॥ मानस के मोती॥
☆ ॥ मानस में तुलसी के अनुपम उपदेश – भाग – 2 ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆
मानस में राम कहते हैं-
शंकर प्रिय मम द्रोही, शिव द्रोही मम दास।
सो नर करहिं कलप भरि घोर नरक महँ बास॥
सीताजी को शक्ति का अवतार बताकर शक्ति की महत्ता प्रतिपादित की है-
श्रुति सेतु पालक राम तुम जगदीश, माया जानकी
जो सृजति पालति हरति नित रुख पाई कृपा निधान की॥
शंकर जी भगवान राम का सदा ध्यान करते हैं। इससे भगवान राम और शंकर में अर्थात् वैष्णव और शैव मतों में कोई भेद नहीं है।
शिव जी कहते हैं-
उमा जे राम चरणरत, विगत काम मद क्रोध।
निज प्रभुमय देखेहिं जगत केहिसन करहिं विरोध॥
प्रभु के साकार और निराकार रूपों के विषय में भी तुलसी की समन्वयकारी दृष्टि है-
सगुनहि अगुनहि नहिं कछु भेदा, गावहिं मुनि पुरान बुधि वेदा।
अगुन सगुन दुई ब्रह्म-स्वरूपा, अकथ अनादि अगाध अनूपा॥
पार्वती जी ने शंकर जी से पूछा-
जो गुनरहित सगुन सोई कैसे?
शिवजी ने समझाया-
जल हिम उपल विलग नहिं जैसे।
अगुन, अरूप, अलख अज जोई, भगत प्रेमबस सगुन सो होई॥
राम को भक्त का प्रेम प्रिय है। बिना हृदय के अनुराग के वे प्रकट नहीं होते-
रामहि केवल प्रेम पियारा, जानि लेहु जो जानन हारा।
मिलहि न रघुपति बिनु अनुरागा, किये जोग, जप ध्यान विरागा।
कहा है-
हरि व्यापक सर्वत्र समाना, प्रेम ते प्रकट होहि भगवाना।
जाके हृदय भगति जस प्रीति, प्रभु तहँ प्रकट सदा यह रीति॥
क्रमशः…
© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’
A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