श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”


(आज  “साप्ताहिक स्तम्भ -आत्मानंद  साहित्य “ में प्रस्तुत है  कशी निवासी लेखक श्री सूबेदार पाण्डेय जी द्वारा लिखित आलेख  काशी महिमा–काशी‌ तीन लोक से न्यारी भाग–२”)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य – काशी महिमा–काशी‌ तीन लोक से न्यारी भाग–२ 

(दो‌ शब्द‌ लेखक के— काशी को मोक्षदायिनी नगरी कहा जाता है, हर व्यक्ति मोक्ष  की कामना ले अपने जीवनकाल में एक बार काशी अवश्य आना चाहता है।आखिर ऐसा क्या है? कौन सा आकर्षण है जो लोगों को अपनी तरफ चुंबक सा खींचता है? लेखक इस आलेख के द्वारा काशी, काशीनाथ, गंगा, अन्नपूर्णा तथा भैरवनाथ की महिमा से प्रबुद्ध पाठक वर्ग को अवगत कराना चाहता है। आशा है आपका स्नेह प्रतिक्रिया के रूप में हमें पूर्व की भांति मिलता ‌रहेगा ।  – सूबेदार पाण्डेय )

पिछले अंक में इस शोधालेख में आपने काशी तथा गंगा  के पौराणिक कथाओं ‌मान्यताओं के आधार पर उसकी जीवन शैली पौराणिक महत्व तथा विभूतियों के बारे लेखक की राय जानी, अब क्रमशःअगले भाग में काशी के बारे जनश्रुति तथा लोक मानस में व्याप्त ऐतिहासिक महत्त्व का अध्ययन करेंगे, तथा अपनी अनमोल प्रतिक्रिया से अभिसिंचित करेंगे।  जी हां ये वही काशी है, जहां आज भी लोग विश्व के कोने-कोने से शिक्षा संस्कृति तथा अध्यात्म की गहराई को नजदीक से जानने समझने की कामना लेकर आते हैं। तथा अध्यात्मिक सांस्कृतिक जीवन शैली की गहराई में डूबकर यहीं के‌ होकर रह जाते है।

वर्तमान समय में काशी के उत्तरी छोर पर बसा सारनाथ बौद्ध महातीर्थ यात्रा परिपथ है, यहीं से बौद्ध धर्म चक्र प्रवर्तन चला था, उसके उत्तर में जिले के अंतिम सीमा पर बसे कैथी ग्राम में गंगा गोमती के पावन संगम तट पर बसा  महाभारत कालीन मार्कण्डेय महादेव का ऐतिहासिक अतिप्राचीन मंदिर तथा तपस्थली है जिसके बारे में पौराणिक मान्यता है कि अपनी तपस्या के प्रताप से उन्होंने भगवान शिव को प्रसन्न कर अपने आयु बल  की पुनर्समीक्षा कर नवजीवन प्रदान करने के लिए   देवताओं को बाध्य  कर दिया था।

काशी के दक्षिण में महामना की ज्ञान बगिया भारतीय हिंदू युनिवर्सिटी है।

काशी के पूर्वी छोर पर गंगा के उस पार राजा बनारस का रामनगर का किला है, जहां आज भी राजसी आन बान शान के साथ एक माह तक अनवरत चलने वाला रामलीला का सांस्कृतिक मंचन तथा आयोजन होता है जो काशी के इतिहास की सांस्कृतिक धरोहर है। तथा सारे विश्व में राजपरिवार के मुखिया की पहचान भगवान शिव के सांस्कृतिक प्रतिनिधि के रुप में होती है। रामनगर किले के पास से बहने वाली गंगा अर्धचंद्राकार स्वरूप में बहती है जिसके जल में पड़ने वाले  द्वीप समूहों तथा  प्रकाश स्तंभों का झिलमिल प्रकाश  शिव के मस्तक पर चंद्रमा के होने का  मृगमरीचिका का भ्रम पैदा कर  देता है। वहीं पश्चिमी छोर पर पंचकोसी परिक्रमा पथ पर बसा महाभारत कालीन भगवान शिव का रामेश्वर महादेव स्वरूप काशी क्षेत्र को अभिनव गरिमा से भर देता है।

काशी में गंगा घाट पर उगते सूर्य के साथ सुबह बनारस, तथा  लखनवी  शामें अवध अपनी अद्भुत छवि के लिए सारे विश्व में प्रसिद्ध है, सबेरे की‌ गंगा घाट की सुर साधना तथा सायंकालीन गंगा आरती काशी के आध्यात्मिक सौंदर्य को नवीन आभा मंडल प्रदान करती है। यह काशी के आध्यात्मिक वातावरण का प्रभाव ही है, जो लोगों को बार बार काशी भ्रमण के लिए प्रेरित करता है।

