डॉ प्रतिभा मुदलियार
(डॉ प्रतिभा मुदलियार जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। अध्यापन के क्षेत्र में 25 वर्षों का अनुभव। वर्तमान में प्रो एवं अध्यक्ष, हिंदी विभाग, मैसूर विश्वविद्यालय। पूर्व में हांकुक युनिर्वसिटी ऑफ फोरन स्टडिज, साउथ कोरिया में वर्ष 2005 से 2008 तक अतिथि हिंदी प्रोफेसर के रूप में कार्यरत। कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत। इसके पूर्व कि मुझसे कुछ छूट जाए आपसे विनम्र अनुरोध है कि कृपया डॉ प्रतिभा मुदलियार जी की साहित्यिक यात्रा की जानकारी के लिए निम्न लिंक पर क्लिक करें –
जीवन परिचय – डॉ प्रतिभा मुदलियार
आज जब हम सब मानवता के एक कठिन समय से गुजर रहे हैं, ऐसे में आपका समसामयिक आलेख सामयिक संदर्भ और युवा पीढ़ी निश्चित ही युवाओं में सकारात्मक ऊर्जा का संचार करेगा। हम भविष्य में आपसे ऐसे ही सकारात्मक साहित्य कि अपेक्षा करते हैं। इस अतिसुन्दर आलेख के लिए आपकी लेखनी को सादर नमन। )
☆ सामयिक संदर्भ और युवा पीढ़ी ☆
बीत गया एक और दिन…. !! कैसा मंज़र है यह… हम तालाबंदी में साँसें ले रहे हैं। घरों में सुरक्षित हैं और बाहर असुरक्षित! अबतक कभी नहीं जाना नहीं था कि दिन क्या गिनना क्या होता है? अभी अभी तक व्यस्तताओं में दिन फूर्रर्र से उड़ जाया करते थे। एक दिन होता था ‘रविवार’ का .. राहत का… आराम का…खुशी का। अब हर दिन रविवार हो गया है। हमारे जीवन में रविवार का एक विशेष अर्थ है। उसके कई आयाम होते हैं। रविवार यानि छुट्टी ! कोई आपा धापी नहीं। कोई होड़ हडबडी नहीं। कोई व्यस्तता नहीं। यह दिन होता है अलसाने का… लंबी साँस लेकर फिर से बिस्तर पर पसर जाने का.. फूर्सत का! नरेश मेहता ने शायद इसी कारण अपनी एक कविता में प्रिया से कहा था, “एक रविवार बनकर आओ”! कहना यही है कि जब हर दिन रविवार हो जाता है तो उसका महत्व घट जाता है। इन दिनों हम सब हर रोज ‘रविवार’ को जी रहे हैं… और इस ‘रविवार’ से ऊब भी रहे हैं। हमने अब दिन गिनना शुरु किया है। जैसे जैसे दिन गुज़र रहे हैं मन उदास होता जा रहा है। निराशा का कुहासा गहन होता चला जा रहा है। जीवन की गति एकदम से रुक गयी है। मन को कितना भी क्यों न समझाऊँ, कितना भी व्यस्त क्यों न रखूँ, मन का एक कोना बहुत अधिक हताश और निराश ही हो रहा है। आए दिन आनेवाली खबरों से मन और बैठा जा रहा है। ऐसे समय मेरे सामने आ जाती है आज की युवा पीढ़ी। वह युवा पीढ़ी जो तालाबंदी के कारण घरों में कैद है।
