सुश्री मालती मिश्रा ‘मयंती’

 

☆ सुविधाओं में सिमटते रिश्ते ☆

 

विधा- रेखाचित्र

आज जिंदगी चलती नहीं दौड़ती है, लोग  बोलते नहीं बकते हैं, आज के दौर में मानव जितनी तेजी से आगे बढ़ता जा रहा है, उतनी ही तेजी से अपना बहुत कुछ पीछे छोड़ता जा रहा है और विडंबना यह है कि उसे इसका आभास तक नहीं। जब सुविधाएँ कम थीं तब आपसी मेलजोल अधिक था, जैसे-जैसे सुविधाएँ बढ़ती गईं वैसे-वैसे मनुष्य अपने आप में सिमटता गया। पहले चाहे आवश्यकताओं के कारण ही सही पर एक-दूसरे से मेल-जोल, आपसी सौहार्द बना रहता था।

आज जब घर-घर में रंगीन टेलीविजन देखती हूँ, जिसपर सैकड़ों चैनल आते हैं, न जाने कितने सीरियल, रियलिटी शो, कॉमेडी शो और न जाने क्या-क्या आता है, तब वो समय याद आ जाता है जब टेलीविजन रखना सिर्फ संपन्न परिवारों की पहचान हुआ करती थी। बल्कि उस समय अधिकतर लोगों की यह सोच थी कि टेलीविजन रखना तो पैसे वालों के ही बस की बात है और उस समय श्वेत-श्याम टेलीविजन में दूरदर्शन चैनल आया करता था जिस पर कुछ ही गिने-चुने सीरियल और सप्ताह में दो दिन फिल्में वो भी देर रात ग्यारह बजे आती थीं। मुझे याद है हम तब फिल्में देखने के लिए कितने व्यग्र हुआ करते थे। देर रात को आने वाली फिल्म के लिए भी जागते रहते थे। रविवार को छुट्टी होने के बावजूद जल्दी इसलिए जाग जाते थे क्योंकि सुबह सात बजे से फिल्मी गीतों का कार्यक्रम ‘रंगोली’ आता था। उस समय हमारे घर में टी. वी. नहीं था तो हम पड़ोस के चाचा जी के घर टी. वी. देखा करते थे और दिन हो या रात सुबह हो या शाम, सभी कार्यक्रम वैसे ही देखते जैसे आजकल अपने घर में। उनके टी. वी. खरीदने का किस्सा मुझे अब भी याद है, एक दिन चाची ने कहा- “मालती मेरे पास कुछ पैसे हैं, जिसे मैंने सोने की चेन खरीदने के लिए जोड़े हैं, पर कभी सोचती हूँ कि टी. वी. खरीद लूँ, तुम्हारे चाचा तो चेन खरीदने को ही कह रहे हैं, पर तुम बताओ क्या खरीदना चाहिए?”

फिर क्या था! टी. वी. का नाम सुन मेरी तो बाँछें खिल गईं और मैं इतनी समझदार तो थी ही कि उनकी इच्छा क्या है ये समझ सकती। मैंने बड़े बुज़ुर्ग की तरह उन्हें समझाना शुरू किया। मैंने कहा-

“चाची चेन मँगवा कर किसे खुश करोगी? सिर्फ खुद को, हमेशा पहनोगी भी नहीं, बक्से में पड़ी रहेगी, सिर्फ मन ही मन में सोचकर खुश हो लोगी कि मेरे पास तो सोने की चेन है। न लोग जानेंगे न घर के किसी सदस्य को कोई संतुष्टि मिलने वाली है, जबकि टी. वी. लाओगी तो खुद भी खुश होगी, चाचा भी, आपके बच्चे भी खुश होंगे और हम लोग भी खुश होंगे, साथ-साथ स्टेटस भी बढ़ेगा वो अलग, तो खुद सोचो कि किस चीज़ की उपयोगिता अधिक है?” मेरा साथ उनके बच्चों ने भी दिया हाँ मम्मी.. हाँ मम्मी करके।

“तो अपने बाबूजी से क्यों नहीं कहती कि एक टेलीविजन ले लें? तुम्हारा भी स्टेटस बढ़ जाएगा, पैसे तो हैं ही उनके पास।” उन्होंने ने कहा।

