डॉ प्रतिभा मुदलियार
☆ आलेख ☆ विश्व हिंदी दिवस ☆ डॉ प्रतिभा मुदलियार ☆
पूर्व प्रधान मंत्री अटल बिहारी बाजपेयी जी की दो पंक्तियाँ याद आ रही है,
बनने चली विश्व भाषा अपने घर में दासी है
सिंहासन पर अंग्रेजी लख सारी दुनिया हासी है।
माना कि इन दो पंक्तियों में एक हलका व्यंग्य है, पर एक चुभती सच्चाई भी है। आज जब हम वैश्वीकरण, बाजारवाद के युग में जी रहे हैं, दूरियाँ मिट रही हैं और विश्व एक ग्राम बनता जा रहा है ऐसे में भाषा एक संवेदना का विषय भी बन गया है। अंग्रेजी का बोलबाला बढ़ गया है ऐसे में हिंदी या अन्य भारतीय भाषाओं की स्थिति गति क्या है इस पर विचार होना आज के इस कार्यक्रम का एक प्रमुख पहलू है।
आज जब हम विश्व हिंदी दिवस मना रहे हैं तब हमें ये देखना होगा कि 10 जनवरी को ही क्यों विश्व हिंदी दिवस का आयोजन किया जाता है। जब कि भारत में 14 सितंबर को हिंदी दिवस का आयोजन तो पिछले लगभग 75 सालों से किया जा रहा है। इसके पीछे एक कारण तो यह है कि 10 जनवरी, 1975 को नागपुर में आयोजित प्रथम विश्व हिंदी सम्मेलन की वर्षगाँठ मनाने के संदर्भ में पहली बार 10 जनवरी 2006 को यह दिन विश्व हिंदी दिवस के रूप में मनया गया। यह उस दिन को चिह्नित करता है जब 1949 में संयुक्त राष्ट्र महासभा (United Nations’ General Assembly) में पहली बार हिंदी बोली गई थी। यह विश्व के विभिन्न हिस्सों में स्थित भारतीय दूतावासों द्वारा भी मनाया जाता है। इस दिवस का उद्देश्य विदेशों में भारतीय भाषा के बारे में जागरूकता पैदा करना और इसे विश्व भर में वैश्विक भाषा के रूप में प्रचारित करना है।
वर्तमान परिप्रेक्ष्य में हिंदी के स्वरूप पर बात करने से पहले जब हिंदी की विकास यात्रा पर सोचा जाय तो यह सहजता से परिलक्षित होता है कि हिंदी भाषा ने न केवल देश में बल्कि विदेश में भी अपना लोहा बनाकर रखा है। यह तो सर्वविदित है कि आज सारे संसार में सबसे अधिक बोली जानेवाली भाषाओं में हिंदी दूसरे नंबर पर है। आज ईक्कीसवीं सदी के दो दशक बीत चूके हैं। आजादी मिलकर 77 साल बीत चुके हैं। तब यह प्रासंगिक है कि हम देश विदेश में हिंदी की स्थिति गति के बारे में विचार विमर्श करें। चूँकि हम विश्व हिंदी दिवस का समारोह कर रहे हैं तो मैं अपने आप को हिंदी के वैश्विक स्वरूप तक सीमित रखकर अपनी बात रखना चाहूँगी।
दरअसल विश्व हिंदी का स्वरूप निर्धारित करने से पहले हमे विश्व भर के हिंदी विद्वानों और प्रेमियों को दो वर्गों में विभाजित करना होगा ।
पहला वर्ग उन विदेशी विद्वानों का है जिन्होंने भाषा के रूप में हिंदी का अध्ययन किया और इसके प्रचार-प्रसार एवं लेखन में योगदान किया । दूसरा वर्ग प्रवासी भारतियों का है, जो काफी बड़ी संख्या में विदेशों में बसे हैं और हिंदी भाषा और साहित्य के क्षेत्र में सहयोग प्रदान कर रहे हैं।
