॥ मानस के मोती॥
☆ ॥ मानस में भ्रातृ-प्रेम – भाग – 3 ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆
राम के साथ लक्ष्मण वन को गये। चौदह वर्षों तक उनके साथ रह सब कष्ट सहे और बड़े भाई और भाभी की सेवा व रक्षा की। लंका में युद्ध के समय जब लक्ष्मण को मेघनाद ने शक्ति से घायल किया। वे अचेत हो गये तो राम ने उनकी प्राण रक्षा के लिये यत्नकर वैद्यराज सुषेण के कथनानुसार हनुमान जी की योग्यता से हिमालय से संजीवनी बूटी मंगवाई और उन्हें स्वस्थ करने को सबकुछ किया। दुखी राम के इस कथन से उनके हृदय में भाई लक्ष्मण के प्रति गहन प्रेम की झलक स्पष्ट दिखाई देती है जब रुदन करते हुये वे कहते हैं-
सकहु न दुखित देखि मोहि काऊ, बंधु सदा तुम मृदुल सुभाऊ।
मम हित लागि तजेहु पितु माता, सहेहु विपिन हिम आतप वाता॥
सो अनुराग कहां अब भाई, उठहु न सुनि मम बच बिकलाई।
जो जनतेऊँ वन बंधु बिछोहूं, पिता वचन मनतेहू नहिं ओहू॥
सुत बित नारि भवन परिवारा, होंहिं जाहिं जग बारम्बारा।
अस विचार जिय जागहु ताता, मिलई न जगत सहोदर भ्राता॥
जथा पंख बिन खग अतिदीना मनि बिनु फनि करिबर कर हीना।
अस मम जिवन बंधु बिनु तोही, जौ जड़ दैव जिआवै मोही॥
जैहहुँ अवध कौन मुँह लाई, नारि हेतु प्रिय बंधु गंवाई।
इन समस्त प्रसंगों के प्रकाश में सब भाइयों में आपस में कितना प्रेम था स्पष्ट हो जाता है। आज जब संसार में भाईयों में आपस में छोटी-छोटी बातों में मतभेद और रार होती दिखती है तब मानस में भ्रातृप्रेम का प्रस्तुत आदर्श समाज के लिये अनुकरणीय है और भविष्य में भी संसार के लिये मार्गदर्शी रहेगा।
© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’
A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
संबंधों की भ्रात्रि प्रेम की सटीक व्याख्या , सच में मानस में अनेक दृश्य है जो संबंधों की झांकी प्रस्तुत करते हैं, जिसमें मातृप्रेम, भ्रात्रिप्रेम, कर्मनिष्ठा, श्रद्धा भक्ति समर्पण दिखाई देते हैं इसीलिए गो स्वामी जी की रचना धार्मिता सर्वोपरि है।