श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 99 ☆

☆ यज्ञ तथा प्राकृतिक पर्यावरण का मानव जीवन पर प्रभाव ☆

पृथ्वी सगंधसरसास्तथाप:, स्पर्शी च वायुर्ज्वलितं च तेज:।

नभ:  सशब्दं महतां सहैव, कुर्वंतु सर्वे मम सुप्रभातम्।

इत्थं प्रभाते परमंपवित्रम्, पठेतस्मरेद्वा श्रृणयाच्च  भक्त्या।

दु:स्वप्न नाशस्ति्त्व: सुप्रभातमं, भवेच्चनित्यम् भगवत् प्रसादात्।।

(वामन पुराण14-26,14-28)

अर्थात्–गंध युक्त पृथ्वी,रस युक्त जल,स्पर्शयुक्त वायु, प्रज्वलित तेज, शब्द सहित आकाश, एवम् महतत्त्व, सभी मिलकर कर मेरा प्रात:काल मंगल मय करें।

सहयज्ञा: प्रजा:सृष्ट्वा पुरोवाचप्रजापति।

अनेन‌ प्रसविष्यध्वमेण वोअस्तित्वष्ट काम धुक्।।

 देवानंद भावयतानेन ते देवा भावयन्तु व:।

परस्परं भावयंत:श्रेय: परमवाप्स्यथ।।

इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यंते यज्ञभाविता:।

तैर्दत्तान प्रदायभ्यो तो भुंक्तेस्तेन एवस:।।

(श्री मद्भागवतगीताअ०३-१०-११-१२)

अर्थात् सृष्टि के प्रारंभ में समस्त प्राणियों के स्वामी प्रजापति ने भगवान श्री हरि विष्णु के प्रीत्यर्थ, यज्ञ सहित मनुष्यों तथा देवताओं के संततियों की रचना की। तथा उनसे कहा कि तुम यज्ञ से सुखी रहो, क्यों कि इसके करने से तुम्हें सुख शांति पूर्वक रहने तथा मोक्ष प्राप्ति करने के लिए समस्त वांछित वस्तुएं प्राप्त होंगी, उन यज्ञों से पोषित  प्रसंन्न देवता वृष्टि करेंगे, इस प्रकार परस्पर सहयोग से सभी सुख-शांति तथा समृद्धि को प्राप्त होंगे। लेकिन जो देवताओं द्वारा प्रदत्त उपहारों को उन्हें अर्पित किए बिना उपभोग करेगा वह महाचोर है।

इस प्रकार श्रीमद्भागवत गीता में वर्णित श्लोक के चरणांश हमें शांत सुखी एवं आदर्श जीवन यापन की आदर्श शैली का सफल सूत्र तो बताती ही है।

हमारी जीवन पद्धति पूर्व पाषाण काल से लेकर आज तक लगभग प्रकृति की दया दृष्टि पर ही निर्भर है।जब पाषाण कालीन मानव असभ्य एवं बर्रबर था, सभ्यातायें विकसित नहीं थी, वह आग जलाना खेती करना पशुपालन करना नहीं जानता था। गुफा  पर्वतखोह कंदराएं ही उसका निवास होती थी। उस काल से लेकर वर्तमान कालीन  विकसित सभ्यता होने तक तमाम वैज्ञानिक आविष्कारों ने मानव समाज को  सुविधा भोगी आलसी एवं नाकारा एवम् पंगुं बना दिया, जिसके चलते हम प्रकृति एवम् पर्यावरण से दूर होते चले गए। हम आज भी उतनें ही लाचार एवम् विवस है जितना तब थे। बल्कि हम आज श्रीमद्भागवत गीता में वर्णित सिद्धांतों का परित्याग कर, प्रकृति का पोषण छोड़ उसका अंधाधुंध दोहन करने में लगे हुए हैं। हम प्राकृतिक नियमों की अनदेखी कर प्राकृतिक प्रणाली में  खुला हस्तक्षेप करने लगे हैं। जिसका परिणाम आज सारा विश्व भुगतता त्राहिमाम करता दीख रहा है। पर्यावरणीय असंतुलन अपने घातक स्तर को पार कर चुका है।

इसी क्रम में हमें याद आती है हमारे सनातन धर्म में वर्णित वेद ऋचाओं में शांति पाठ के उपयोगिता की, जिसमें पूर्ण की समीक्षा करते हुए लोक मंगल की मनोकामनाओं के साथ  समस्त प्राकृतिक शक्तियों पृथ्वी, अंतरिक्ष, वनस्पतियों औषधियों को शांत रहने के लिए आवाहित किया गया है। इस लिए वैदिक ऋचाओं का उल्लेख सामयिक जान पड़ता है।

 ऋचा—-

ऊं  पूर्णमद: पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्ण मुदच्यते।

पूर्णस्यपूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।।

ऊं द्यौ:शान्तिरन्तरिक्षऽशांति शांति:, पृथ्वीशांतराप: शांतिरोषधय: शांति।

वनस्पतय: शांतर्विश्वेदेवा: शांतिर्ब्ह्म शांति: सर्वऽवम् शांति शातिरेव शांति:सा मां शातिरेधि शांति:।

