॥ मानस के मोती॥
☆ ॥ परहित सरिस धरम नहिं भाई॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆
मनुष्य को अपनी चाह को पूर्ण करने में आनंद मिलता है। हर व्यक्ति जीवन मैं आनंद चाहता है और उसी के लिये कर्म करता है। मनुष्य ही नहीं हर जीव (प्राणी) दुख से दूर हो सुख या आनन्द प्राप्ति के लिए जीवन भर कार्यरत रहता है हर क्षण। अर्थात्ï जीवन का लक्ष्य है आंनद बल्कि परमानंद।
प्रकृति ने प्राणी को ज्ञानेन्द्रियाँ दी हैं जिनसे वह ज्ञान प्राप्त करता है और कर्मेन्द्रियाँ दी हैं जिनसे कर्म कर आनंद पाने की दिशा में बढ़ता है। इनके सिवाय मन है जिससे वह सोचता है समझता है और तभी कुछ करता है। मन ही ज्ञान और कर्म का मूल है। और कर्म का आधार ज्ञान होता है। जब जानता है तभी उस दिशा में जानकार काम करता है। मन यदि सही सोचता और समझता है तो कार्य सही होता है। यदि मन सही नहीं है तो सही कार्य नहीं होता, दुख होता है। मनुष्य घर परिवार समाज में रहता है। उसका सोच विचार और कार्य का आधार और क्षेत्र केवल व्यक्ति नहीं अन्य का संपर्क है अर्थात्ï उसका हर कार्य दूसरों को प्रभावित करता है। और दूसरों से प्रभावित होता है इसलिय उसे वही करना चाहिए जो उसे तथा औरों को आनंद दे। सिद्धान्त: यह सही सोच से ही संभव है और मनुष्य को सोच को सही रखने के लिए ही शिक्षा जरूरी है। आदिकाल से जब से मनुष्य जाति ने सभ्य व्यवहार करना सीखा संस्कृति को जन्म दिया, तब से ही उसे, समाज के अन्य सदस्यों के साथ उचित व्यवहार करने की सीख देने को नीति और अनीति समझाने को समाज को संयमित, सुखी और अनुशासित रखने को धर्म की स्थापना हुई। धर्म का अर्थ है जो धारण किया जाता है। धारण करने का अर्थ है कत्र्तव्य। क्या करना अच्छा है क्या बुरा है-हर धर्म यही विवेचना करता है और उसके समझने और व्यवहार में लाने का उपदेश देता है। विभिन्न देशों में जहाँ प्राचीन काल में मानव समुदाय पले बढ़े, स्थानीय परिस्थितियेां के अनुसार किसी विशेष व्यक्ति/ देवदूत/ अवतार या फरिश्ते ने उन्हें अनुशासित, संयमित रह सही व्यवहार करने की शिक्षा दी। उद्ïदेश्य हर एक समुदाय का यही रहा कि सब सुखी रहें, कष्ट न हो, सब मिलके एक लक्ष्य को पाने की ओर चलें, आपस में टकराव न हो। इसीलिए विश्व के विभिन्न भागों में विकसित होने वाले मानव समुदायों में वहाँ की परिस्थितियों के अनुसार रहन-सहन, सोच-विचार व्यवहार नीति-नियम विकसित हुए और उसको संचालित करने को अलग-अलग धर्माे की स्थापना हुई। धर्मों के मध्य भी मत भिन्नता के कारण पंथ बने और उनके अनुयायी सुख शांति और आनंद पाने के लिये उन धर्मांे की शिक्षाओं या उपदेशों के अनुयायी बने। धर्म जो स्थापित हुए थे जन समुदाय में शांति और आनंद प्रदान करने को लोगों की नासमझी से या गलत प्रचार से दूसरे पंथों या अनुयायियों का विरोध करने वाले बन गये और अंधविश्वासी नासमझ लोगों के व्यवहारों के कारण निरर्थक बैर और लड़ाई के आधार बन गये। हर समुदाय में समझदार दूरदर्शी और दूसरों का हित करने वाले थोड़े ही होते हैं। जो स्वार्थी तात्कालिक हित की बात सोचते हैं हठवादी हैं। ऐसे अधार्मिक ही अधिक होते हैं। इसीलिए धर्मों का जो लाभ होना चाहिए था वह न होकर उसका विपरीत असर समाज में हुआ। अंधविश्वासी ज्यादा हो गये और बढ़ते गये। आबादी के बढऩे के साथ-साथ ऐसे लोगों की संख्या भी बढ़ती गई और आज हम देख रहे हैं कि एक धर्म दूसरे धर्म का सहायक या पूरक होने के स्थान पर विरोधी बनकर उभर रहा है। लड़ाई का कारण बन गया है।
हर धर्म में सही आचरण का ही उपदेश है। मन-वचन और कर्म की एकरूपता की बात प्रथम महत्व की कही गई है। अर्थात्ï मन से सही सोचो, वही सत्य बात मुँह से बोलो और वैसा ही काम करो। परन्तु आज स्वार्थ परता के कारण मन-वचन और कर्म में एक रूपता के स्थान पर विभिन्नता अधिक दिख रही है। इसी से सारे संसार में उलझने हैं, झगड़े हैं, टकराव हैं, मारकाट है, युद्ध है। परिणामत: दूसरों को मारकाट कर अपना हित साधन करने की सोच और वृत्ति ने आतंकवाद को जन्म दिया है जिससे सारा विश्व जल रहा है, दुखी है। हाहाकार कर रहा है। कोई रास्ता नहीं दिख रहा है जग को सुलझाव का। हर धर्म ने मनुष्यों का ध्यान ईश्वर की प्रार्थना उपासना में लगाने के प्रयास के द्वारा उनकी वृत्तियाँ को आनंद प्राप्ति की ओर लगाकर बुराई से हटाने और अच्छाई के द्वारा मोक्ष, मुक्ति या बहिश्त पाने के अधिकारी बनने के लिए मोडऩे का प्रयास किया है। किन्तु आज तक पूरी सफलता नहीं मिली है।
सफलता तभी संभव होगी जब हम अपने ही हेतु नहीं जिनके साथ हम रहते हैं उनके हित के लिए भी सोचें और व्यवहार करें। इसीलिए हजरत मोहम्मद ने अपनी रोटी को पड़ोसी के साथ बांटकर खाने का उपदेश दिया था। ईसामसीह ने समाज के हर व्यक्ति के लिए त्याग करने और उनसे प्रेम करने व उनके दुख को दूर करने के लिए परमपिता से सदा प्रार्थना करने को कहा था। दुखी साथी के दुख को दूर करने के लिए उसकी सेवा करने का उपदेश दिया था। सनातम धर्म (हिन्दू धर्म) कहता है कि सोचो और प्रयास करो कि-
सर्वे सुखिन: सन्तु सर्वे सन्तु निरामया:,
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित दुखभागभवेत्ï॥
क्योंकि सारा विश्व ही अपना कुटुम्ब है। वसुधैव कुटुम्बकम्ï। सही बात हर धर्म ने बार-बार उच्च स्वर में कही है परन्तु आज लाउडस्पीकर लगाकर भक्तिभाव की दुहाई देने वाले तथा कथित धार्मिक लोगों के मन में धर्माेपदेश नहीं असर कर पाये हैं और यही आज के विश्व में न केवल मानव जाति की वरन समस्त प्रकृति और प्राणियों की दुर्दशा का कारण है।
“मानस” में तुलसीदास जी ने इस विषमता को बारीकी से देखा गहराई से सोचा और बड़ी सशक्त वाणी में कहा है-
परहित सरिस धरम नहिं भाई, परपीड़ा सम नहिं अधमाई॥
यदि परहित की बात हमें सदा याद रहे तो हमसे बड़ा धार्मिक और कौन हो सकता है और इस संसार को सुखी और समृद्ध होने से कौन रोक सकता है?
धर्म का सरल सूत्र यही है और धार्मिक होने के लिए परम्ï आनंद की प्राप्ति के लिए इससे बड़ा कोई उपाय भी संभव नहीं है। अत: इस मूलमंत्र का जाप भी होना चाहिये और हर कार्य भी इसी माप से किया जाना चाहिऐ।
यह मंत्र समस्त मानव जाति के लिए उपयोगी है किसी एक धर्म के अनुयायियों के लिए नहीं।
इसी के आधार पर अपना कत्र्तव्य निर्धारित कर व्यक्ति न केवल खुद को और समाज को सुख और आनंद दे सकता है वरन जीवन के उपरान्त परमपिता के चरणों में मोक्ष पा परमानंद को प्राप्त हो सकता है।
© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’
A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
विचारणीय आलेख, यथार्थ दर्शन से युक्त। रचना कार बधाई अभिनंदन के पात्र हैं।