रीय असेंबली में कांग्रेस द्वारा प्रस्तुत दलितों के मंदिर प्रवेश की अनुमति देने संबंधी प्रस्ताव का समर्थन करें। लेकिन डाक्टर आंबेडकर इसके लिए तैयार नहीं थे। वे चाहते थे कि पहले जाति व्यवस्था खत्म हो, अन्तर्जातीय विवाह और भोज को मंजूरी मिले, प्रस्तावित बिल में छुआछूत की निंदा हो उसके बाद ही मंदिर प्रवेश की बात की जाए। डाक्टर आंबेडकर की दृष्टि में महात्मा गांधी अस्पृश्यता निवारण को लेकर धीमी गति से चल रहे थे तो दूसरी ओर गांधीजी का मुख्य उद्देश्य स्वतंत्रता प्राप्ति था और इसके लिए वे बहुसंख्यक हिंदुओं, दलितों और अल्पसंख्यकों के बीच संतुलन बनाए रखने के पक्षधर थे। 1933 के बाद तो वे गांधीजी से यह कहने में भी नहीं चूके कि अस्पृष्यों के पास कोई होमलेंड नहीं है। उन्होंने 1939 अपने इस मत को बंबई की विधानसभा में भी दोहराया कि ‘जब भी देश के हितों और अस्पृष्यों के हितों के बीच कोई टकराव होगा, तो मेरी नजर में अस्पृष्यों के हित देश के हितों से निश्चय ही ऊपर होंगे।‘ डाक्टर आंबेडकर का एक ओर कांग्रेस व गांधीजी से मोह भंग हो रहा था तो दूसरी ओर वे अंग्रेजों के काफी निकट आ गए थे। इन सबके बावजूद गांधीजी के मन में डाक्टर आंबेडकर के प्रति कोई कटुता नहीं थी और वे अक्सर उनके त्याग और बलिदान की प्रसंशा करते थे। वस्तुत: अस्पृश्यता निवारण को लेकर डाक्टर आंबेडकर का रुख लचीला नहीं था और इस कारण उनकी राष्ट्रीय राजनीति में दखल रखने वाले नेताओं चाहे वह आर्य समाजी हों, हिन्दू महासभाई हों या मुस्लिम लीगी ज्यादा पटी नहीं। वे अपने सिद्धांतों को लेकर विभिन्न विचारधाराओं के लोगों से मिलते अवश्य पर समझौता होने के पहले ही मनमुटाव हो जाता। 1940 में जब जिन्ना ने पाकिस्तान की मांग उठाई तो डाक्टर आंबेडकर ने उनके इस विचार का समर्थन किया, जबकि गांधीजी और कांग्रेस भारत विभाजन के सख्त विरोध में थे। डाक्टर आंबेडकर ने तो बाद में यह अव्यवहारिक सुझाव भी दिया कि भारत विभाजन के बाद सारे मुसलमान पाकिस्तान चले जाएँ और वहाँ से हिन्दू भारत आ जाएँ। अगस्त 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन शुरू हुआ और कांग्रेस के सभी बड़े नेताओं को हिरासत में लेकर दमन चक्र चलाया गया। इस दमनात्मक कारवाई के विरोध में, आगाखान पेलेस पूना में नजरबंद गांधीजी ने, 21 दिन का उपवास प्रारंभ कर दिया। गांधीजी से सहानुभूति दिखाते हुए अनेक नेताओं ने वाइसराय काउंसिल से त्यागपत्र दे दिया पर डाक्टर आंबेडकर ने ऐसा करने से इंकार कर दिया। उन्होंने तर्क दिया कि ऐसा करने से कोई लाभ नहीं होगा। वे इस राजनीतिक गतिरोध के लिए सरकार को दोषी ठहराने के पक्ष में भी नहीं थे। डाक्टर आंबेडकर के ऐसे व्यवहार के चलते कांग्रेसी नेताओं के साथ साथ महात्मा गांधी से भी उनकी दूरियाँ बढ़ती गई और गांधीजी ने उन्हें तवज्जो देना कम कर दिया। गांधीजी ने कुछ अन्य दलित नेताओं को डाक्टर आंबेडकर के समकक्ष खड़ा कर दिया उनमे जगजीवन राम का स्थान प्रमुख है।

1946 में जब धारा सभा के चुनाव हुए तो डाक्टर आंबेडकर के दल शैडूल्यड कास्ट फेडरेशन ने चुनाव में हिस्सा लिया। आम सभाओं में डाक्टर आंबेडकर ने कांग्रेस तथा गांधीजी की कटु आलोचना यह कहते हुए की कि वे अछूतों के हितों की सुरक्षा के प्रति उपेक्षा का भाव रखते हैं और मुस्लिम मांगों की ओर बड़े उदार हैं। गांधीजी की अति आलोचना के परिणामस्वरूप चुनाव में डाक्टर आंबेडकर और उनके दल की घोर पराजय हुई। जबकि 1936 में बंबई विधानसभा के चुनावों में 17 आरक्षित सीटों में से 15 दलित उम्मीदवार डाक्टर आंबेडकर के समर्थन से चुनाव जीते थे। डाक्टर आंबेडकर का राजनीतिक सफर इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी से शुरू हुआ, फिर उन्होंने शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन का गठन 1942 में किया। स्वतंत्र भारत में उन्होंने अपने दल को नया नाम दिया, रिपब्लिक पार्टी आफ इंडिया। इसके बावजूद डाक्टर आंबेडकर अनुसूचित जातियों के मध्य अपनी पैठ बना पाने में खास सफल नहीं हुए। उनके द्वारा स्थापित दल अपना सांगठनिक आधार बनाने में भी विफल रहे। वे दलितों के उत्थान के लिए अपना योग्य उत्तराधिकारी भी नहीं बना पाए। कुल मिलाकर कांग्रेस और गांधीजी का अति विरोध करने के कारण वे नाकामयाबी के गहरे दलदल में लगभग फंस गए थे।

भारत की आजादी के बाद की कहानी में डाक्टर आंबेडकर एक नई भूमिका में आए। वे अपने ज्ञान और विलक्षण प्रतिभा के कारण एक बार पुन: प्रासंगिक बने। गांधीजी की सलाह पर कांग्रेस, जिसके वे आजीवन विरोधी रहे थे, ने उन्हें संविधान सभा में महती जिम्मेदारी सौंपी। पहले बंगाल से और फिर महाराष्ट्र से केन्द्रीय असेंबली में चुनाव जिताकर लाए गए और संविधान सभा के सदस्य बने। संविधान की ड्राफ्टिंग समिति के अध्यक्ष बनाए गए, भारत सरकार में कानून मंत्री बने और हिन्दू कोड बिल के शिल्पी। लेकिन एक बार फिर वे कांग्रेस से दूर हो गए और उन्होंने मंत्रीमण्डल से त्याग पत्र दे दिया। अपने आखरी दिनों में वे राज्य सभा के सदस्य के रूप में हिन्दू कोड बिल को शांत भाव से पास होता देखते रहे।

(इस आलेख में उल्लेखित विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं। )

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈
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