श्री प्रभाशंकर उपाध्याय
(श्री प्रभाशंकर उपाध्याय जी व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। हम श्री प्रभाशंकर उपाध्याय जी के हृदय से आभारी हैं जिन्होने ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के साथ अपनी रचनाओं को साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार किया। आप कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपकी विशिष्ट साहित्यिक सेवाओं पर राजस्थान साहित्य अकादमी का कन्हैयालाल सहल पुरस्कार प्रदत्त।
आज प्रस्तुत है श्रीकृष्ण जन्माष्टमी पर विशेष आलेख ‘सौ पंखुरी वाले कमल हैं, कृष्ण‘।)
☆ आलेख ☆ श्रीकृष्ण जन्माष्टमी विशेष – सौ पंखुरी वाले कमल हैं, कृष्ण… ☆ श्री प्रभाशंकर उपाध्याय ☆
यदि कृष्ण के बारे में सोचें तो एक ऐसे शिशु के बारे में विचारें जिसके जन्म से पूर्व ही उसकी हत्या कर डालने को सत्ता कृत संकल्प है। सत्ताधारी इतना व्यग्र्र है कि उसके जन्म की सूचना मिलते ही, वह वध कर देने को आतुर हो उठता है। कृष्ण के बारे में सोचने से पूर्व उस नवजात अबोध के बारे में विचार करें जिसे जन्मते ही मां से विलग होना पड़ा। झूला झूलने की उम्र में पालने से उसका अपहरण करके मारने का प्रयास किया गया था। कृष्ण एक ऐसा बालक था जिसे काले रंग का तंज बार बार सुनना पड़ा। जिसे बालपन में चोर और महाशरारती करार दिया गया और उसकी सजा उसे दसियों दफा पड़ी थी।
उसी उपेक्षित कान्हा ने जब जीवन के उन सारे नकारात्मक पहलुओं को ध्वत करते हुए स्वयं का ऐसा उत्कर्ष किया कि गोकुल तो मंत्र मुग्ध हुआ ही, शनैः शनैः समूचा विश्व उसके व्यक्तित्व की आभा से चकाचौंध हो गया। कृष्ण एक त्याज्य शिशु से महानायक हो गए। संसार के सारे मिथक, इतिहास और सभी लोक गाथाएं खंगाल लें तो अवसादग्रस्त और अकर्णमण्य की दशा भुगत रहे लोगों को बाहर लाने तथा घबराए, हताश हुए जीव को प्रेरणा देने वाली गोविंद-गाथा के अतिरिक्त ऐसी और कोई गाथा नहीं मिलेगी। कान्हा से श्रीकृष्ण हो जाने की प्रेरक कथा बहुतेरे निहितार्थ सामने लाती है। जीवन से हारे हुओं हेतु आशा का मार्ग प्रशस्त करती है।
गोकुल में ग्वाल-बालों के संग गाय चराते, खिलंदड़ी करते, माखन चुराते, मटकी फोड़ते, गोपिकाओं को छकाते, वस्त्रहरण करते, नटखट कन्हैया सबका मन मोह कर, मोहन हो जाते हैं। आयु बढने पर राधा और सखियों के संग रास रचाते, रसेश्वर होते हैं तो उलटबांसी यह कि बावजूद इसके वे योगेश्वर(योगीराज) भी हैं।
अनूठा और अप्रतिम चरित है कृष्ण का। जब, मुरलीधर होकर मुरली की तान छेड़ी तो जड़ और चेतन सब कुछ सम्मोहित हो गया। दिक्-दिगांत में अनहद गूंज उठा। समस्तराग-रागनियां ब्रज मंडल में प्रवेश कर समाहित हो गयीं।
श्याम-श्यामा का प्रेम और गोपियों का सखी भाव ऐसा कि वे भाव, विश्व व्यापी हो गए।
और जब उस लीलाधर ने प्राणियों की रक्षार्थ गिरिवर को अपनी अंगुली पर उठाकर, देवेंद्र को चुनौती देते हुए जता दिया कि ये तो उनकी चिटकी अंगुली का खेल है तो वे गिरधारी कहाए।
तदुपरांत, राधारमण बांके बिहारी ब्रज में विरह-वेदना का संचार कर, रसेश्वर से योगेश्वर हो गए। एक ऐसा निर्मोही योगी जो एक बार मथुरा गया तो फिर न लौटा क्योंकि यदि वह विराग न होता तो बांसुरी छोड़ सुदर्शन कैसे थामते? अन्याय और अनाचार का प्रतिकार कैसे करते? ऐसे वियोग के बाद भी कृष्ण ब्रज में न होकर भी वहां के कण कण में आज भी रचे बसे हैं।
आततायी मामा के वध के उपरांत वे द्वारिकाधीश हुए। राजा होकर सुदामा सरीखे निर्धन सखा को विस्मृत नहीं किया। यही मैत्री-भाव अर्जुन के प्रति रखा और उसके दिगभ्रमित होने पर दिग्दर्शन देते हुए कहा- ‘‘जब जब धर्म की हानि होती है और अधर्म का अभ्युदय होता है, तब तब मैं स्वयं का सृजन करता हूं।’’ और अपना विराट स्वरूप प्रदर्शित कर वे कोटिसूर्य समप्रभा कहाए।’’
© प्रभाशंकर उपाध्याय
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