मानस के मोती

☆ ॥ मानस में भ्रातृ-प्रेम – भाग – 1 ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

महाराजा दशरथ के चार पुत्र- राम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न में बचपन से ही अत्याधिक पारस्परिक प्रेम था। राम सबसे बड़े थे अत: सभी छोटे भाई उन्हें प्रेम से आदर देते थे। उनकी आज्ञा मानते थे और उनसे कुछ सीखने को तैयार रहते थे। राम भी सब छोटे भाईयों के प्रति प्रीति रखते थे और उनके हितकारी थे।

राम करहिं भ्रातन्ह पर प्रीती, नाना भाँति सिखावहिं नीती।

छोटे भाई उनकी आज्ञा मानने को सदा तत्पर रहते थे-

सेवहिं सानुकूल सब भाई, रामचरन रति अति अधिकाई।

प्रभु मुख कमल विलोकत रहहीं, कबहुँ कुपाल हमहिं कछु कहहीं॥

जनकपुर में धनुष यज्ञ के अवसर में गुरु की आज्ञा से राम ने शिव धनुष को चढ़ाया। धनुष टूट गया। राजा जनक के प्रण के अनुसार राम-सीता का विवाह हुआ। उसी मण्डप में चारों भाइयों का विवाह भी सपन्न हुआ। जनक जी के परिवार से सीता जी की अन्य बहिनों के साथ विवाह संपन्न हुये- लक्ष्मण-उर्मिला, भरत-माण्डवी, शत्रुघ्न-श्रुतकीर्ति।

शिवधनुष के टूटने पर परशुराम जी क्रोध में उपस्थित हो धनुष तोडऩे वाले को लांछित करने लगे। यह लक्ष्मण को अच्छा न लगा। लक्ष्मण जी ने परशुराम जी को शान्त रहने के लिए कड़े शब्दों में कहा-

मिले न कबहु सुभट इन गाढ़े, द्विज देवता धरहिं के बाढ़े।

लक्ष्मण को ऐसा कहने से रोकते हुये राम स्नेहवश बोले-

नाथ करिय बालक पर छोहू, सूध दूध मुख करिय न कोहू।

दोनों भाई पारस्परिक प्रेमवश एकदूसरे को परशुरामजी के क्रोध से बचाने का प्रयास करते हैं।

राजा दशरथ अपनी वृद्धाावस्था को नजदीक देख अपने गुरु, मंत्री और समस्त प्रजा की सहमति से राम का राज्याभिषेक करने का निश्चिय करते हैं। राम को जब यह ज्ञात हुआ तो वे विचार करते हैं-

जनमे एक संग सब भाई, भोजन, सयन, केलि लरिकाई।

विमल वंश यह अनुचित एकू, बंधु बिहाय बड़ेहि अभिषेकू।

इस विचार से राम का भ्रातृप्रेम उनके मन की उदारता के भाव प्रकट होते हैं। राज्याभिषेक के स्थान पर परिस्थितियों के उलटफेर से राम को बनवास दिया गया और भरत जो तब ननिहाल में थे को गुरु वशिष्ठ ने शीघ्र बुलवाया क्योंकि भरत की माता कैकेयी के द्वारा दो वरदान पाने से राम को वन जाना पड़ा और भरत को राजगद्दी प्राप्त हुई थी। अत: उनका राज्यतिलक किया जाना था। राम के वियोग में राजा दशरथ का प्राणान्त हो गया था। उनका अंतिम संस्कार भी किया जाना था। भरत ने अयोध्या में आकर जो कुछ होते देखा उससे अत्यंत क्षुब्ध हो माता को बुरा भला कहा। पिता का अंतिम संस्कार किया। खुद को सारे अनर्थ का कारण जानकर प्रायश्चित की दृष्टि से वन में राम से मिल कर अपना मन हल्का करने का सोचा। सबने उन्हें राजपद स्वीकारने का आग्रह किया पर उन्हें राम के प्रेमवश यह सबकुछ स्वीकार नहीं था। वे सब की इच्छानुसार सबजन समुदाय और राजपरिवार तथा गुरु वशिष्ठ की अगुवाई में राम के पास जाने को चित्रकूट में जहां राम थे चलने को तैयार हुये। उधर राम को वन में छोडक़र जब मंत्रि सुमंत दुखी मन से वापस हुये तो मातृप्रेम से भरे हुये राम ने उनसे संदेश भेजा-

कहब संदेश भरत के आये, नीति न तजिब राज पद पाये।

पालेहु प्रजहिं करम मन बानी, सेएहि मातु सकल समजानी।

क्रमशः…

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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