हमारा देश युवाओं का देश है। बल्कि युवाओं के मामले में विश्व में हमारा देश सबसे समृद्ध है। दुनिया में सबसे अधिक युवा हमारे देश में हैं। किंतु युवा महज एक उम्र नहीं है। उससे भी अधिक कुछ है। युवा जिसमें असीमित संभावनाएं होती हैं, रचनात्मकता होती है, जिनमें कल्पना की ऊँची उड़ान होती है। ।युवाओं में होती है असीम उत्सुकता, बेहोशी, जोश और उतावलापन। यह आयु होती है ऊर्जा से भरपुर। यह वह युवा है जो सपने देखने और उसे पुरा करने की हिम्मत रखता है। किंतु आज की इस दारुण स्थिति में यह युवा पीढ़ी, उनका सारा गणित ही बदल जाने के कारण असंमजस की स्थिति में हैं। क्या करें… कैसे करें.. कहाँ जाय.. कैसे जाय… ऐसे कई सारे सवाल उनके मूँह बायें खडे हैं। भले ही अभी उनके मूँह से इन प्रश्नों की बौछार नहीं हो रही हैं, किंतु उनका मन बहुताधिक हताश है। सारी परीक्षाएँ आगे बढ गयी है। शिक्षा सत्रों का कैंलडर बदलता जा रहा है। पढाई में लगे हुए हैं पर अभी भी असंसजस में हैं। भले ही इंटरनेट के माध्यम से कई सारी जानकारी हासिल कर रहे हैं। जानकारियों से लैंस हैं पर इसका करें क्या? इतना ही नहीं इस तालेबंदी के चलते कई युवाओं की नोकरियों पर गाज़ गिर रही है। अनेक ऐसे युवा ऐसे भी हैं जिनकी शादी भी होने वाली थी, लेकिन अब अनिश्चित काल के लिये विवाह की तारीखें आगे बढ़ानी पड रही हैं।
आज कोरोना के संक्रमण से देश के देश उसकी चपेट में आ चुके हैं। सारी आर्थिक व्यवस्था चरमरा रही हैं और हम समय के पीछे चलने लगे हैं। इस सच्चाई से अब हर कोई अवगत है। जिन युवाओं ने अपनी आँखों में भविष्य के सुनहरे सपने संजोए थें, जिन आँखों में एक नया जीवन करवट ले रहा था, जिनके लिए आसमान को अपने आलिंगन में लेने की चाह थी, वह युवा वर्ग आज किंकर्तव्यविमूढ़ स्थिति में आ गया हैं।
जब यह महामारी बिना दस्तक दिए हमारे जीवन में घुस गयी हैं तब से हमारे जीवन की दिशा ही बदल गयी है। सोशल लाइफ के आदी युवाओं को सोशल डिस्टनसिंग का कल्चर अपनाना पड़ रहा है। पश्चिम की देखा देखी गले लगना, हाथ मिलाना, गलबाहियाँ डालना आदि की जो वृत्ति युवाओं में आ गयी है, उन्हें अब दो गज देह की दूरी को स्वीकारना पड़ रहा है। वे आज न किसी से मिल पा रहे हैं… न किसी से मुलाकात हो पा रही है। न वीक एंड की पार्टी है और ना ही घूमने जाने ही योजना, न शॉपिग है ना लॉंग ड्राईव है, ना पानी पुरी है ना चाट है। कुछ नहीं, है तो बस हाथ में मोबाईल है और जिसके माध्यम से जुडे है अपने अपने संसार से!
पिछले दो चार दिन से विश्वविद्यायल जा रही हूँ। तैंतीस प्रतिशत कर्मचारियों को ड्युटी पर जाना है। तो जा रही हूँ। गत बीस सालों से यह कैंपस मेरे जीवन का अहम हिस्सा रहा है। सच कहती हूँ, काफी दिनों बाद जब गयी तब प्राकृतिक सुंदरता के बावजूद कैंपस में मन नहीं लगा था। विश्विविद्यालय की ‘जान’ वे बच्चे ही वहाँ नदारद थे। कक्षाएँ खाली पडी थीं, कैंटिन की कुर्सियाँ उदास पडी थीं। पैरापीट उजाड से लग रहे थे। पेडों के नीचे के बेंचिस पर जहाँ सारे छात्र छात्राएं हँसते खेलते रहते थे, गप्पे लगाते बैठा करते थे आज एकदम वीरान लग रहे थे। वहाँ पसरी पडी हरी दूब अपने छोटे छोटे सिर उठाकर मानों उनके आने का इंतजार कर रहीं थी। वह स्कूल, कॉलेज ही क्या. जहाँ विद्यार्थी ही ना हो?
