श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”


(आज  “साप्ताहिक स्तम्भ -आत्मानंद  साहित्य “ में प्रस्तुत है  श्री सूबेदार पाण्डेय जी की  एक भावप्रवण एवं विचारणीय आलेख  “## गौरैया एक आत्मकथा##। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# #90 ☆ # गौरैया एक आत्मकथा # ☆

वो मुझे मिली थी सारा शरीर छलनी हो गया था उसका, वह खून से लथपथ हो रही थी। भीषण गर्मी तथा भय से हांफ और कांप रही थी वो, भूख और प्यास से बुरा हाल था उसका, कौवों का झुंड पड़ा था उसके जान के पीछे । किसी तरह बचती बचाती आ गिरी थी मेरी गोद में।  उसकी हालत देख मैं अवाक हो ताकता रह गया था, उसे!  मेरे हाथों का कोमल स्पर्श पाकर उसे अजीब-सी शांति मिली थी। अपनेपन के एहसास की गहराई से उसका डर दूर हो गया था।

वह मुझसे संवाद कर बैठी बोल पड़ी थी। मुझे पहचाना तुमने ,मैं वहीं गौरैया हूं  जिसका जन्म तुम्हारे आंगन में हुआ था। मेरी पीढ़ियां तुम्हारे आंगन के कोनों में खेली खाई पली बढ़ी है।  वो तुम ही तो हो जो बचपन में मेरे लिए दाना पानी रखा करते थे। दादी अम्मा के साथ गर्मियों में गंगा स्नान को जाया करते थे तथा उनके पीछे-पीछे चींटियों की बांबी पर सत्तू छिड़का करते थे। तुम्हारा घर आंगन मेरे बच्चों की चींचीं चूं चूं से निरंतर गुलजार रहा करता था। मेरे रहने का स्थान बंसवारी तथा पेड़ों के झुरमुट और तुम्हारे घर के भीतर बाहर खाली स्थान हुए  करते थे।

कितनी संवेदनशीलता थी तुम्हारे समाज के भीतर? कितना ख्याल रखते थे  तुम लोग पशुओं पंछियों का? लेकिन अचानक से समय बदला परिस्थितियां बदलीं समय  के  साथ तुम लोगों के हृदय की दया, ममता, स्नेह तथा संवेदनाये सब कुछ खत्म होता गया।

अब तो तुम सबका दिल इतना छोटा हो गया उसमें तुम्हारे मां बाप के लिए भी जगह नहीं बची, फिर हम लोगों का क्या? कौन करेगा हमारा ख्याल ? अरे अब तो अपने स्वार्थ में अंधे बने  हमारे रहने की भी जगह छीन ली है तुम लोगों ने।अब न तो हमारे पास भोजन है न तो पानी और ना ही तुम सबकी संवेदनायें ही बची है। अगर ऐसा ही रहा तो एक दिन हमारी पीढ़ियां प्राणी संग्रहालय में शोभा बढायेगी या फिर किताबों के पन्नों में दफ़न हो कर अपना दम तोड़ती नजर आएंगी। आखिर कब तक तुम लोग साल में एक दिन कभी गौरैया दिवस कभी शिक्षक दिवस कभी मदर्स डे, कभी फादर्स डे मना कर अपने दिल को झूठी तसल्ली देते रहोगे और फिर अत्यधिक रक्तस्राव के चलते बात करते हुए उसकी गर्दन एक तरफ की ओर झुकती चली गई, और वह सच में मर गई।

उसकी हालत देखते हुए मेरी आंखों से दो बूंदें छलक पड़ी थी, जिनका अस्तित्व उसके उपर गिर कर वातावरण में विलीन हो गया था और मै  उसका पार्थिव शरीर देख  अवाक रह गया था क्यो कि उसने मरते मरते भी सच का आइना जो दिखा दिया था।

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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