राष्ट्रीय स्वतंत्रता के इतिहास में काशी वासियों का अभूतपूर्व योगदान रहा है। यहां के निवासियों का “अतिथि देवो भव” का सेवाभाव भक्ति साधनायुक्त जीवन-शैली से ओत-प्रोत फक्कडपन भरा खांटी देशी अंदाज की जीवन शैली लोगों के जीवन काल का अंग बन गई है। यहां रहनेवाला हर समुदाय तथा संप्रदाय का व्यक्ति उत्सवधर्मी है। यहां साल के तीसों दिन बारहों महीने कोई न कोई उत्सव चलता ही रहता है। जो काशी वासियों के हृदय में उमंग उत्साह का सृजन तो करता ही है, यात्रीसमूहों को आकर्षित भी करता है।तभी तो काशी की महिमा से आश्वस्त कबीर कहते हैं –  जौ काशी तन तजें कबीरा,रामै कौन निहोरा रे।

अर्थात् काशी में महाप्रयाण  करने पर तो मोक्ष अवश्यंभावी है, इसमें राम का कैसा एहसान है, और अंतिम समय में अपने सत्कर्मो के परीक्षण के लिए मगहर चले जाते हैं। अनेक लोक कहावतें भी काशी को महिमा मंडित करती हैं, तथा उसकी महत्ता दर्शाती है, लोक मानस में ये उक्ति प्रचलित है ———–

चना चबेना गंगजल, जौ पुरवै करतार।
काशी न कहूं छोडिये, विश्वनाथ दरबार।।

ये कहावत काशी वासियों के हृदय का उद्गगार है। जिसमें आत्मसंतुष्टि से ओत-प्रोत जीवन की अलग ही छटा दीखती है। जिस काशी की महिमा पुराणों तथा लोक मानस ने गाई है, उस काशी के बारे में यह भी किंवदंती है कि इसी काशी में बाबा विश्वनाथ ने मां अन्नपूर्णा से भिक्षा स्वरूप वरदान मांगा था कि यहां भूखा भले ही कोई उठे, पर सायंकाल कोई भी व्यक्ति भूखा न सोये।  काशी में मां गंगा तथा मां अन्नपूर्णा पेट भरने के लिए भोजन तथा पीने के लिए पवित्र गंगा जल हमेशा उपलब्ध कराती हैं। इस क्षेत्र में मां अन्नपूर्णा की कृपा सदैव बरसती है। यहां रहनेवाला कोई भी जीव चाहे पशु-पक्षी ही क्यों न हो, वह मां अन्नपूर्णा के आंचल की छांव तले सुखी शांत जीवन यापन करता है। यहां का धर्मप्राण चेतना युक्त जनसमूह पशुओं पंछियों बीमारों अपाहिजो सबका ध्यान रखता है। नर सेवा नारायण सेवा के कथन में विश्वास रखता है, बाबा विश्वनाथ को अवढरदानी भी कहते हैं। वह अपना सब कुछ लुटा कर लोगों का दुख हरते हैं।  इसी विश्वास और भरोसे पर तो  रामबनवास के समय अयोध्या में महाराज दशरथ का आकुल व्याकुल आर्तमन पुकार उठता है।

चौपाई  –

सुमिरि महेशहि कहहि निहोरी,आरति हरहुं सदाशिव मोरी।
आशुतोष तुम अवढरदानी, आरति हरहुं दीन जन जानी।।

(रा०च०मा०अयोध्या का०४४)

यही कारण है कि काशी में  विश्वनाथ, मां अन्नपूर्णा,  मां गंगा तथा  काशी कोतवाल भैरवनाथ प्रात: स्मरणीय तथा पूजनीय है। जिनके स्मरण मात्र से जीव स्थूल शरीर त्याग स्वयं शिवस्वरूप हो जाता है। इसी भरोसे तथा विश्वास के पुष्टि में कबीर लिख देते हैं———

हेरत हेरत हे सखी ,रहा कबीर हेराइ।
बूंद समानी समझ में अरु किछु कहा न जाइ।।

संभवतः यही कारण बना होगा इस कहावत  के पीछे कि – काशी तीन लोक से न्यारी।

© सुबेदार पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

image_print
0 0 votes
Article Rating

Please share your Post !

Shares
Subscribe
Notify of
guest

0 Comments
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments