मानस के मोती

☆ ॥ मानस में भ्रातृ-प्रेम – भाग – 2 ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

इधर भरत चित्रकूट जाते हुये मन में भाई राम के प्रेम पर अटूट विश्वास था कि मिलने पर वे उन्हें क्षमा कर वापस आकर स्वत: राजा बनेंगे। अपने मन में भरत के लिये किसी प्रकार का बुराभाव नहीं रखेंगे क्योंकि बचपन से ही वे भरत को प्रेम करते हैं। न जाने माता कैकेयी ने किस दुर्बुद्धिवश सारी अयोध्या पर आपत्ति ला खड़ी की है। वे विश्वास रखते हैं-

मैं जानऊं निज नाथ स्वभाऊ, अपराधिहुं पर कोह न काऊ।

मो पर कृपा सनेहु विशेषी, खेलत खुनिस न कबहूं देखी॥

सिसुपन ते परिहरेहु न संगू कबहुं न कीनि मोर मन भंगू।

मैं प्रभु कृपा रीति जियं जोही, हारेहु खेलजिता एहु मोही॥

आन उपाय मोहि नहिं सूझा, को जिय की रघुबर बिन बूझा॥

भरत के दल बल सहित, राम के पास जाने के कारण कईयों को आशंकायें होती हैं। पर राम का पूरा विश्वास है भरत पर-

भरतहिं होई न राजमदु विधि हरिहर पद पाई।

कबहुँ कि काँजी सीकरनि, क्षीर सिंधु विनशाई॥

भरत चित्रकूट तो बड़े भाई राम को वापस लाने का संकल्प लेकर गये थे। उन्हें विश्वास था कि राम के राजा बनने के लिये उनके आग्रह वे मान लेंगे, क्योंकि वे उन्हें बहुत प्यार करते हैं और इससे उनका प्रायश्चित हो जायेगा। उन्हें मन में शांति भी मिलेगी और समस्त अयोध्या का मन प्रसन्न होगा। परन्तु चित्रकूट में राम के मन में उनके लिये अगाध प्रेम ने उनकी मनोभावना ही बदल दी जब राम ने उनपर उनकी शुभ इच्छानुसार ही सही निर्णय कर वापस अयोध्या ले जाकर राज्याभिषेक करने की जिम्मेदारी छोड़ दी। अपने आग्रह पर चलने के लिये दूसरे को बाध्य करने की अपेक्षा यह अधिक उद्दात्त विचार कि कर्तव्य और मर्यादा का उल्लंघन कर किसी को असमंजस में डाल काम कराना कितना सही प्रेम प्रदर्शन होगा, भरत को निर्णय लेना था। राम और भरत का पारस्परिक प्रेम को निभाते हुये दोनों को दोनों पर जिम्मेदारी डालना और निर्णय लेना मानस का अद्भुत मार्मिक प्रेम प्रसंग है। राम को लौटाने का आग्रह त्याग भरत को कहना पड़ा-

अब कृपाल मोहि से मत भावा, सकुच स्वामि मन जाई न पावा।

प्रभुपद सपथ कहऊँ सतभाउ, जग मंगल हित एक उपाऊ॥

प्रभु प्रसन्न मन सकुच तजि जो जेहि आयसु देव।

सो सिर धरि धरि करिहि सब मिटहि अनट अवरेह॥

तब- दीनबंधु सुन बंधु के वचन दीन छलहीन।

देशकाल अवसर सरिस बोले राम प्रवीण॥

तात तुम्हारि मोरि परिजन की चिंता गुरहि नृपहिं घर वन की।

माथे पर गुरु मुनि मिथलेसू, हमहिं तुम्हहिं सपनेहु न कलेसू॥

पितु आयसु पालहि दुहुँ भाई, लोक वेद भल भूप भलाई।

गुरु पितु मातु स्वामि सिख पाले, चलेहु कुमग पग परहि न खाले।

अस विचार सब सोच विहाई, पालहु अवध अवधि भर जाई॥

इस प्रकार आपसी प्रेम, पिता का वचन और रघुकुल की रीति का मान रख कर राम ने भरत को अयोध्या वापस जाकर राज्य का संचालन और सुरक्षा का भार दे दिया।

भरत और शत्रुघ्न अयोध्या आकर एक सेवक की भांति राम की चरणपादुकाओं को राज सिंहासन पर आसीन कर स्वत: भी राम की ही भांति तापस जीवन बिताते हुए 14 वर्षों तक राम के राज्य का उचित संचालन किया और राम के वापस आने पर उनका राजतिलक कर उन्हें उनका राज्य सौंप दिया।

क्रमशः…

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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