हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ “हाँ लगता है कि मैं जीवित हूँ! – आचार्य डॉ. आनंदप्रकाश दीक्षित” ☆ – श्री संजय भारद्वाज
श्री संजय भारद्वाज
(श्री संजय भारद्वाज जी द्वारा लिखित नवनीत के दिसम्बर अंक में आचार्य डॉ. आनंदप्रकाश जी दीक्षित की स्मृति में एक लेख प्रकाशित हुआ है। हमारे आग्रह पर श्री संजय भारद्वाज जी द्वारा यह लेख हाँ लगता है कि मैं जीवित हूँ! – आचार्य डॉ. आनंदप्रकाश दीक्षितआपसे साझा कर रहे हैं। )
☆” हाँ लगता है कि मैं जीवित हूँ! – आचार्य डॉ. आनंदप्रकाश दीक्षित” – श्री संजय भारद्वाज☆
5 नवंबर 2019 को हिंदी आलोचना के शिखर पुरुष और रस सिद्धांत के पुरोधा आचार्य डॉ. आनंदप्रकाश दीक्षित का निधन हो गया। पुणे विश्वविद्यालय में लंबे समय तक अध्यापन करने वाले डॉक्टर दीक्षित 1985 में हिंदी विभाग के प्रमुख के रूप में सेवानिवृत्त हुए थे। तत्पश्चात वर्ष 2010 तक वे प्राध्यापक के रूप में सक्रिय रहे।
आचार्य डॉ. आनंदप्रकाश दीक्षित
डॉक्टर दीक्षित का जन्म माघ शुक्ल द्वितीया विक्रम संवत 1980 (अंग्रेजी वर्ष 1923/24) को हुआ था। माता-पिता के अलावा घर में तीन भाई और थे, दो उनसे बड़े और एक छोटा। पिता संस्कृत के अध्यापक थे। दोनों बड़े भाई भी हिंदी साहित्य से जुड़े हुए थे। फलत: साहित्य का संस्कार उन्हें बचपन से मिला। नवीं में पढ़ते थे तब मासिक ‘दीपक’ में ‘मातृस्नेह’ शीर्षक से उनका एक लेख प्रकाशित हुआ था। आरंभिक दिनों में वे ‘सर्वजीत’ उपनाम से लिखा करते थे। उन दिनों बच्चन जी की ‘सप्तरंगिणी’ प्रकाशित हुई थी। इस पर दीक्षित जी का आलोचनात्मक लेख लाहौर से प्रकाशित होने वाली वाले ‘विश्वबंधु’ ने पूरे पृष्ठ पर प्रकाशित किया था। पंडित विजयशंकर भट्ट ने एस लेख की प्रशंसा की थी। यहीं से कविता की आलोचना के क्षेत्र में उनकी रुचि, उनका जीवन बन गई।
वर्ष 2016 में हिंदी आंदोलन परिवार की वार्षिक पत्रिका ‘हम लोग’ के लिए मैंने उनका साक्षात्कार किया था। रुचि को जीने की इस यात्रा पर इस साक्षात्कार में उन्होंने भाष्य किया था। बकौल डॉ. दीक्षित, “कविता में अर्थ की जो गहनता हम पाते हैं, वह किसी दूसरी विधा में नहीं मिलती। पहली बार तो कविता का केवल ऊपरी अर्थ समझ में आता है, उसके प्रति आसक्ति जागृत होती है। यदि आप विचारक हैं तो उसका अर्थ समझने के लिए आगे बढ़ेंगे। उसके लिए बार-बार कविता पढ़नी पड़ेगी। बार- बार पढ़ने से कविता ऐसी रच जाएगी कि अर्थ पर अर्थ निकलने लगेंगे। तब कविता चमत्कारी चीज़ हो जाती है।”
समकालीन कविताओं को लेकर उनका मानना था कि आज जो कविताएँ लिखी जा रही हैं, उनके छंद और उक्ति में परिवर्तन है। पुरानी कविता में कोई सूक्ति रहती थी, कोई ना कोई उपमान रहता था जिससे सौंदर्य आता था। उसकी विशेषताएं आकर्षित करती थीं। अब कविता पत्रकारिता की तरह हो गई है। वर्तमान का वर्णन करके वे चुप हो जाती हैं। जब आप घटित के बारे में लिखने लगते हैं तो इससे एकरूपता आ जाती है। इनसे इतिहास तो हमें मिल जाएगा लेकिन भविष्य में इनसे जीवन का दृश्य क्या मिलेगा?
अलबत्ता कविता की प्रयोजनीयता सर्वदा बनी रहेगी। कविता अच्छी नहीं है तो निष्प्रयोजन हो जाएगी लेकिन इससे सारी कविताएँ निष्प्रयोजन नहीं हो जातीं। आदमी सदैव कविता पढ़ना चाहेगा।
आलोचना की मीमांसा करते हुए उन्होंने टिप्पणी दी, “आलोचना दो प्रकार की होती है। पहला प्रकार अध्ययन करके गहनता से आलोचनात्मक लेख लिखना है तो दूसरा प्रकार समीक्षाएँ लिखना है। समीक्षा ऊपरी तल पर रह जाती है। विवेकपूर्ण लंबी आलोचना जो समझदारी से लिखी जाती है, उसका महत्व होते हुए भी मैं यह मानता हूँ कि आलोचक दूसरे दर्जे का नागरिक बनता है। आलोचक तब लिखेगा जब उसके सामने सर्जन होगा। सर्जनात्मकता पहली चीज़ है। सर्जनात्मकता में भावुकता है, आलोचना में विवेक को संभालना पड़ता है। तर्क-वितर्क संभालना पड़ता है, शास्त्र का ध्यान रखना होता है। आलोचना बहुत कठिन कर्म है।”
कवि की अनुभूति और आलोचक द्वारा ग्रहण किये गए भाव के अंतर्सम्बंध पर उनका कहना था कि कई बार आलोचक वहाँ तक नहीं पहुँच पाता। लेकिन यह भी है कि कई बार कवि का सोचा हुआ भी नहीं होता।
उनसे बातचीत में अनेक पहलू खुलते गए। आज का लेखक अपनी कमजोरी को बर्दाश्त नहीं कर पा रहा। उस पर चर्चा नहीं करना चाहता। अपना अनुभव साझा करते हुए उन्होंने कहा कि जिन भी कवियों को उन्होंने उनकी कविता की कमजोरियों के बारे में बताया, उनमें से अधिकांश बुरा मान गए।
आचार्य जी भाषा के क्रियोलीकरण के विरुद्ध थे। उनका विचार था कि इसके पक्षधर विशेषकर समाचारपत्र यह दिखाना चाहते हैं कि व्यवहार में इस तरह की भाषा चलती है। अख़बारवालों को लगता है कि ऐसी मिली-जुली भाषा के उपयोग से युवा वर्ग तक पहुँचा जा सकता है। वस्तुतः हमें इस बात का अभ्यास नहीं है कि हम शुद्ध भाषा का उपयोग कर सकें। हम कभी शब्दकोश देखने या सोचने का भी प्रयत्न नहीं करते। सत्य तो यह है कि दुभाषिया भी शब्दश: अनुवाद न करके सार अपनी भाषा में कहता है।
हिंदी विषय लेकर उच्च शिक्षा प्राप्त करने वाले विद्यार्थियों की तुलनात्मक रूप से घटती संख्या का सबसे बड़ा कारण उन्हें इस विषय को पढ़कर विद्यार्थियों को रास्ते खुलते हुए नहीं दिखाई देना लगता था। विडंबना है कि ज्ञान के लिए जो हिंदी पढ़ना चाहता है उसे केवल साहित्य पढ़ाया जाता है। साहित्य तो बिना पाठशाला या कॉलेज में पढ़े अलग से पढ़ा जा सकता है। लोगों को इंजीनियर या टेक्नीशियन बनना है तो केवल साहित्य पर निर्भर नहीं रहा जा सकता। हिंदी को समुचित स्थान दिलाने के लिए जो किया जाना चाहिए था, अब तक नहीं किया जा सका है।
हिंदी वालों से एक शिकायत उन्हें सदा रही कि हिंदीक्षेत्र में काम करने वाले लेखक को ही वे लेखक मानते हैं लेकिन जो बाहर निकल आए हैं या अहिंदीभाषी प्रदेशों के रहनेवाले हैं, उन्हें वे लेखक नहीं मानते। जब आप हिंदी को राष्ट्रभाषा कहते हैं तो सभी प्रदेशों के लोगों का सहयोग चाहिए। हिंदी के विस्तार को हमने खुद ही रोक दिया है। एक बात और, जो मराठीभाषी हिंदी पढ़ कर हिंदी में लिख रहा है, मराठी मंच उसे स्वीकार नहीं करता। यहाँ बस गए हिंदी के लेखकों को हिंदी प्रदेशों के मंच अब याद नहीं करते। ऐसे लेखक दोनों ओर से तिरस्कृत हैं।
सांप्रतिक जीवन में संवाद के अभाव को लेकर वे चिंतित थे। “आजकल संवाद नहीं हो रहा है। बिना संवाद के बुद्धि विकसित नहीं होती। संवाद से तर्क-वितर्क सामने आते हैं। मालूम होता है कि आप जो सोच रहे हैं, उसके प्रतिपक्ष में कोई सोच सकता है। शास्त्र में दो पक्ष होते हैं। एक ही व्यक्ति जब शास्त्र लिखता है तो दोनों पक्षों को लिखता है। इसका अर्थ है कि विवेक जागृत करने के लिए दूसरे पक्ष को भी सामने रखना आवश्यक है।”