ऊं शांति:! शांति:!! शांति!! सर्वारिष्टा सुशांतिर्भवंति।।

आज अंतरिक्ष अशांत है, पृथ्वी अशांत है, धरती एवम् आकाश के सीने में कोलाहल से हलचल मची हुई है, जलवायु प्रदूषण परिवर्तन तीव्रतम गति से जारी है, वनस्पतियां औषधियां अशांत हो अपना स्वाभाविक नैसर्गिक गुण खो रही है।

जिसका परिणाम सूखा बाढ़ बर्फबारी, आंधी तूफान तड़ित झंझा के रूप में दृष्टि गोचर हो रहा है, लाखों लोग भूकंप महामारी भूस्खलन से काल कवलित हो रहे हैं। वे अपने आचार विचार आहार विहार की प्राकृतिक नैसर्गिकता से बहुत दूर हो गये है।

प्राचीन समय के हमारे मनीषियों ने प्रकृति के प्राकृतिक महत्त्व को समझा था। इसी कारण वह धरती का शोषण नहीं पोषण करते थे।

जिसके चलते हमें प्रकृति ने फल फूल लकड़ी चारा जडी़ बूटियां उपलब्ध कराये। जिनके उपभोग से मानव  सुखी शांत समृद्धि का जीवन जी रहा था, यज्ञो तथा आध्यात्मिक उन्नति के चलते मानव समाज, लोक-मंगल कारी कार्यों में पूर्णनिष्ठा लगन से तन मन धन से जुड़ा रहता था, वह तालाबों कूपों बावड़ियों का निर्माण कराता, बाग बगीचे लगाता जिसे समाज का पूर्ण सहयोग तथा समर्थन प्राप्त होता। मानव औरों को सुखी देख स्वयं सुखी हो लेता,उसके लिए अपना सुख अपना दुख कोई मायने नहीं रखता। आत्म संतुष्टि से ओत प्रोत जीवन दर्शन का यही भाव कविवर रहीम दास जी के इस दोहे से प्रतिध्वनित होता है।

गोधन गजधन बाजिधन, और रतन धन खान।

जब आवै संतोष धन, सब धन धूरि समान।।

लेकिन आज ज्यो ज्यो सभ्यता विकसित होती गई, प्रकृति के साथ हमारी संवेदनाएं तथा लगाव खत्म होता गया, हमारे आचार विचार व्यवहार अस्वाभाविक रूप से बदल गये, दया करूणा प्रेम सहानुभूति जैसे मानवीय मूल्यों की जगह हम स्वार्थी क्रूर अवसरवादी एवं उपभोग वादी बनते चले गये।

हमने जल जंगल जमीन के प्राकृतिक श्रोतों को काटना पाटना आरंभ कर दिया, पहाड़ों को नंगा कर ढहाने लगे, नदियों पर बांध बना तत्कालिक लाभ के लिए उसकी जीवन धारा ही छीन लिया।

उसमें शहरों की गंदी नालियों का जल-मल बहा उसे पनाले का रूप दे दिया। हमने अपने ही आंगन के पेड़ों कटाई कर उसकी छाया खत्म कर दिया, और हमारे शहर गांव कंक्रीट के जंगलों में बदलते चले गये  इस प्रकार हमारा जीवन भौतिक संसाधनों पर आश्रित होता चला गया, हमें अपनी संस्कृति अपने रीती रिवाज दकियानूसी लगने लगे, हमनें अपने कमरे तो ऐसी कूलर फ्रीज लगा ठंडा तो कर लिया लेकिन अपने वातावरण को भी जहरीली गैसों से भरते रहे आज हमारे शहर जहरीले गैस चेंबर में बदल गये है। भौतिक जीवन शैली और जलवायु परिवर्तन प्रदूषण ने जितना नुकसान आज पहुंचाया है उतना पूर्व काल में कभी भी देखा सुना नहीं गया।

आज इंसान अपने ही अविष्कारों के जंजाल में बुरी तरह फंस कर उलझ चुका है।

यद्यपि उसके द्वारा उत्पादित प्लास्टिक ने मानव जीवन को सुविधाजनक बनाया है लेकिन वहीं पर उसके न सड़ने गलने वाले प्लास्टिक एवम् इलेक्ट्रॉनिक रेडियो धर्मी कचरे ने पृथ्वी आकाश एवम् जलस्रोतों को इस कदर प्रदूषित किया है कि आज आदमी को पानी भी छान कर पीना पड़ रहा है।

