॥ मानस के मोती॥
☆ ॥ मानस का रेखांङ्कित शाश्वत सत्य – प्रेम – भाग – 1 ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆
मनुष्य का मन विचारों का उद्गम स्थल है। विचार उत्पन्न होने पर ही मनुष्य कोई कार्य करता है। बहुत से विचार तो उठकर विलुप्त हो जाते हैं परन्तु कुछ ऐसे होते हैं जो कार्य कराते हैं। औरों से बिना कहे व्यक्ति को चैन नहीं मिलती हैं। जन साधारण तो अपने विचार मौखिक ही एक दूसरे पर व्यक्त कर अपना सारा कार्य-व्यापार सम्पन्न करते हैं, किन्तु मनीषी कवि लेखक अपने मन के विचारों को लिखकर व्यक्त करते हैं। ऐसे विचार गंभीर होते हैं और जन-जन को दीर्घकाल तक चिन्तन मनन का मसाला सबों को देते हैं। उनसे समाज को मार्गदर्शन भी मिलता है। ये विचार व्यक्ति के व्यक्तित्व समाज की तत्कालीन स्थितियों से प्रभावित होते हैं। इसीलिये उन विद्वानों के द्वारा रचित पुस्तकें समाज को उनके विचारों की सुगंध देती हैं और समाज की समस्याओं को सुलझा सकने के लिए राह दर्शाती हैं। ऊंचे विचारों को दर्शाने वाली ऐसी पुस्तकें युग-युग के लिए अमर हो जाती हैं जैसे गीता या रामायण।
महात्मा तुलसीदास के मानस का अध्ययन करने पर हमें उनकी अवधारणा इच्छा और लेखन के उद्देश्य का ज्ञान होता है। उन्होंने रामचरितमानस की रचना क्यों की, उन्हीं के शब्दों में मानस के प्रारंभ में लिखा है-
नाना पुराण निगमागम सम्मतं यत् रामायणे निगदितं क्वचिदन्यतोदपि
स्वान्तस्सुखाय तुलसी रघुनाथगाथा भाषानिबद्धमतिमंजुलमातनोति।
वे कहते हैं कि विभिन्न वेद शास्त्रों में और बाल्मिकी रामायण में तथा कुछ अन्य गं्रथों में भी जो कुछ कहा गया है उसी को उन्होंने आत्मसुख की भावना से सुख के लिए सरल भाषा में अपनी तरह से लिखा है। इससे स्पष्ट है कि तुलसीदास जी ने नानापुराण निगम, बाल्मिकी रामायण और कुछ अन्य आध्यात्मिक गं्रथों का अध्ययन मनन कर जो सब संस्कृत भाषा में लिखे हुए हैं, उनके भावों को अपने विचारों के अनुसार प्रचलित लोकभाषा (जन-जन की बोलचाल की भाषा) में लिखा है। लोक भाषा में इसलिये लिखा कि जिससे जनसाधारण उसे पढ़ सकें और समझ सकें और उसमें निरूपित विचारों और भावों को लोक कल्याण के लिए व्यवहार में ला सकें।
महात्मा तुलसीदास भगवान राम के अनन्य भक्त थे। मानस में श्रीराम के जीवन का विशद वर्णन ही उनका प्रतिपाद्य विषय है परन्तु हर प्रसंग में उन्होंने जन साधारण के लिये सरल भाषा में लोकत्तियों और सूक्तियों तथा उदाहरणों और दृष्टान्तों के माध्यम से जनजीवन को सीखने और सुखी बनाने के लिए उपदेशात्मक प्रवचन भी लिखा है।
प्रत्येक काण्ड के प्रारंभ में उन्होंने ईश प्रार्थनायें की हैं जो संस्कृत में हैं। परन्तु सम्पूर्ण गाथा हिन्दी (अवधी लोकभाषा) में इसीलिये वर्णित की है, जिससे सामान्य ग्रामवासी भी पढक़र या सुनकर उस कथा प्रसंग से कुछ पा सकें, सीख सकें। ”स्वान्तस्सुखाय” का अर्थ होता है आत्म सुख के लिये परन्तु विद्वानों का ”स्वान्तस्सुखाय” ”बहुजन हिताय” होता है। हर एक का सुख अलग होता है। परन्तु लेखक या कवि का सुख तो इसी में होता है कि उसकी रचना अधिक लोगों के द्वारा पढ़ी जाय और सराही जाय। जितने अधिक संख्या में लोग उसकी रचना का रसास्वादन करें और उससे उनके विचारों की शुद्धि हो यही कवि या लेखक की सबसे ज्यादा प्रसन्नता होती है। यही उसका आत्मसुख है। इस दृष्टि से देखें तो रामचरित मानस अद्भुत गं्रथ है। भारत में तो हर हिन्दू के घर में उसकी प्रति उपलब्ध है। पढ़ी जाती है और पूजी जाती है। अन्य धर्मावलंबियों द्वारा भी उसे पढ़ा और सराहा जाता है। रामचरितमानस का अनुवाद विश्व की विभिन्न भाषाओं में हो चुका है और दक्षिण-पूर्वी एशिया के मुस्लिम बाहुल्य देशों में भी उसका सम्मान है। तुलसीदास जी की मनोभावना के अनुरूप उनकी अपूर्व आध्यात्मिक रचना ‘मानसÓ को उद्देश्य प्राप्ति भी हुई है और वे प्रसिद्धि के साथ सफल भी हुए हैं। इसमें भगवान राम की जीवन की सम्पूर्ण गाथा है किन्तु उनके जीवन की घटनाओं को आदर्शरूप में प्रस्तुत किया गया है जो पाठक पर गहरा मनोवैज्ञानिक प्रभाव छोड़ती है। घर-परिवार और समाज में घटित होने वाले छोटे से छोटे व्यवहारों को प्रस्तुत कर कवि ने वह सबकुछ समझा दिया है कि मनुष्य को जीवन में कैसे जीना चाहिये। उसको सब के साथ कैसा संबंध रखना चाहिये और कैसा व्यवहार करना चाहिये, जिससे जीवन में सबसे मधुर संबंध रख द्वेष और कलह से दूर रह प्रेम का व्यवहार कर सफल हो सकें। मानस में प्रेम के सशक्त धागे से मनुष्य मन के समस्त भावों को पुष्प की भांति गूंथकर, कवि ने प्रेम के माध्यम से ही समस्त कठिनाइयों को सुलझाने के मनोवैज्ञानिक सूत्र प्रस्तुत किये हैं। मानस में पारिवारिक हर रिश्ते में प्रेम, भ्रार्तृत्व, सहयोग, विश्वास, श्रद्धा, भक्ति, त्याग, निष्ठा, शौर्य, कर्तव्य का सच्चाई और ईमानदारी से निर्वाह, सदाचार का पालन, दुराचारियों का समाजहित में दमन, विचारों की दृढ़ता, निर्णय की अंडिगता तथा विनम्रता, समानता और सद्भाव के अनुपम आदर्श हैं। मनोविकारों पर विजय पाने से जीवन में सुख-शांति और सामाजिक समृद्धि संभव है तथा भौतिक तथा आध्यात्मिक उन्नति के लिए दैनिक व्यवहारों में शुद्धता और पवित्रता का पालन किया जाना सुखदायी और परिणामप्रद होता है- इसी का संकेत है। रामकथा के माध्यम से समाज में नई चेतना फूंकना, अपने परम आराध्य राम का जनहितकारी मंगलकर्ता ईश्वरीय स्वरूप हर भक्त हृदय में स्थापित करना, तुलसी का लक्ष्य प्रतीत होता है। श्रीराम तो मर्यादा पुरुषोत्तम हैं। दीन-दुखियों के शरणदाता हैं। सबके स्वारथरहित सखा हैं। निर्बल के बल है। भक्तों के लिये भवसागर पार कराने वाले पूज्य परमात्मा हैं। उनके प्रति सहज श्रद्धा जागती है। मानस के प्रमुख पात्र (नायक) हैं, किन्तु उनके जीवन से संबंधित हर पात्र आदर्श आचरण वाला है। राम के भाई भरत और लक्ष्मण तथा शत्रुघ्न, भातृप्रेम और त्याग की प्रतिमूर्ति हैं। मातायें कौशल्या, सुमित्रा तथा कैकेयी भी वात्सल्य की प्रतिमा हैं। आयोध्यावासी नागरिक नितान्त प्रेमल व सदाचारी और धार्मिक हैं। अन्य सभी सेवक सहायक जो वनवास की अवधि में उन्हें मिले- सुग्रीव, हनुमान, अंगद, विभीषण आदि आदर्श सेवक हैं। हर पात्र, जो भी मानस में हैं अपनी भूमिका में आदर्श पात्र हैं। ऐसा तो ग्रंथ विश्व साहित्य में कोई दूसरा नहीं मिलता। इसीलिये यह ग्रंथ बेजोड़ है, कालजयी है तथा मनमोहक है। इसमें राजनीति, धर्मनीति, लोकनीति तथा अध्यात्म की शिक्षायें हैं। दक्षिण पूर्व एशिया के देशों में- कम्बोडिया, वियतनाम, जावा, सुमात्रा में रामकथा का बड़ा आदर और महत्व है। विभिन्न अवसरों पर वहां रामकथा का रंगमंच पर प्रदर्शन किया जाता है।
क्रमशः…
© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’
A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