फादर कामिल बुल्के (बुल्गारिया) डॉ. ओदोलेन स्मेकल (चेकोस्लोवाकिया) डॉ. रूपर्ट स्नेल (इंग्लैंड), डॉ. तोमिया मिजोकामी, प्रो. दोई (जापान), अलेक्सेई पेत्रोविच वरान्निकोव, डॉ. चेलीसेव (रूस), डॉ. लोठार लुत्से (जर्मनी), डॉ. रोनाल्ड स्टुवर्ट मैकग्रेगर (न्यूजीलैंड), प्रो. मारिया बृस्की (पोलैंड), डॉ. कैथरिन जी. हैन्सन (कनाडा), डॉ. माईकल सी. शपीरो (अमेरिका), डॉ. कीम ओ जू, (दक्षिण कोरिया) जैसे कई विदेशी हिंदी विद्वान हैं, जिन्हें गिन पाना कठिन होगा। ये हिंदी के वे विद्वान हैं जो हिंदी भाषा के विभिन्न रूपों के ऊपर महत्वपूर्ण शोधपरक कार्य करके समूचे विश्व में कीर्तिमान स्थापित कर चुके हैं। इन्हें विश्व हिंदी के भगीरथ के नाम से जाना जाता है।
दूसरे वर्ग में प्रवासी साहित्यकारों द्वारा रचित साहित्य आता है। आज प्रवासी भारतीयों द्वारा व्यापक साहित्य लिखा जा रहा है। प्रवासी भारतीयों ने अपने जीवन एवं प्रवासी देश के वर्णन के माध्यम से हिंदी साहित्य की श्रीवृद्धि की है ।
प्रवासी भारतीय सम्मेलन के तत्वाधान में हर वर्ष प्रवासी हिंदी सम्मेलन की सफलता प्रवासी हिंदी लेखकों और साहित्यकारों के दमदार अस्तित्व का प्रमाण है। यह दिवस 9 जनवरी को मनाया जाता है और इसकी शुरवात 2002 से हुई है। आज प्रवासी भारतियों के साथ उनकी साहित्य की भी चर्चा हो रही है। उन्हें विभिन्न भाषाई मंचों और सम्मेलनों के माध्यम से सम्मानित किया जा रहा है । यह कोई छोटी बात नहीं है। बदले हुए परिवेश में हिंदी भाषा और साहित्य के विकास की दृष्टि से यह बहुत बड़ी घटना है । इस संबंध में विदेश मंत्रालय के ICCR, साहित्य अकादमी और अक्षरम् जैसी गैरसरकारी संस्थाओं का योगदान उल्लेखनीय है ।
प्रवासी रचनाकारों में डॉ. सत्येंद्र श्रीवास्तव, डॉ. सुषमा बेदी, उषाराजे स्कसेना, उषा प्रियंवदा, दिव्या माथुर, पद्मेश गुप्त, सरन घई, सुब्रमणी, अभिमन्यु अनंत, अंजना संधीर, तेजेन्द्र शर्मा, अर्चना पैन्युली आदि ने हिंदी साहित्य बल्कि भाषा को भी गौरवान्वित किया है। प्रवासी भारतीयों ने ओजस्वी एवं गौरवपूर्ण भारतीय संस्कृति के विभिन्न पक्षों को संजो कर रखने में अहम भूमिका निभाई है। आज भारत की प्राचीन लोक संस्कृति के तमाम रूपों को प्रवासी भारतीयों के लोक जीवन में देखा पाया जा सकता है।
प्रवासी भारतीयों का हिंदी साहित्य प्रारंभ में वाचिक था। किंतु बाद में यह लिखित रूप में और मुख्यधारा में आ गया। चूंकि इनका प्रवासन कठिन परिस्थितियों में हुआ था और बहुत कठिन संघर्ष के पश्चात् उन्होंने अपनी प्रतिष्ठा बनाई, अतः इनके साहित्य में करुण रस की प्रधानता है । 19 वीं सदी के उत्तरार्ध में फीजी, मारिशस, सुरीनाम, ट्रिनीडाड, गयाना, दक्षिण अफ्रीका देशों में भारतीयों का गिरमिटियों के रूप में प्रवासन अति दारुण रहा था। इन देशों में गाया जाने वाला विदेशिया नामक गीत सुनने वालों की आंखों में बरबस आंसू ले आता है ।
