मानस के मोती

☆ ॥ मानस में तुलसी का अभिव्यक्ति कौशल – भाग – 3 ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

वनयात्रा में ही एक अन्य सुन्दर प्रसंग आता है जहां ग्रामीण स्त्रियां नारि सुलभ उत्सुकता से सीता जी ने प्रश्न करती हैं और सीता जी ने बिना शब्दों का उपयोग किये भारतीय मर्यादा की रक्षा करते हुये उनसे पति का नाम लिये बिना नारि की स्वाभाविकता शील को रखते हुये केवल अपने सहज हावभाव से उन्हें राम और लक्ष्मण से उनका क्या संबंध है बताती हैं-

ग्राम्य नारियां पूंछती हैं-

कोटि मनोज लजावन हारे, सुमुखि कहहु को आंहि तुम्हारे।

सुनि सनेहमय मंजुल वाणी, सकुची सिय मन महुँ मुसकानी॥

सीता जी के उत्तर को कवि यूं वर्णन करता है-

तिन्नहिं बिलोकि विलोकत धरनी, दुहुं सकोच सकुचत बरबरनी।

सकुचि सप्रेम बाल मृग नयनी, बोली मधुर वचन पिकबयनी॥

सहज सुभाय सुभग तन गोरे, नाम लखनु लघु देवर मोरे।

बहुरि बदन बिधु लोचन ढाँकी, प्रियतन चितई भौंह कर बाँकी।

खंजन मंजु तिरीछे नयननि, निज पति कहेउ तिन्हहिं सिय सयननि।

भई मुदित सब ग्राम वधूटी, रंकन्ह राय रासि जनु लूटी।

ग्राम वघूटियों ने सीता जी को प्रसन्न हो ग्रामीण भाषा और वैसी ही उपमा में आशीष दिया-

अति सप्रेम सिय पाँय परि, बहुविधि देहिं असीस।

सदा सोहागनि होहु तुम्ह, जब लगि महि अहि सीस॥

कितना भोला और पावन व्यवहार है जो तुलसी ने संकेतों का उपयोग कर प्रस्तुत किया है।

इसी प्रकार हनुमान जी के माँ जानकी की खोज में लंका पहुंचने पर जो उनके लिये सर्वथा नयी अपरिचित जगह थी, उन्हें न तो राह बताने वाला कोई था और न सीता जी का पता ही बताने वाला था। तुलसीदास जी ने शब्द संकेतों व चित्रित चिन्हों से राम भक्त विभीषण को पाया जिसने माता सीता जी तक पहुंचने की युक्ति बताई और पता समझाया। वर्णन है-

रामायुध अंकित गृह शोभा बरनि न जाय।

नव तुलसिका वृन्द तहं देखि हरष कपिराय॥

लंका निसिचर निकर निवासा, इहां कहां सज्जन कर वासा।

मन महुँ तरक करै कपि लागा, तेही समय विभीषण जागा।

राम-राम तेहिं सुमिरन कीन्हा, हृदय हरष कपि सज्जन चीन्हा।

एहि सन हठ करहहुं पहिचानी, साधुते होई न कारज हानि॥

इस प्रकार कठिन समय में संकेतों से कथा को मनमोहक रूप दे आगे बढ़ाया है।

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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