मानव का जीना मुहाल होता जा रहा है। आज विश्व के सारे शहर प्लास्टिक के कचरे के ढेर में बदल रहे हैं। जिसके चलते डेंगू मलेरिया चिकनगुनिया  पीलिया हेपेटाइटिस तथा करोना जैसी महामारियां  तेजी से पांव पसार रही है।संक्रामक संचारी महामारियों के रूप पकड़ चुके हैं और इंसानी समाज अपने प्रिय जनों को खोकर मातम मनाने पर विवस है। जो आने वाले बुरे समय का भयानक संकेत दे रहा है जिससे दुनिया सहमी हुई है।हम अब भी नहीं चेते तो वह दिन दूर नहीं जब महाकाल नग्न नर्तन करेगा और एक दिन इंसानी सभ्यता मिट जायेगी। क्यौं कि हमने अपनी तबाही और बरबादी की सारी  सामग्री खुद ही जुटा रखी है।

इस क्रम में हम अपने पूर्वजों की जीवन शैली का अपनी जीवनशैली से तुलनात्मक अध्ययन करें तो पायेंगे कि उनके लंबी आयु का मुख्य आधार तनावमुक्त जीवन शैली थी। वे गुरुकुलो एवम् ऋषिकुल संकुलों में प्राकृतिक  साहचर्य में रहते थे। अपनी यज्ञशालाओं में वेदरिचाओं  का आरोह अवरोह युक्त सस्वर पाठ करते, उनकी ध्वनियों तथा यज्ञ में आहूत समिधा के जलने से उत्तपन्न सुगंध से सुवासित सारा वातावरण सुरभित हो महक उठता था और वातावरण की नकारात्मक उर्जा नष्ट हो सकारात्मक ऊर्जा में परिवर्तित हो उठती, सुबह शाम का संध्याबंदन अग्निहोत्र हमारी सांस्कृतिक जीवन शैली में प्राण चेतना भर कर उसे अभिनव गरिमा प्रदान करती, हम दिनभर सकारात्मक उर्जा से परिपूर्ण रहते, जिसके चलते हमारे समाज का जन जीवन उमंग उत्साह एवम् आनंद से परिपूर्ण होता, हमारे व्रतो त्यौहारों का उद्देश्य कहीं न कहीं  लोक-मंगल एवम पर्यावरण संरक्षण से जुड़ा है, लेकिन आज़ तो हमारे जीवन की सुरूआत ही गाड़ी मोटर के हार्नो की कर्कस आवाजों टी वी मिक्सचर के शोर से आरंभ होकर  शाम डी जे के शोर में ढलती है क्यों कि हमारा कोई भी उत्सव हो अब बिना डीजे के शोर और धूमधड़ाके के अश्लील एवम् फूहड़ दो अर्थी गीतों के पूरा ही नहीं होता, मानों समस्त कर्मकांडो के अंत में कोई नया कर्मकांड जुड़ गया है।

आज हमारी स्वार्थपरता ने हमारे अपने बच्चों का ही बचपन छीन लिया है, अपनी महत्त्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए उन्हें बलि का बकरा बना दिया है, उन्हें डाक्टर या इंजिनियर बनाने की चाहत में हमने उनके खेलने खाने के दिन कम कर दिए हैं, उनकी जिंदगी पाश्चात्य शिक्षा पद्धति की किताबों के बोझ तले दब कर घुट घुट कर सिसकने के लिए मजबूर है। उनकी बचपना की शरारतें खिलखिलाहट भरी नैसर्गिक मुस्कान उन्मुक्त हास्य कहीं मोबाइल फोन टीवी विडियो गेम के आकर्षण में खो गई है, टी वी नेट  तथा मोबाइल का अंधाधुंध दुरूपयोग बच्चों युवाओं को खेल के मैदान से दूर कर अपने मोह पास में कैद कर लिया है, जिससे उनका शारीरिक विकास तथा दमखम बुरी तरह प्रभावित हुआ है, और अंत में कमरों के भीतर अंधेरे में गुजरने वाला समय एकाकी पन का रूप पकड़ मानसिक अवसाद में परिवर्तित हो आत्महत्या का कारण भी बन रहा है उसके आकर्षण से क्या बच्चा क्या जवान क्या बूढ़ा कोई नहीं बचा। आज हमारे दिन की शुरूआत चिड़ियों के कलरव, बच्चों की किलकारियों, संगीत की स्वरलहरियों से नहीं, ध्वनिप्रदूषण वायुप्रदूषण के दौर से गुजरती हुई तनाव के साथ शाम की अवसान बेला क्लबों के शोर शराबे, नशे की चुस्कियों के बीच गुजरने के लिए बाध्य है, जो जीवन को दुखों के दरिया में डुबोने को आतुर दीखती है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि कि प्राकृतिक जीवन शैली यज्ञों एवम् लोक मंगल कारी सोच विचार का मानव जीवन तथा समाज पर बड़ा ही गहरा एवम् सकारात्मक प्रभाव होता है तथा जीवन शांति पूर्ण बीतता है।

और अंत में———————

#सर्वे भवन्तु सुखिन: की मंगल मनोकामना#

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈
image_print
0 0 votes
Article Rating

Please share your Post !

Shares
Subscribe
Notify of
guest

0 Comments
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments