श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार एवं वैज्ञानिक श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे  उनके स्थायी स्तम्भ  “आशीष साहित्य”में  उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय।  इस कड़ी में आज प्रस्तुत है  एक महत्वपूर्ण  एवं  ज्ञानवर्धक आलेख  सूर्यग्रहण। )

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☆ सूर्यग्रहण

सिंहिका हिरण्यकशिपु की पुत्री और छाया ग्रह राहु (जो सूर्य और चंद्रमा पर ग्रहण लगाने के लिए जिम्मेदार होता है) की माँ थी। जैसे सिंहिका का पुत्र राहु, सूर्य और चन्द्रमा पर ग्रहण लगा सकता है इसी तरह वह हवा पर ग्रहण लगा सकती थी ।

राहु और केतु राहु हिन्दू ज्योतिष के अनुसार असुर स्वरभानु का कटा हुआ सिर है, जो ग्रहण के समय सूर्य और चंद्रमा का ग्रहण करता है । इसे कलात्मक रूप में बिना धड़ वाले सर्प के रूप में दिखाया जाता है, जो रथ पर आरूढ़ है और रथ आठ श्याम वर्णी घोड़ों द्वारा खींचा जा रहा है। वैदिक ज्योतिष के अनुसार राहु को नवग्रह में एक स्थान दिया गया है । दिन में राहुकाल नामक मुहूर्त (24 मिनट) की अवधि होती है जो अशुभ मानी जाती है । समुद्र मंथन के समय स्वरभानु नामक एक असुर ने धोखे से दिव्य अमृत की कुछ बूंदें पी ली थीं । सूर्य और चंद्र ने उसे पहचान लिया और मोहिनी अवतार में भगवान विष्णु को बता दिया । इससे पहले कि अमृत उसके गले से नीचे उतरता, विष्णु जी ने उसका गला सुदर्शन चक्र से काट कर अलग कर दिया । परंतु तब तक उसका सिर अमर हो चुका था । यही सिर राहु और धड़ केतु ग्रह बना और राहु सूर्य- चंद्रमा से इसी कारण द्वेष रखता है । इसी द्वेष के चलते वह सूर्य और चंद्र को ग्रहण करने का प्रयास करता है । ग्रहण करने के पश्चात सूर्य राहु से और चंद्र केतु से, उसके कटे गले से निकल आते हैं और मुक्त हो जाते हैं ।

केतु भारतीय ज्योतिष में उतरती लूनर नोड को दिया गया नाम है । केतु एक रूप में स्वरभानु नामक असुर के सिर का धड़ है । यह सिर समुद्र मन्थन के समय मोहिनी अवतार रूपी भगवान विष्णु ने काट दिया था । यह एक छाया ग्रह है । माना जाता है कि इसका मानव जीवन एवं पूरी सृष्टि पर अत्यधिक प्रभाव रहता है । कुछ मनुष्यों के लिये यह ग्रह ख्याति दिलाने में अत्यंत सहायक रहता है । केतु को प्रायः सिर पर कोई रत्न या तारा लिये हुए दिखाया जाता है, जिससे रहस्यमयी प्रकाश निकल रहा होता है । भारतीय ज्योतिष के अनुसार राहु और केतु, सूर्य एवं चंद्र के परिक्रमा पथों के आपस में काटने के दो बिन्दुओं के द्योतक हैं जो पृथ्वी के सापेक्ष एक दुसरे के उलटी दिशा में (180 डिग्री पर) स्थित रहते हैं । चूँकिये ग्रह कोई खगोलीय पिंड नहीं हैं, इन्हें छाया ग्रह कहा जाता है । सूर्य और चंद्र के ब्रह्मांड में अपने-अपने पथ पर चलने के कारण ही राहु और केतु की स्थिति भी साथ-साथ बदलती रहती है । तभी, पूर्णिमा के समय यदि चाँद केतु (अथवा राहू) बिंदु पर भी रहे तो पृथ्वी की छाया पड़ने से चंद्र ग्रहण लगता है, क्योंकि पूर्णिमा के समय चंद्रमा और सूर्य एक दुसरे के उलटी दिशा में होते हैं । ये तथ्य इस कथा का जन्मदाता बना कि “वक्र चंद्रमा ग्रसे ना राहू” । अंग्रेज़ी या यूरोपीय विज्ञान में राहू एवं केतु को क्रमशः उत्तरी एवं दक्षिणी लूनर नोड कहते हैं । तथ्य यह है कि ग्रहण तब होता है जब सूर्य और चंद्रमा इन बिंदुओं में से एक पर सांप द्वारा सूर्य और चंद्रमा की निगलने की समझ को जन्म देता है । प्राचीन तमिल ज्योतिषीय लिपियों में, केतु को इंद्र के अवतार के रूप में माना जाता था । असुरों के साथ युद्ध के दौरान, इंद्र पराजित हो गया और एक निष्क्रिय रूप और एक सूक्ष्म राज्य केतु के रूप में ले लिया । केतु के रूप में इंद्र अपनी पिछली गलतियों, और असफलताओं को अनुभव करने के बाद भगवान शिव की आध्यात्मिकता की ओर अग्रसर हो गया ।

सूर्य ग्रहण अगर रविवार को हो तो ऐसे रविवार को ‘महाश्वेत-प्रिया’ कहा जाता है  इस रविवार को ‘महाश्वेत’ मंत्र का जाप बहुत फायदेमंद होता है 

भारतीय ज्योतिष के अनुसार राहु और केतु सूर्य एवं चंद्र के परिक्रमा पथों के आपस में काटने के दो बिन्दुओं के द्योतक हैं जो पृथ्वी के सापेक्ष एक दुसरे के उल्टी दिशा में (180 डिग्री पर) स्थित रहते हैं । क्योंकि ये ग्रह कोई खगोलीय पिंड नहीं हैं, इन्हें छाया ग्रह कहा जाता है । सूर्यऔर चंद्र के ब्रह्मांड में अपने- अपने पथ पर चलने के अनुसार ही राहु और केतु की स्थिति भी बदलती रहती है । तभी, पूर्णिमा के समय यदि चाँद राहू (अथवा केतु) बिंदु पर भी रहे तो पृथ्वी की छाया पड़ने से चंद्र ग्रहणलगता है, क्योंकि पूर्णिमा के समय चंद्रमा और सूर्य एक दुसरे के उलटी दिशा में होते हैं । ये तथ्य इस कथा का जन्मदाता बना कि “वक्र चंद्रमा ग्रसे ना राहू”। अंग्रेज़ी या यूरोपीय विज्ञान में राहू एवं केतु को को क्रमशः उत्तरी एवं दक्षिणी लूनर नोड कहते हैं ।

क्या आप सौर ग्रहण के विषय में जानते हैं? जब चंद्रमा सूर्य और पृथ्वी के बीच आता है, पृथ्वी पर सूर्य का कोई प्रकाश नहीं पहुँचता है (यह केवल नए चंद्रमा तिथि या अमावस्या के दिन होता है), इसका अर्थ है कि चंद्र ऊर्जा (मानसिक ऊर्जा) या इड़ा भौतिक ऊर्जा (पिंगला) पर हावी हो कर उसे अवरुद्ध करती है । उस समय शरीर को आराम देना चाहिए और कोई शारीरिक कार्य नहीं करना चाहिए, लेकिन वह समय मानसिक गतिविधियों के लिए उत्तम है । इसी प्रकार चंद्र ग्रहण पर, पृथ्वी (मूलाधार चक्र) सूर्य (पिंगला) और चंद्रमा इड़ा के बीच में होती है, और सूर्य की रोशनी चंद्रमा तक पहुँचने से वंचित रह जाती है । इस समय मन को सूर्य (पिंगला) से प्रकाश नहीं मिलता है और उस समय कोई भारी मानसिक गतिविधि नहीं करनी चाहिए, अन्यथा यह आपके स्वास्थ्य को भी प्रभावित करेगा, और इसके परिणाम भी आपकी इच्छा के अनुसार नहीं जायँगे ।

आशीष ने बाधा डाली, “क्षमा करें महोदय, लेकिन मूलाधार चक्र का स्थान और पिंगला और इड़ा नाड़ी का पथ भी मानव शरीर के अंदर स्थिर हैं । तो मूलाधार चक्र, पिंगला और इड़ा नाड़ी के बीच में है इसका क्या अर्थ हुआ?”

विभीषण ने उत्तर दिया, “हाँ, लेकिन जैसा कि मैंने आपको कई बार बताया है, विभिन्न नाड़ियों में प्राण वायु का प्रवाह निश्चित नहीं है, यहाँ तक कि हमारे शरीर की विभिन्न नाड़ियों के अंदर इसकी तीव्रता भी स्थिर नहीं होती है । मेरे कहने का वो ही अर्थ है अब मैं आपको कुछ और बातें बताऊँगा । इसके अतिरिक्त मैंने आपको अन्य ग्रहों के विषय में भी बताया था, हमारे सौर मंडल के अस्तित्व में सात मुख्य ग्रह माने जाते हैं । चूंकि चेतना उच्च आवृत्ति पर पदार्थ और कंपन से मुक्त हो जाती है, तो आत्मा भुलोक से भुव: लोक, स्वा: लोक, महा लोक, जन लोक, तप लोक और सत्य लोक में जाता हैं । ये लोक हमारे अस्तित्व की स्थिति का अधिक सूक्ष्म क्षेत्रों में प्रगति का प्रतिनिधित्व करते हैं । यह प्रगति हमारे मस्तिष्क की पदार्थ से आजादी और मुक्ति पर निर्भर करती है । जब मन और पदार्थ अलग हो जाते हैं, तो ऊर्जा निकलती है । शरीर के सात चक्र, या सात लोक तामस गुण से राजस गुण से सत्त्विक गुण से शुद्ध चेतना तक हमारी प्रगतिशील चेतना का प्रतिनिधित्व करते हैं ।

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

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