यह युवापीढ़ी आज करोना की बदौलत घरों में कैद हैं। उनके आँखों में कुछ प्रश्न उभरते हैं, पर जूबाँ पर नहीं आते, आखिर हम कबतक इंटरनेट पर सर्फिंग करें? कबतक आँनलाईन पढाई करें?.. ऑनलाईन पढाई भी क्या पढाई है? .. क्लास में बैठकर टीचर्स के लेक्चर्स सुनना, बोर्ड-चॉक से विषय का समझाना और समझना अलग ही होता है। और तो और क्लास का अपना एक ‘क्लास रुम कल्चर’ भी तो होता है। टिचर्स पर कमेंट करना, फुसफुसाना, टिचर्स के देखते ही चुप होना, और उनकी पीठ होते ही फिर बोलना, मुस्कुराना… यह सब आँन लाईन कक्षाओं में कैसे संभव हैं? ऑनलाइन क्लास में तो बस टीचर्स की आवाज़ साफ सुनाई दे इसलिए सबको म्यूट किया जाता है, सबके विडीओ स्टॉप किए जाते हैं… और चलती रहती हैं एक तरफा क्लास…पहले पहले तो अच्छा लगा… फिर वही मनोटोनोस हो गया तो इससे भी उकता गए!
सुवह पीठ पर बैकपैक डालकर निकला हुआ बच्चा शाम देर से थका हारा घर आ जाता है तो उसके लिए घर ‘राहत’ का स्थान था। किंतु इन दिनों मात्र घर ही सीमांत हो गया है। टी. वी की खबरें और इंटरनेट की जानकारियाँ और भी दहला देनेवाली होती हैं तो अपना घर की स्वर्ग लगने लगता है। पीज्जा, बर्गर, पानी पुरी, इडली दोसा, नुडल्स से अपना पेट भर लेनेवाले इन युवाओं को अब घर की दाल रोटी से काम लेना पड़ रहा है। याद तो आती है फास्ट फूड की किंतु भय भी है कि उतने ही ‘फास्ट’ यह ‘फूड’ करोना का संक्रमण घर लेकर आएगा। इसलिए अपने जीवन में ‘भय’ के साथ आयी इस ‘ऊब’ को वे अपने ‘इनोवेटीव’ अंदाज में अभिव्यक्त कर रहे हैं। फिर वह टीक टॉक का विडिओ हो, अपनी बनायी बिर्यानी हो या ऑस्ट्रेलिया के नक्शे की तरह बनायी रोटी हो उसे सोशल मीडिया पर पोस्ट कर अपने सोशल लाइफ को maintain भी कर रहे हैं। युवा ही नहीं घर में बंद लगभग सब के सब सोशल मीडिया पर अपनी अदाकारी की तसवींरें साझा कर रहे हैं।
इस युवापीढ़ी को अब अपनों का, अपने रिश्तों का सही अर्थ, उनके सही मायने समझ आ रहे हैं, घर की रोटी का असली स्वाद भी समझ आ रहा है, असकी अहमियत भी पता लग रही है…किंतु भीतर से उनका मन-पाखी उड़कर बाहर जाना चाहता है… चार दीवारों से बाहर.. आसमान को नापना चाहता है।
किंतु इसके साथ साथ सिक्के का एक और पहलू भी है। युवा और विकास एक दूसरे के पूरक हैं। युवा आज और कल के भी नेता हैं। यह युवा पीढ़ी विश्व का वर्तमान तो है ही, भविष्य भी है। कोरोना संक्रमण के कारण युवाओं के व्यक्तित्व का एक पहलू मुझे बहुत बहुत भाया, और वह है उनके भीतर की इन्सानियत का, उनके भीतर के दयाभाव का और करुणाभाव का। आज इस करोना काल के वे ‘वॉरियर’ हैं। अच्छा लगता है, मन भर आता है, अपने उत्तरदायित्व के प्रति उनकी सजगता देखकर दिल से उनके लिए दुआ निकलती है।
मेरा एक छात्र है.. समाजसेवा में तत्पर। कोराना के कारण अपने गाँव में बंद हो गया है। मैंने हरबार उसे दूसरों की मदद करते हुए देखा है। इस संकट की स्थिति में एक गर्भवती महिला को अपने गाँव से शहर तक लाने के लिए बिना अपने स्वास्थ्य की परवाह किए सहायता के लिए दौड़ पड़ा। मैंने देखा है मेरे अपने भाई को जो चिलचिलाती धूप में अपना कर्तव्य शिद्दत से निभानेवाले पुलिसकर्मियों के लिए पानी मुहैय्या कराता है। देखा है उस युवा को जो अपनी स्कूटर पर मरीज को बिठाकर अस्पताल लिए जा रहा है। देखा है, इस युवा पीढ़ी को जो इस आपदा के काल में भूखों को खाना खिला रही हैं। सड़क पर आवारा घूमनेवाले बेज़ुबान पशुओं को दाना,पानी, चारा और खाना दे रहे हैं। यही वह युवा है देश का, जो सारे संकटों का सामना करते हुए निकल पड़ा है अपने देश को संभालने! जिताने! कोराना के प्रकोप ने सारी दुनिया पर कहर ढाया है। किंतु युवा पीढ़ी ने अपनी जिम्मेदारी निभाते हुए एक नया रूप दिखाया है। कई डाक्टरों, नर्सों, पुलिसकर्मिंयों और सुरक्षाकर्मियों ने अपनी जान की बाजी लगाकर मोर्चा संभाला है और उनके दृढविश्वास और समर्पण ने एक बार और साबित कर दिया है कि युवा देश का भविष्य है। भले ही अब दिन उतने सहज नहीं है किंतु भारत की युवा पीढी देश को नई ऊँचाई पर ले जा रही है। यह ऊंचाई है परस्पर सहयोग की, करुणा की, मदद की, आत्मभाव की, रचनात्मक विचार की, जुडने की और जोडने की। इसलिए आज वह अपने देश के भविष्य और उम्मीद की शक्ति है।
अक्सर पुरानी पीढ़ी आनेवाली पीढ़ी में नुख्स देखती ही। आज भले ही दौर बदला है, सदियाँ बदली हैं पर बदली नहीं है तो युवाओं के प्रति हमारी शिकायतें। इनको अक्सर नकारात्मक और परिवेश के प्रति उपेक्षा का भाव रखनेवाली पीढ़ी माना जाता रहा है। लेकिन कोरोना महामारी के इस संकट में युवा पीढ़ी का यूं आगे आना और सकारात्मक कार्य में भागीदार बनना सराहनीय ही है। उनके इस कार्य ने हमारी बुजर्आ सोच को बदला है। उनका यह सहयोग और उनकी समझ कितनों के लिए अनुकरणीय है। विश्व भर में फैली इस महामारी के प्रकोप में हमारे गांवों से लेकर महानगरों तक युवा पीढ़ी पूरी एहतियात के साथ लोगों की मदद में जुटी हुई हैं। इतिहास गवाह है कि प्राकृतिक आपदाओं के समय में देश के युवाओं ने हमेशा अपना योगदान दिया है। भूकंप, बाढ़ या फिर कोई दुर्घटना ही क्यों न हो युवाओं को पीड़ितों की मदद करते हुए देखा गया है। इस संक्रमण के संकट के समय युवा कई तरह से देश और समाज एक लिए सहायक बन हुए हैं। अपने तईं युवा अपनी अपनी सोच के बल पर कोरोना से लड़ाई लड़ रहे हैं।
आज कोराना से मनुष्य का अस्तित्व खतरे में आ गया है। किंतु मनुष्य में बहुत अधिक जीवतता है। वह कोरना से नहीं हारेगा। भले ही कोरोना मनुष्य को मारने पर आमादा हो जाए पर मनुष्यता का संबल लेकर चलने वाली युवापीढ़ी उसे हरा देगी। क्येंकि यह पीढ़ी चिंतित भी है और समर्पित भी है। उनका यह स्वार्थरहित कार्य ऐसे समय में भी हमारे होठों पर हल्की सी मुस्कुराहट लाता है और ह्दय में उम्मीद जगाता है।
अंत में हरिवंश राय बच्चन की कुछ पंक्तियाँ जो मुझे इस वक्त बहुत प्रासंगिक लग रही है उसे उद्घृत कर रही हूँ,
तू न थकेगा कभी/तू न रुकेगा कभी /तू न मुड़ेगा कभी,
कर शपथ, कर शपथ, कर शपथ,
अग्निपथ अग्निपथ अग्निपथ।
यह महान दृश्य है/चल रहा मनुष्य है/ अश्रु स्वेद रक्त से,
लथपथ लथपथ लथपथ,
अग्निपथ अग्निपथ अग्निपथ
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© डॉ प्रतिभा मुदलियार
प्रोफेसर एवं अध्यक्ष, हिंदी अध्ययन विभाग, मैसूर विश्वविद्यालय, मानसगंगोत्री, मैसूर 570006
दूरभाषः कार्यालय 0821-419619 निवास- 0821- 2415498, मोबाईल- 09844119370, ईमेल: [email protected]
Jeevan ab kabhi aisa nahi rahega, jaisa tha. Ye hi is shadi ki trasadl hai.