श्री राकेश कुमार
(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” आज प्रस्तुत है आलेख – “सात समंदर पार” की अगली कड़ी।)
☆ आलेख ☆ सात समंदर पार – भाग – 4 ☆ श्री राकेश कुमार ☆
वायुयान में प्रवेश से पूर्व कर्मचारी पुनः पासपोर्ट और टिकट की जांच कर रहें थे। ध्यान देने पर पत्ता चला ये सभी कर्मचारी तो हवाई अड्डे में प्रवेश के समय टिकट काट रहे थे, और सामान की प्राप्ति देने का कार्य कर रहे थे। वहां का कार्य समाप्त कर अब यहां व्यवस्था संभाल रहे हैं। निजी कम्पनियों की इस प्रकार की कार्य प्रणाली ही लाभ वृद्धि में सहायक होती हैं। टीवी पर आने वाले स्वर्गीय सरदार भट्टी जी के एक हास्य कार्यक्रम में भी इसी प्रकार से दिखाया गया था। भट्टी जी के हास्य में एक अलग मौलिकता हुआ करती थी।
वायुयान में यात्रा करने वाले सभी भारतीय ही थे, क्योंकि सबकी अधीरता बयां कर रही थी, कि सबसे पहले वो ही प्रवेश करें। हमें अपने मुंबई प्रवास के समय चर्चगेट स्टेशन की याद आ गई, जब ट्रेन में प्रवेश के लिए हम सब एक दूसरे को धक्का देकर प्लेटफार्म पर आई हुई ट्रेन में सीट पाने की लालसा में कमांडो कार्यवाही करने से भी गुरेज नहीं करते थे। शरीर के कई भागों में नील के निशान भी आसानी से दृष्टिगोचर हो जाते थे।
एयरलाइंस के कर्मचारियों को भी भीड़ नियंत्रण का अनुभव होता हैं। उद्घोषणा हुई कि सर्वप्रथम व्हील कुर्सी का उपयोग कर रहे यात्री और बिजनेस क्लास के यात्री प्रवेश करें। उसके पश्चात छोटे बच्चों वाले परिवार अंदर जा सकते हैं। हमारे जैसे अन्य प्रतीक्षा कर रहे यात्री अपनी बैचनी में एयरलाइंस की इस व्यवस्था को भी नापसंद करते हैं। सबको ज्ञात है, कि उनकी सीट आरक्षित है, परंतु फिर भी पहले प्रवेश की मानसिकता कहीं हमारे ओछेपन की प्रतीक तो नहीं हैं ?
क्रमशः…
© श्री राकेश कुमार
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