प्रवासी भारतीयों ने भारत के बाहर हिंदी को जो रूप प्रदान किया है, ऐसा लगता है उसमें भाषाई स्वातंत्र्य के लक्षण अधिक हैं। भारत में प्रयोग की जाने वाली हिंदी और इस हिंदी के स्वरूप में वैसा ही अंतर परिलक्षित होता है जैसा ब्रिटिश और अमरीकी अंग्रेजी में । वास्तव में अमरीकी में ब्रिटिश अंग्रेजी को व्याकरण और वर्तनी की सहायता से सरलीकृत करने का प्रयास किया गया है। वैसे ही वैश्विक हिंदी में भारतीय हिंदी को कुछ अधिक सीमा तक उनकी आवश्यकता के अनुसार सरल बना दिया गया है। इस हिंदी में बेशक शब्द बेतरतीव है किंतु व्याकरण के नियम लगभग वैसे ही लागू हैं जैसे भारतीय हिंदी में लागू होते हैं। इनकी भाषा में व्याकरण का भले ही अतिक्रमण हो गया हो पर भाषा की संप्रेषणीयता में कोई कमी नहीं आती। उदाहरण के लिए हिंद महासागर की गोद में बसे मारिशस, देश प्रशांत महासागर की गोद में बसे फीजी और आंध्र महासागर की गोद में बसे कैरेबियन और सूरीनाम तथा त्रिनीडाड-आदि देशों मेंलबोली जानेवाली हिंदी हो।
दक्षिण अफ्रीका में बोली जाने वाली हिंदी को नाताली के नाम से जाना जाता है। तो फीजी में बोली जानेवाली हिंदी को फीजि हिंदी कहा जाता है तो मॉरिशस में बोली जानेवाली हिंदी को क्रियोल हिंदी कहा जाता है। वहीं युके, अमेरिका आदि देशों में खडी बेली हिंदी का प्रयोग होता है पर वहाँ भी उनकी हिंदी पर उन प्रवासियों की मातृभाषा तथा अंग्रेजी का प्रभाव दिखाई देता है।
आज हिंदी जो वैश्विक आकार ग्रहण कर रही है उसमें रोजी-रोटी की तलाश में अपना वतन छोड़ कर गए गिरमिटिया मजूदरों के योगदान को कभी नहीं भुलाया जा सकता। गिरमिटिया मजदूर अपने साथ अपनी भाषा और संस्कृति भी लेकर गए, जो आज हिंदी को वैश्विक स्तर पर फैला रहे हैं। मसलन, एशिया के अधिकतर देशों चीन, श्रीलंका, कंबोडिया, लाओस, थाइलैंड, मलेशिया, जावा आदि में रामलीला के माध्यम से राम के चरित्र पर आधारित कथाओं का मंचन किया जाता है। वहां के स्कूली पाठ्यक्रम में रामलीला को शामिल किया गया है। हिंदी की रामकथाएं भारतीय सभ्यता और संस्कृति का संवाहक बन चुकी हैं।
हिंदी के वैश्विक स्वरूप में भारत के बाहर हिंदी का अध्ययन अध्यापन भी एक महत्वपूर्ण कडी के रूप में उभरता है। 1908 में जापान में हिंदी की पढ़ाई हिंदुस्तानी के रूप में प्रारंभ हुई, जिसे ज्यादातर व्यापार करने वाले लोग पढ़ाया करते थे, पर बाद में इसका पठन-पाठन विशेषज्ञ शिक्षकों द्वारा किया जाने लगा। जापान में हिंदी का पठन-पाठन फिल्मी गीतों के माध्यम से किया जा रहा है। अमेरिका में हिंदी फिल्मी गीतों के माध्यम से पढ़ाई जाती है और प्रवासी भारतवंशी हिंदी की अलख और संस्कृति को जगाए रखे हैं।
