श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 105 ☆
☆ मौन का संगीत – एकअनहद नाद ☆
अनहद नाद क्या है? यह क्यों है? आखिर इसकी जरूरत क्या है? यह विषय चिंतन का है। इस विषय पर साधना पथ पर चलने वाले अनेक योगी यति लोगों ने बहुत कुछ लिखा है। आज मैं अपने पाठक वर्ग से इस बिंदु पर अपने विचार साझा करना चाहता हूँ। यह मेरे अपने निजी विचार तथा अनुभव है। इस आलेख को आप पाठकों के समक्ष रख रहा हूँ इस उम्मीद से कि साधना पथ पर चलने वाला कोई नवपथिक इस आलेख के आलोक में कुछ अनुभूति कर सकें,और अपने शाब्दिक प्रतिक्रिया से अभिसिंचित कर सकें।
अनहद नाद, मौन का गीत एवं संगीत है, जिसे मौन में रह कर ही सुना समझा जा सकता है, जो इस अदृश्य अंतरिक्ष में अनंत काल से गूंज रहा है गूंजता रहेगा। और अविराम बजता रहेगा। उसे सुनने के लिए कोलाहल युक्त वातावरण नहीं, बाह्यकर्णपटल की नहीं, उस शांत एकांत वातावरण तथा मौन की आवश्यकता है, जो ध्वनि प्रदूषण वायुप्रदूषण मुक्त हो। जहाँ आप शांत चित्त बैठकर मौन हों अपने अंतर्मन में उतर कर उस अनहद नाद की शांत स्वर लहरी में खोकर पूर्ण विश्राम पा सकें। जहां कोलाहल के गर्भ से उपजी अनिंद्रा तनाव व थकान न हो। बस चारों तरफ प्राकृतिक सौंदर्य बोध हो, शांति ही शांति हो, जहां न कुछ पाना बाकी हो न कुछ खोना शेष हो। जहां आत्मसत्ता का साम्राज्य हो और वहीं आपकी मंजिल भी। आत्मा का परमात्मा से साक्षात्कार, शिव से जीव के मिलन, नदी से सागर के मिलन की आत्मतृप्ति की प्रक्रिया मात्र दृष्टि गोचर हो। आत्मचेतना परमात्मसत्ता में समाहित हो और सूक्ष्म विराट में समाहित हो, अपना अस्तित्व मिटा दे। फिर उन्हीं परिस्थितियों में मुखर हो अनहद नाद प्रतिध्वनित हो उठे। मौन का वह संगीत अंतरात्मा के आत्मसाक्षात्कार सुख के साथ उर अंतर में उतर जाय।
© सूबेदार पांडेय “आत्मानंद”
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