“लोग कहते हैं कि मैं रसवादी हूँ। मैं रस में विश्वास नहीं करता। यदि वादी हूँ तो मैं विवेकवादी हूँ। रामचरितमानस में तुलसीदास जी ने ‘विवेक’ शब्द का प्रचुर प्रयोग किया है। विवेक क्या है? भले बुरे को समझना, क्या करणीय है, क्या अकरणीय है, इन दोनों के बीच से सही रास्ते को ढूँढ़ना, निरंतर शोध करना ही विवेक है। विवेक मंथन करने के बाद आता है। ज्ञानप्राप्ति के लिए आत्ममंथन आवश्यक होता है।”
भविष्य को लेकर वे सदा आशावादी रहे। “जीवन में बहुत कुछ करना अभी बाकी है। हमारी संस्कृति को मिली-जुली कहा जाता है। इसकी पूरी जानकारी के लिए मैं संस्कृत ग्रंथों का पारायण करना चाहता हूँ। अपने संस्कारों से हमें कितना जुड़ाव है, कितना होना चाहिए, कितना हम उन से हटे हैं, इसका विवेक पैदा करना ज़रूरी है। मैं इस्लाम की मूल पुस्तकें पढ़ना चाहता हूँ। इस्लाम की पूरी जानकारी करना चाहता हूँ। मेरे मन में बार-बार यह प्रश्न उठता है कि अगर यह मिली-जुली संस्कृति है तो हम आपस में इतना लड़ते क्यों हैं? आपसी लड़ाई से बचाव के लिए मैं इस तरह का अध्ययन आवश्यक मानता हूँ।”
भाषाविज्ञान, संपादन, अध्यापन, अनुवाद, लेखन, पत्रकारिता के क्षेत्र में आचार्य दीक्षित का योगदान बहुमूल्य रहा। उनके अनेक विद्यार्थी विभिन्न विश्वविद्यालयों में प्राध्यापक और विभागाध्यक्ष हुए। हिंदी साहित्य का शायद ही कोई अध्येता हो जिसने डॉ. दीक्षित की कोई पुस्तक संदर्भ के लिए न पढ़ी हो। ‘आलोचना-रस सिद्धांत : स्वरूप विश्लेषण’, ‘साहित्य : सिद्धांत और शोध’ त्रेता : एक अंतर्यात्रा’, ‘हिंदी रीति परंपरा : विस्मृत संदर्भ’, ‘रसचिंतन के विविध आयाम’ (मराठी के 15 लेखकों के साहित्य का अनुवाद), ‘हरिचरणदास ग्रंथावली’ (काव्यखंड), ‘प्रताप पचीसी’, ‘दौलत कवि ग्रंथावली’, ‘आज के लोकप्रिय कवि शिवमंगल सिंह सुमन’, ‘कबीर ग्रंथावली’ ‘मैथिलीशरण गुप्त’ ‘सुमित्रानंदन पंत : आलोचना, प्रक्रिया और स्वरूप’, ‘कबीरदास : सृजन और चिंतन’, ‘मराठी संतों की हिंदीवाणी’ जैसे अन्यान्य ग्रंथों का लेखन, संपादन और अनुवाद हिंदी साहित्य को उनकी महती देन है।
सरकारी और गैरसरकारी अनेक संस्थाओं और संस्थानों ने उन्हें सम्मानित कर स्वयं को गौरवान्वित अनुभव किया। उन्हें प्राप्त प्रमुख अलंकरणों में साहित्य अकादमी द्वारा ‘भाषा सम्मान’, उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा ‘भारत भारती सम्मान’, हिंदी साहित्य समिति इंदौर द्वारा ‘अखिल भारतीय साहित्य पुरस्कार’, महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी द्वारा ‘अखिल भारतीय हिंदी सेवा पुरस्कार’, साहित्य सम्मेलन इलाहाबाद द्वारा ‘साहित्य वाचस्पति’ हिंदी साहित्य समिति कानपुर द्वारा ‘साहित्य भारती’ आदि सम्मिलित हैं।
हमारे एक आयोजन में उन्होंने कहा था कि लिखने के लिए वे दो सौ वर्ष जीना चाहते हैं। अपनी बहुआयामी प्रतिभा के साथ वे जीवन के अंत तक सक्रिय रहे। जब मैंने उनसे जानना चाहा कि अपने बहुआयामी व्यक्तित्व की चर्चा सुनकर खुद डॉ. दीक्षित के मन में किस तरह का चित्र उभरता है तो उनका उत्तर था, ” मुझे अच्छा लगता है लेकिन ऐसा कोई भाव पैदा नहीं होता जिसे मैं अहंकार कह सकूँ। हाँ, लगता है कि मैं जीवित हूँ।”
अपने सृजन के रूप में आचार्य डॉ. आनंदप्रकाश दीक्षित सदा जीवित रहेंगे।
© संजय भारद्वाज, पुणे
☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
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