“आप जानती हो बाबूजी से कहने की हिम्मत हम लोगों की नहीं है, नहीं तो आपसे न कहते।” मैंने कहा।

फिर क्या था! मेरी बात उनकी समझ में आ गई और उनके घर एक ब्लैक एंड व्हाइट टी.वी. आ गया।

अब जो भी कार्यक्रम हमें भाता हम जाकर टी. वी. चलाकर अपने आप देखते। उस समय रामानंद सागर द्वारा प्रस्तुत धारावाहिक ‘रामायण’ समाप्त हो चुका था पर उसका नशा लोगों के मस्तिष्क पर से अभी उतरा नहीं था, इसलिए नया पौराणिक धारावाहिक शुरू हुआ ‘महाभारत’। उस समय चाची का खपरैल की छत और मिट्टी की दीवारों वाला तीन कमरों और बड़े से आँगन और कच्ची लेकिन एक कमरे जितनी बड़ी रसोईघर वाला घर हुआ करता था। उनके कमरे के सामने की दीवार पर अन्य देवी-देवताओं के साथ सीता राम बने अरुण गोविल और दीपिका की फोटो भी उतनी ही श्रद्धा व भक्ति भाव से टँगी थी जितनी अन्य। उस समय लोग टेलीविजन या फिल्मों में जिसे भगवान के रूप में देखते थे उसे ही भगवान की तरह पूजने लगते थे। ऐसा भी नहीं है कि उन्हें सत्य ज्ञात न हो, पर सब कुछ जानते हुए भी वो पत्थर में भी भगवान को मान कर पूजने वाली भावना के वशीभूत थे। कहते हैं न! मानों तो देव नहीं तो पत्थर, इसीलिए वे उन कलाकारों को ही भगवान मान लेते थे।

अब रामायण की लोकप्रियता के बाद महाभारत का दौर चला। हम बच्चे सुबह चाय-नाश्ता, नहाने-धोने आदि के कार्यों से निवृत्त होकर ठीक नौ बजने से दो-चार मिनट पहले ही चाची के घर में टी.वी. के सामने आलथी-पालथी मारकर बैठ जाते। मुझे याद है इससे पहले रामायण देखने मैं लगभग आधा किलोमीटर से थोड़ी ही कम दूरी होगी, हमारे जान-पहचान के एक ठाकुर जी का परिवार था, उनके घर जाया करती थी। पहले टी.वी. जैसी चीज कम घरों में होती थी पर वो घर सभी के लिए खुले होते थे। न ही कोई मना करता था और न ही नाक-भौं चढ़ाते थे, दरअसल पहले रिश्ते और आपसी व्यवहार भौतिक वस्तुओं से अधिक मूल्यवान समझे जाते थे।

उस समय इन धार्मिक सीरियल के प्रति लोग भावनात्मक रूप से जुड़ चुके थे, इसीलिए लोगों के विरोध के भय से KESA विभाग ने भी चाहे चौबीस घंटे बिजली काट रखी हो पर महाभारत के समय बिजली जरूर आती, फिर चाहे महाभारत खत्म होते ही चली जाती। हमने अप्रैल के अंत तक तो निर्बाध रूप से महाभारत देखा परंतु ग्रीष्मावकाश में हम हर वर्ष की भाँति  गाँव चले गए। अब हमारा महाभारत सीरियल छूट जाएगा, इस बात की चिंता होने लगी थी।

गाँव में मेरा पहला रविवार था, सुबह से रह-रहकर मन उदास हो जाता कि आज महाभारत नहीं देख पाएँगे और आज ही क्यों कम से कम जुलाई के आधे माह तक तो हमारा पूरा परिवार गाँव में ही रहते थे, जब धान की रोपाई खत्म हो जाती थी तब बाबूजी हमें लेकर कानपुर वापस जाते थे। वैसे तो हर बार की तरह सबकुछ अच्छा था बस एक टी.वी. और होता तो मजा आ जाता। हम भाई-बहन आने से पहले भी यही चर्चा कर रहे थे और अब सचमुच इस एक कमी ने सारा मजा किरकिरा कर दिया था। लगभग साढ़े आठ बज चुके थे कमबख्त दिमाग था कि कितना भी इधर-उधर के कामों में मन लगाने की कोशिश करती पर घूम-फिर कर बार-बार सोच की सुई महाभारत पर ही जाकर अटक जाती। गाँव की ही एक महिला आईं जिन्हें मैं दादी कहती थी, मुझे पुकार कर बोलीं- “महाभारत देखने चलोगी?” मुझे अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ, पर अम्मा बोलीं- “हाँ ले जाओ, ये भी मन ही मन महाभारत देखने के लिए बेचैन हो रही है।”

“क्या सचमुच गाँव में किसी के घर टी.वी. है?” मैं आश्चर्यचकित होकर बोली।

“नहीं गाँव में नहीं है, बेलपोखरी स्कूल में है, सब वहीं जाते हैं देखने।” अम्मा बोलीं।

“पर बाबूजी? वो जाने देंगे? मैंने अपना डर व्यक्त किया।

“वो कुछ नहीं कहेंगे, अगर तुम जाना चाहती हो तो जाओ।” अम्मा बोलीं।

ये वही स्कूल है जहाँ मैंने कक्षा तीसरी और चौथी की पढ़ाई की थी, उसके बाद मैं फिर कानपुर चली गई थी। मैं खुशी-खुशी तैयार हो गई, मेरे साथ मेरी दादी और छोटी दादी (बाबू जी की चाची) भी गईं। वह स्कूल हमारे घर से कोई पंद्रह-बीस मिनट की दूरी पर था पर जब कई लोग एक साथ होते हैं तो चलने की गति स्वाभाविक रूप से कम हो जाती है। लिहाज़ा हम लोग लगभग २५-३० मिनट में पहुँचे। पर स्कूल अब वहाँ बगीचे में नहीं था, जहाँ पहले हुआ करता था, वहाँ तो उसकी कच्ची दीवारों के खंडहर ही थे। मुझे बड़ी हैरानी हुई वहाँ की बोलती खामोशी को देखकर। हम यहाँ महाभारत देखने आए हैं और यहाँ तो शांति की की भी आवाज सुनाई दे रही है। टूटी-फूटी दीवारें कुछ अलग ही महाभारत की कहानी बयाँ कर रही हैं। मैं हतप्रभ थी, मैंने दादी से पूछा कि “ये सब क्या है? स्कूल कहाँ है? यहाँ तो कुछ भी नहीं है।” तब दादी ने बताया कि स्कूल अब गाँव में चला गया है, मैं भी उन सभी का अनुसरण करते हुए बेलपोखरी गाँव तक गई, जो इस बगीचे से मात्र ५ मिनट का रास्ता था। गाँव के बाहर ही स्कूल था भीड़ इतनी थी कि किसी फिल्म हॉल में भी क्या होगी। जगह-जगह लोग बैठे थे कुछ लोग पुआल के ऊँचे ढेरों पर चढ़कर बैठे थे तो जितने आ सकते थे उतने वहाँ खड़े ट्रैक्टर और ट्रॉली पर चढ़कर बैठे थे, कितने ही लोग जगह-जगह खाट डालकर उनपर बैठे थे। टी.वी. स्कूल के बरामदे में ऊँचाई पर इस तरह रखी हुई थी कि दूर-दूर तक बैठे लोगों को दिखाई पड़ सके। नीचे कम से कम सौ-सवा सौ के आस-पास महिलाएँ और बच्चे अपने घरों से लाई बोरियाँ बिछाकर बैठे थे। महाभारत शुरू हो चुका था “मैं समय हूँ…” चल रहा था, मुझे समझ नहीं आ रहा था कहाँ बैठूँ…जगह ही नहीं थी, दादी लोग तो भीड़ में घुसकर वहीं मिट्टी में जहाँ जगह मिली बैठने लगीं, मुझे भी कहा “यहीं कहीं जगह बनाकर बैठ जाओ” पर मैं उस जगह पर अपने आप को गँवार महसूस कर रही थी और खड़ी होकर इधर उधर जगह देखने की कोशिश कर ही रही थी कि तभी मेरे आगे से आवाज आई, “अरे मालती तुम यहाँ! आओ..आओ..यहाँ बैठो।” और मैं हतप्रभ हो अपनी जगह से हिले बिना उस लड़की को देखने लगी जिसने पलक झपकते ही अपने आस-पास की लड़कियों को खिसका कर मेरे लिए अपनी ही बोरी पर जगह बना दिया था। “क्या हुआ, तुम पहचानी नहीं हमको? हम लोग तुम्हारे साथ ही तो इसी स्कूल में पढ़ते थे, आओ पहले बैठो।” उसने हाथ से अपने बराबर में खाली की गई जगह पर हथेली मारते हुए संकेत करते हुए कहा। मैं अपने दिमाग पर जोर डालती हुई महिलाओं के बीच से जगह बनाती हुई उस लड़की के पास जाकर बैठ गई। उसने अपने साथ बैठी कुछ लड़कियों का और अपना नाम बताकर खुद का परिचय करवाया और दूसरी अन्य मेरे गाँव की लड़कियों के बारे में पूछा तो मैंने बता दिया कि मैं यहाँ नहीं कानपुर में रहती हूँ, इसलिए किसी के विषय में पता नहीं। छोटे से औपचारिक परिचय के बाद हम चुपचाप महाभारत देखने में खो गए। महाभारत के खत्म होते ही भीड़ रूपी ग्रामीण पुरुष महिलाएँ बच्चे सभी अपनी-अपनी जगह से खड़े हुए और अपने-अपने रास्ते चल दिए। मैं भी जाने को उद्यत हुई तब उस लड़की ने मुझे हर सप्ताह वहीं आकर महाभारत देखने का आमंत्रण देते हुए मेरे लिए जगह सुरक्षित रखने का वादा किया। मैंने भी पुन: आने का वादा किया। भीड़ को देखकर मुझे कानपुर के उस सिनेमा हॉल की याद आ गई जो मिलिट्री कैंट में था और संध्या समय फिल्म खत्म होते ही लोग अपने-अपने घरों के लिए जाते हुए ऐसे प्रतीत होते थे जैसे गाँव में गोधूलि के समय खेतों और चारागाह से घरों की ओर लौटते हुए पशु झुंड के झुंड किंतु एक सीधी कतार में चलते थे’ वैसे ही धनुषाकार  पगडंडी पर चलते हुए लोग दिखाई दे रहे थे मानों दूर तक एक धनुषाकार रेखा सी खिंच गई हो।

अब तो गाँव में भी मेरा मन लग गया क्योंकि अपना प्रिय सीरियल अब छोड़ना नहीं पड़ेगा बल्कि लाइट का भी कोई समस्या नहीं थी क्योंकि टी.वी. जनरेटर से चलती है, और तो और दूर से जाने के कारण बैठने की जगह नहीं मिलेगी यह सोच भी खत्म, अब न सिर्फ जगह मिलेगी बल्कि धूल मिट्टी में भी नहीं बैठना पड़ेगा बल्कि बोरी या चटाई बिछी-बिछाई मिलेगी। दादी लोग भी मेरी उस अंजान सहेली की चर्चा कर रही थीं कि किस प्रकार उसने मेरे लिए जगह बनाई। उनकी बातें सुनकर एक ओर तो मुझे गर्वानुभूति हो रही थी तो दूसरी ओर मस्तिष्क में उहा-पोह मची हुई थी कि आखिर वो लड़की कौन थी? उसने मुझे पहचान लिया पर मुझे वो क्यों याद नहीं आ रही थी? मुझे उस समय अपनी कक्षा की सिर्फ वे लड़कियाँ याद आ रही थीं जो हमारे ही गाँव के दूसरे पुरवा से आती थीं। बेलपोखरी से भी लड़कियाँ पढ़ती थीं पर मुझे उनमें से कोई भी याद नहीं और ये लड़की भी उन्हीं में से थी। मैं हतप्रभ हो रही थी कि लगभग चार-पाँच सालों के बाद भी मैं उन लोगों को अच्छी तरह से याद थी पर अफसोस कि लाख कोशिशों के बाद भी मैं आज तक उन लड़कियों को पहचान नहीं पाई। मैं जब भी सोचती हूँ मन ही मन उन लड़कियों की याददाश्त, उनकी सहृदयता और स्नेह  के प्रति नतमस्तक हो जाती हूँ साथ ही आज भी ग्लानि का अनुभव होता है कि मुझपर शहर में रहने का इतना प्रभाव पड़ा कि मैं हृदयहीन हो अपने साथ पढ़ने वाली उन सहपाठिनों को पहचान भी न सकी।

 

©मालती मिश्रा ‘मयंती’✍️

 

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