मानस के मोती

☆ ॥ मानस में तुलसी का अभिव्यक्ति कौशल – भाग – 1 ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

हीरे की कीमत उसकी तराश की उत्कृष्टता और उससे निकलने वाली प्रकाश किरणों की प्रखरता पर होती है। उसी प्रकार साहित्य की महत्ता उसके माधुर्य, हृदय ग्राहिता, अभिव्यक्ति के सौंदर्य और उसकी उपयोगिता पर निर्भर करती है। गद्य हो या पद्य रचनाकार का एक दृष्टिकोण होता है और उसकी कथन या प्रस्तुतिकरण की शैली। एक ही कथानक को प्रस्तुत करने का हर कवि या लेखक का अपना आसान तरीका होता है जो दूसरों से भिन्न होता है। पाठक उस कथनशैली से समझ सकता है कि वह किसकी रचना है। इसीलिये अंग्रेजी में कहावत है ‘स्टाइल इज मैन’ (Style is man) महाकवि महात्मा तुलसीदास ने मानस की रचना अनेकों छंदों का उपयोग करते हुये किया है परन्तु प्रमुख्यत: कथन चौपाई, दोहे और सोरठों में है। यह तो हुई रचना के कलेवर की बात, परन्तु उनकी रचना के प्रस्तुतिकरण में या कथनशैली में एक अनुपम कौशल दिखाई देता है। किसी पात्र के मनोभाव को पाठक पर प्रकट करने के लिये या प्रसंग को नया मोड़ देकर आगे बढ़ाने के लिए उन्होंने अपनी कथन प्रणाली को सुन्दर तथा आकर्षक रूप दिया है जो अन्य कवियों की रचनाओं में नहीं दिखता। इनसे उनकी अभिव्यक्ति सरस, सफल और आकर्षक ही नहीं हुई है वरन पाठक के मन को भी एक अलौकिक आनन्दानुभूति देती है। उन्होंने पात्रों के मुँह से सीधे अप्रिय या असमंजस्यपूर्ण कथन नहीं कराया है। बात को कहने या आगे बढ़ाने को या दुविधा की स्थिति टालने का अथवा सामाजिक मर्यादा के निर्वाह के लिये जो झीने झिलमिले परदे का उपयोग किया है वह बड़ा सार्थक, सटीक और मोहक प्रतीत होता है। इससे रचना को समझने में पाठक को जो स्वकल्पना करने का अवकाश मिलता है वह बड़ा रस घोलने वाला मिसरी सा मीठा प्रतीत होता है। वास्तव में समाज में अवगुण्ठन का बड़ा मनोवैज्ञानिक आकर्षण और मधुरता है। इसलिये घरों के दरवाजों, खिड़कियों पर हम चमकीले परदे लगाते हैं। किसी सौंदर्य के उभारने में और उत्सुकता बढ़ाने में अवगुण्ठन का क्या महत्व है यह कहे जाने की आवश्यकता नहीं है। उन्होंने इसलिये विभिन्न स्थानों पर आकाशवाणी, सपने, शगुन-अपशगुन, प्राकृतिक घटनाओं, पशु-पक्षिओं की बोली-वाणी, किसी अन्य पात्र के मन की उत्सुकताओं के द्वारा कथाप्रसंग के मार्मिक भावों को स्पष्ट करते या उन्हें सघनता प्रदान करते हुये अपना अभिप्राय प्रकट किया है। इस कौशल में उन्हें महारत हासिल है जो कम ही सुयोग्य साहित्यकारों को देवी सरस्वती के प्रसाद स्वरूप प्राप्त होती है। ऐसे अनेक प्रसंग प्राय: मानस के हर काण्ड में मिलते हैं। ऐसे कुछ महत्वपूर्ण स्पष्ट प्रसंगों की झलक निम्न अवसरों पर देखिये-

पति-पत्नी हिमवंत और मैना के घर में पार्वती के जन्म लेने पर जब नारद जी पधारे तो उन्होंने पुत्री के भाग्य के विषय में कुछ बताने के लिये मुनिवर से प्रार्थना की। नारद जी ने कन्या के भाग्य के संबंध में कहा-

सैल सुलच्छन सुता तुम्हारी, सुनहु जे अब अवगुन दुइचारी।

अगुन अनाम मातु-पितु हीना, उदासीन सब संसय छीना।

जोगी जटिल अकाम मन नगन अमंगल वेष।

अस स्वामी एहि कहँ मिलिहि परी हस्त असि रेख।

ऐसे तो एक शंकर जी ही हैं अत: यदि कन्या तपस्या करे और यदि वे प्रसन्न हो तो लडक़ी को वे पति रूप में मिल सकते हैं। यह सुन माता-पिता को भारी असमंजस हुई। प्रिय बेटी को जंगल में जाकर तपस्या करने को कौन कहे? तव माँ ने दुखी मन से अपनी बेटी को हृदय से लगा लिया। बेटी ने माता को अपने मन का भाव स्पष्ट समझाने के लिये बताया-

सुनहि मातु मैं दीख अस सपन सुनावहुं तोहि

सुन्दर गौर सुविप्रवर अस उपदेसेउ मोहि।

करहि जाइ तपु सैल कुमारी, नारद कहा सो सत्य विचारी।

मातु-पितहि पुनि यह मत भावा, तपु सुखप्रद दुख दोष नसावा।

इस प्रकार पार्वती से न माता, न पिता या किसी अन्य ने उन्हें वन में जाकर तपस्या सरीखे कठिन कार्य को संपन्न करने के लिये कहा, वरन स्वप्न के संकेत के द्वारा जटिल समस्या को पार्वती ने स्वत: ही माता से बयान कर सब समस्या सुलझा दी।

क्रमशः…

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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