अमेरिका में हिंदी के विकास में अखिल भारतीय हिंदी समिति, हिंदी न्यास, अंतरराष्ट्रीय हिंदी समिति का योगदान प्रमुख हैं। अमेरिका की भाषा नीति में दस नई विदेशी भाषाओं को जोड़ा गया है, जिनमें हिंदी भी शामिल है।
हिंदी शिक्षा के लिए डरबन में हिंदी भवन का निर्माण किया गया है और एक कम्युनिटी रेडियो के माध्यम से हिंदी का प्रचार-प्रसार किया जा रहा है। वे सोलह घंटे सीधा प्रसारण हिंदी में देते हैं। इसके अलावा हिंदी के गाने बजाए जाते हैं। फीजी, त्रिनीडाड, मॉरीशस में हिंदी का वर्चस्व है तथा उनका संकल्प हिंदी को विश्व भाषा बनाने का है। इतना ही नहीं साउथ कोरिया, चीन, बुल्गारिया आदि देशों में विदेश मंत्रालय द्वारा हिंदी द्वारा हिंदी पीठ की स्थापना की गई है।
आज भारतीय उपमहाद्वीप ही नहीं बल्कि दक्षिण पूर्व एशिया, मॉरीशस, चीन, जापान, कोरिया, मध्य एशिया, खाडी देशों, अफ्रीका, यूरोप, कनाडा तथा अमेरिका तक हिंदी कार्यक्रम उपग्रह चैनलों के जरिए प्रसारित हो रहे हैं और भारी तादाद में उन्हें दर्शक भी मिल रहे हैं। रेडियो सीलोन और श्रीलंकाई सिनेमाघरों में चल रही हिंदी फिल्मों के माध्यम से हिंदी की उपस्थिति समझी जा सकती है। गत कुछ वर्षों में एफ.एम. रेडियो के विकास से हिंदी कार्यक्रमों का नया श्रोता वर्ग पैदा हो गया है। हिंदी अब नई प्रौद्योगिकी के रथ पर आरूढ होकर विश्वव्यापी बन रही है। उसे ई-मेल, ई-कॉमर्स, ई-बुक, इंटरनेट, एस.एम.एस. एवं वेब जगत में बडी सहजता से पाया जा सकता है। इंटरनेट जैसे वैश्विक माध्यम के कारण हिंदी के अखबार एवं पत्रिकाएँ दूसरे देशों में भी विविध साइट्स पर उपलब्ध हैं।
आज तक भारत की पहचान समाज, संस्कृति और अध्यात्म के परिप्रेक्ष्य में हो रही है पर अब समय ने करवट ली है और सारा विश्व भारत की ओर एक उभरती आर्थिक शक्ति की नज़रों से देख रहा है। भारत का यह उत्थान अखिल भारतीय स्तर पर निश्चित रूप से किसी विदेशी भाषा के माध्यम से नहीं होगा। आज यह स्थापित सत्य है कि अंग्रेजी के दबाव के बावजूद हिंदी बहुत ही तीव्र गति से विश्वमन के सुख-दु:ख, आशा-आकांक्षा की संवाहक बनने की दिशा में अग्रसर है। आज समय की माँग है कि हम सब मिलकर हिंदी के विकास की यात्रा में शामिल हों ताकि तमाम निकषों एवं प्रतिमानों पर कसे जाने के लिये हिंदी को सही मायने में विश्विक स्तर पर गरिमा प्रदान कर सकें।
अंत में इतना ही
निज भाषा उन्नति अहे सब उन्नति को मूल
निज भाषा के ज्ञान बिन मिटै न हिय का शूल
© डॉ प्रतिभा मुदलियार
पूर्व विभागाध्यक्ष, हिंदी विभाग, मानसगंगोत्री, मैसूरु-570006
मोबाईल- 09844119370, ईमेल: [email protected]
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