श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”


(आज  “साप्ताहिक स्तम्भ -आत्मानंद  साहित्य “ में प्रस्तुत है  राजभाषा माह के परिपेक्ष्य में स्थानीय / आंचलिक भाषा पर आधारित एक ज्ञानवर्धक लेख   “भोजपुरी बोली भाषा साहित्य तथा समाज”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य – भोजपुरी बोली भाषा साहित्य तथा समाज

किसी भी भाषा की  संरचना का मूल आधार व्याकरण है  बिना व्याकरण के ज्ञान के न तो कोई भाषा शुद्ध रूप से लिखी जा सकती है न  बोली जा सकती है न पढ़ी जा सकती  है।  भाषा साहित्य के ज्ञान के लिए व्याकरण का ज्ञान आवश्यक है। व्याकरण के ज्ञान द्वारा ही  त्रुटिहीन लेखन वाचन संभव होता है। जिस भाषा का प्रसार राष्ट्रीय स्तर पर होता है वह राष्ट्र भाषा का दर्जा प्राप्त करती है। जो भाषा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर लिखी पढ़ी बोली जाती है उसे अंतरराष्ट्रीय भाषा का दर्जा प्राप्त होता है। लेकिन राष्ट्र भाषा के साथ आंचलिक भाषा जिसे मातृभाषा कहते हैं भी बोली लिखी पढ़ी जाती है।

मातृभाषा का ज्ञान बच्चा बिना व्याकरण ज्ञान के मात्र माता पिता तथा परिवार से  सुनकर अथवा बोल कर प्राप्त करता है। क्षेत्रीय भाषा के साथ आंचलिक ‌भाषा भी बहुत महत्त्वपूर्ण है, आंचलिक भाषा का प्रभाव शब्दों  के उच्चारण  तथा बोलने के अंदाज में स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ता है। जैसे उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल से बिहार के भोजपुर तक बोली जाने वाली आंचलिक भाषा को भोजपुरी भाषा कहते हैं जो भोजपुरिया समाज द्वारा लिखी पढ़ी व बोली जाती है ।  जिसका असर राष्ट्र‌भाषा‌ पर   पड़ता है जो क्षेत्रीय अंचल के साथ बदलती चली जाती जैसे ‌पूर्वांचल में भोजपुरी, अवध में अवधी, मथुरा में ब्रज भाषा के रूप में बोली जाती है। या यूं कह लें, वह क्षेत्रीय लोक कलाओं, लोक संस्कृति तथा लोक संस्कारों का मातृभाषा पर गहरा असर दीखता है । जैसे राम-सीता तथा राधा-कृष्ण के कथा चरित्र पर आंचलिक भाषा का प्रभाव दिखता है। भाषा ज्ञान बच्चा बिना पढ़े लिखे मात्र सुनकर समझ कर भी बोल कर भी कर सकता है। आंचलिक भाषा की आत्मा उसकी लोक रीतियां लोक परंपराये तथा उनमें पलने वाली लोक संस्कृति ही आंचलिक भाषा को सुग्राह्य तथा समृद्ध बनाती है ।

तभी तो आंचलिक स्तर पर बोली जाने वाली भाषा भाव से समृद्ध होती है उसकी संस्कृति में रचा बसा माधुर्य लोक विधाओं का माधुर्य बन प्रस्फुटित होता है, जो अंततोगत्वा विधाओं की प्राण चेतना बन लोक साहित्य तथा लोक धुनों के रूप में अपने आकर्षण के मोहपाश में बांध लेता ह तथा श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर देता है। जो कभी आल्हा, कभी कजरी, कभी चैता के रूप में आम जन के मानस पर गहरी छाप छोड़ता है। कभी‌ बारह‌ मासा, कभी विदेशिया के रूप दृष्टिगोचर होता है। गो ० तुलसी‌ साहित्य  जो मुख्यत: अवधी ब्रज संस्कृति तथा भोजपुरी-मैथिली आदि के सामूहिक रूप का दर्शन कराता है तो वहीं सूर साहित्य पूर्ण रूप से ब्रज  भाषा पर आधारित है। जिसके संम्मोहन से कोई बच नहीं सकता, भर्तृहर-चरित्र, कृष्ण-सुदामा चरित आज भी अपने कारुणिक प्रसंग के चलते श्रोताओं की आंख में पानी भर देता है। भोजपुरी भाषा को उसके भावों को न  समझने वाला भी उसे गुनगुना लेता है, एक छोटा सा उदाहरण देखे—–

गवना कराई पियवा गइले बिदेशवा,
भेजले ना कवनो सनेश।
नेहिया के रस बोरी, पिरीति के डोरि तोरी।
गईले भुलाई आपन देश।
पुरूआ के गरदी से जरदी चनरमा पे,
देहिया के टूटे पोरे पोर।
घरवा में सेजिया पे तरपत तिरियवा,
दुखवा के नाही ओर छोर।

वहीं पर दूसरा उदाहरण देखे——

बगिया में गूजेला कोइलिया के बोलियां,
खेतवा  में बिरहा के तान ।
अंग अंग गोरिया के बंसरी बजावे रामा,
लोगवा के डोलेला ईमान ।
नखरा गोरकी पतरकी अजब करें हो,
जब नियरे बोलाई अब तब करें हो ।

अथवा —-जोगी जी धीरे धीरे ,नदी के तीरे तीरे, का नशा अभी भी लोगों की स्मृतियों में हावी है जिसे सुनते सुनते  आम जनमानस गुनगुना उठता है । इसी तरह तमाम आंचलिक ‌भाषायें अपनी संस्कृति का साहित्य  तमाम क्षेत्रीय घटनाक्रम क्षेत्रीय साहित्य के कथा कोष को समृद्ध करने का काम करती हैं। आत्मसौंदर्य समेटे लोकसंस्कृति तथा लोक विधाओं का ध्वज वाहक बनी दीखती है। तोता मैना, शीत बसंत, सोरठी बृजाभार की कहानियां आज भी उसी चाव से कही सुनी जाती हैं।

© सुबेदार पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

image_print
0 0 votes
Article Rating

Please share your Post !

Shares
Subscribe
Notify of
guest

0 Comments
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments